राहुल गांधी को शायद यह भरोसा था कि अगर वह वोट चोरी, फर्जी वोटरलिस्ट, बाहरी लोगों द्वारा वोट डाले जाने और चुनाव आयोग के संदिग्ध फैसलों का खुलासा करेंगे, तो देश जाग उठेगा। उन्हें लगा था कि लोकतंत्र की सुरक्षा पर उठे उनके सवालों से मीडिया में हलचल मच जाएगी, जनप्रतिनिधि जवाब देने को मजबूर होंगे और जनता अपने अधिकार के लिए सड़क पर उतर आएगी। पर राहुल भूल रहे हैं कि यह वह देश है जहां लोकतंत्र की मरते दम वाली आवाज़ को भी शोरगुल और बहस के नाम पर दबा दिया जाता है। यह वह धरती है जहां सच्चाई को महत्व नहीं मिलता, लेकिन सच्चाई बताने वाले को मज़ाक का पात्र बना दिया जाता है। यहाँ सच बोलने वाले को सलाह दी जाती है कि “हिंदी में बोलो”, “स्मार्ट बनो”, “पब्लिक इमेज सुधारो”, जबकि लोकतंत्र के पेट में चाकू कौन घोंप रहा है — इसका हिसाब कोई नहीं पूछता। आज की राजनीति में आरोपों का वजन नहीं, सत्ता के समर्थन का वजन चलता है। राहुल यह मान बैठे थे कि तथ्य बोलेंगे — पर यहाँ तथ्यों को दबाने वाली मशीनें ज्यादा ताक़तवर हैं।
उनके आरोप किसी मासूम नेता पर नहीं, बल्कि सत्ता के सबसे प्रशिक्षित खेलाडियों पर हैं। जिनके समर्थक भली-भांति जानते हैं कि उनके नेता कौन-सा खेल खेलते हैं, कौन-सी चाल चलते हैं, और अपनी कुर्सी बचाने के लिए कैसी भी हेराफेरी कर सकते हैं। यह समर्थक जानते हैं कि यह लोग शराफत की किताब में नहीं मिलते — पर उनके लिए यही गंदी राजनीति “कुशलता” कहलाई जाती है। राहुल के पक्ष के लोगों को शायद कभी-कभार भ्रम हो जाए, लेकिन विरोधी पक्ष के लोग अपने नायकों के असली चेहरे को हमसे भी अधिक पहचानते हैं। उन्हें हर गड़बड़ी का पता है — और वे उसे ‘काबिलियत’ मानकर तालियाँ बजाते हैं। लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी त्रासदी है — जब जनता अपने नेता की बुराई को अच्छाई का चोगा पहना दे।
और जिस पत्रकारिता पर कभी लोकतंत्र का प्रहरी होने का गर्व था, वही आज ऐसी स्थिति में खड़ी है कि राहुल के खुलासों पर चर्चा करने के बजाय उसकी भाषा पर बहस कर रही थी। वोट चोरी का सबूत दिखाया गया, लेकिन सवाल यह पूछा गया कि “हिंदी क्यों नहीं बोली?” अरे भाषा बदलने से लोकतंत्र का सच बदल जाएगा क्या? जब CCTV फुटेज को नियम बदलकर चुनाव आयोग ने अनिवार्य की सूची से हटा दिया, जब लाखों संदिग्ध वोटरलिस्ट में जोड़े गए, जब दर्जनों ऐसे मामले मिले जहाँ एक ही व्यक्ति ने दो-दो राज्यों में वोट डाले — तब इस देश की मीडिया को यह खतरा नहीं दिखा? यह चुप्पी केवल कमजोरी नहीं, बल्कि अपराध है। यह वही भूमिका है जो इतिहास में उन पत्रकारों ने निभाई थी जो तानाशाहों की जय-जयकार में व्यस्त रहे और लोकतंत्र लड़खड़ाकर गिर पड़ा।
