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आस्था की आज़ादी बनाम कट्टरता की दीवार : निजी आस्था पर जनमत क्यों?

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अवधेश झा | नई दिल्ली 

कभी-कभी किसी व्यक्ति का निजी कथन भी सामूहिक असहिष्णुता का दर्पण बन जाता है। अमेरिका के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार JD Vance ने हाल ही में एक साधारण-सी व्यक्तिगत बात कही — कि वे “उम्मीद करते हैं उनकी पत्नी एक दिन ईसाई धर्म अपनाएंगी।” यह बयान सुनते ही मानो आग भड़क उठी। सोशल मीडिया और धार्मिक मंचों पर बहस शुरू हो गई कि क्या यह ‘हिंदू-विरोधी’ टिप्पणी थी, क्या यह ‘धार्मिक दबाव’ था, या क्या यह किसी के निजी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं है?

दरअसल, यह विवाद हमें एक गहरी सच्चाई की याद दिलाता है — दुनिया में धर्म के नाम पर सबसे ज़्यादा चर्चा वहीं होती है, जहाँ धर्म की आत्मा — सहिष्णुता और निजी स्वतंत्रता — सबसे कम समझी जाती है। पति-पत्नी, परिवार, या किसी भी व्यक्ति का धार्मिक विश्वास उसकी आत्मा का मामला है, कोई सार्वजनिक नारा नहीं। जब कोई आदमी या औरत अपने जीवनसाथी के साथ अलग-अलग आस्थाएँ रखता है, तो यह विविधता नहीं, बल्कि परिपक्वता की निशानी है।

JD Vance ने अपने कथन में कहीं भी मजबूरी या दबाव की बात नहीं की। उन्होंने कहा कि अगर उनकी पत्नी ईसाई न भी बनें, तो भी यह उनके रिश्ते को प्रभावित नहीं करेगा। यानी यह एक भावनात्मक अपेक्षा थी, कोई धार्मिक आदेश नहीं। लेकिन कट्टर सोच वाले समाजों में आज इतना फर्क समझना भी मुश्किल हो गया है। किसी की निजी भावना को ‘धर्म का अपमान’ या ‘राजनीतिक साज़िश’ बना देना, आधुनिक दौर की सबसे बड़ी विडंबना है।

यह केवल अमेरिका का नहीं, बल्कि वैश्विक परिघटना है। भारत में भी हम देखते हैं कि विवाह, प्रेम, और व्यक्तिगत विश्वास जैसे विषयों पर धर्म के ठेकेदार अपनी राय थोपने से नहीं चूकते। “कौन किस धर्म में रहे, कौन क्या माने” — यह तय करने का अधिकार किसी पंचायत या मंच को नहीं, बल्कि व्यक्ति के विवेक को है।

धर्म का असली सार भक्ति में नहीं, सहनशीलता में है। आस्था जब स्वतंत्र होती है, तभी वह पवित्र होती है। और जब किसी को किसी की आस्था से दिक्कत होने लगे, तो यह धर्म नहीं, अहंकार का विस्तार होता है।

इस पूरे विवाद से यही सीख मिलती है कि हमें दूसरों की मान्यताओं को बदलने की नहीं, उन्हें समझने की ज़रूरत है। समाज तब ही परिपक्व बनेगा जब हम यह स्वीकार करेंगे कि हर व्यक्ति को अपने विश्वास का उतना ही अधिकार है, जितना हमें अपने का है।

इसलिए, धर्म के नाम पर निजी जीवन में झांकना बंद कीजिए। क्योंकि इंसान का विश्वास उसकी आत्मा का मामला है — अदालत या अखाड़े का नहीं।

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