राहुल गांधी इसलिए कह रहे हैं कि लोकतंत्र वोट से नहीं — वोटरलिस्ट से शुरू होता है। अगर मतदाता सूची ही संदिग्ध हो गई, तो मतदान केवल एक रस्म बनकर रह जाएगा। वह जनता जिसे समझाया जाता है कि “आप देश के मालिक हैं” — वह मालिक तभी है जब उसका नाम वोटरलिस्ट में सुरक्षित दर्ज है। जो नाम बिना कारण कट जाए, वह मालिक से मजदूर और मजदूर से अदृश्य आदमी बन जाता है। और जो नाम ग़लत पहचान पर जोड़ दिए जाएँ — वे सत्ता के हथियार बन जाते हैं। तुर्की, रूस, हंगरी — दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र बंदूक से नहीं, वोटरलिस्ट से मारा गया। वहाँ भी जनता को यकीन नहीं था कि उनका अधिकार उनसे छीना जा सकता है — पर जब होश आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भारत में जिस रास्ते पर हम बढ़ रहे हैं, वह मज़ाक नहीं — इतिहास की चेतावनी है।
राहुल शायद अपनी राजनीति से कहीं ज्यादा लोकतंत्र की डॉक्टर की भूमिका निभा रहे हैं। वह रोज जनता को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह लड़ाई उनके लिए है — सत्ता के लिए नहीं, अधिकार के लिए। वह आज़ादी के बाद पहले नेता प्रतिपक्ष हैं जो जनता की ताक़त — वोट की ताक़त — को बचाने को अपनी जिम्मेदारी मानते हैं। दमन, धमकी, उपहास और मज़ाक के बीच भी वह अपनी आवाज़ नहीं दबा रहे। और यह बात हम जैसे नागरिकों को शर्म में झोंक देनी चाहिए कि जो हमारे लिए लड़ रहा है, हम उसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। जो हमारे लोकतंत्र के लिए खतरे का अलार्म बजा रहा है, हम उसे टोन बदलने की सलाह दे रहे हैं। असल सवाल यह है — क्या हम लोकतंत्र के ताबूत में आखिरी कील लगने का इंतज़ार कर रहे हैं?
फिर भी इस देश में उम्मीद की लौ बची है — क्योंकि नौजवान समझ रहे हैं कि असली लड़ाई क्या है। आज का युवा डेटा पढ़ता है, आंकड़े समझता है और सवाल पूछता है। वह रीलों और नशे में उलझने वाला नहीं, सच को पकड़कर आगे बढ़ने वाला है। राहुल की चेतावनी सीधे इस नए चेतन वर्ग तक पहुँच रही है। यह वही वर्ग है जो इतिहास का निर्णय बदलेगा — अगर उसके पास वोट की ताक़त बची रही तो। पर जिन लोगों ने अपने अनुभव को अड़ियल सोच का हिस्सा बना लिया है, जो कहते हैं — “सब चलता है”, “हम क्या कर लेंगे” — वे वास्तव में लोकतंत्र को खोने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें समझना होगा — वोट की ताक़त खत्म हुई तो इंसान की गरिमा भी खत्म। फिर आवाज़ नहीं, बस गुलामी का इतिहास बचेगा।
इसलिए राहुल की बात को हल्के में मत उड़ाइए। यह हंसी-मजाक का मुद्दा नहीं है। यह हर उस व्यक्ति का मुद्दा है जो चाहता है कि उसका भविष्य उसकी मुठ्ठी में रहे, किसी तानाशाह की मर्जी पर नहीं। राहुल पर बहस कीजिए, सवाल करिए, जवाब सुनिए — पर अनदेखी मत कीजिए। क्योंकि लोकतंत्र वहीं मरता है जहाँ जनता “ये सब ड्रामा है” कहकर चुप बैठ जाती है। आज बीमारी का पता चल चुका है। पूरी रिपोर्ट सामने है। बस इलाज जनता को तय करना है। और याद रखिए — यही जनता अगर ठान ले, तो कोई सत्ता उसकी राह नहीं रोक सकती। जनता अगर रास्ता चुन ले — तो वही रास्ता देश की किस्मत बन जाएगा।




