नई दिल्ली । 15 अगस्त 2025
जब कला ने चुप्पी को तोड़ा
भारतीय सिनेमा को अक्सर ‘संस्कारी’ कह कर सीमित किया गया है, लेकिन हकीकत ये है कि जब भी समाज ने किसी भावना को दबाने की कोशिश की है, कला ने उसे और ज़ोर से पुकारा है। Netflix की ‘Lust Stories 2’ आज भले ही ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर कामुकता, इच्छा और रिश्तों की नई परतें खोलती दिखती है, पर इससे बहुत पहले हमारे फिल्मकारों ने पर्दे पर ऐसा तूफान खड़ा कर दिया था, जिसने भारत की यौन-चेतना को झकझोर कर रख दिया था। ये वो फिल्में थीं जिन्होंने स्त्री-पुरुष संबंधों को सिर्फ रोमांस या सेक्स तक सीमित नहीं रखा, बल्कि समाज, सत्ता और पहचान के साथ टकरा कर उन्हें एक अस्तित्ववादी विमर्श बना दिया।
कामसूत्र: जब भारतीय कामशास्त्र को पश्चिम ने सराहा और भारत ने डर के मारे छिपाया
मीरा नायर की फिल्म “कामसूत्र: अ टेल ऑफ लव” (1996) जब रिलीज़ हुई तो भारत में उसे बैन कर दिया गया। कारण? फिल्म ने भारतीय संस्कृति की उस गहराई को छुआ जिसे आधुनिक समाज “अश्लील” मानने लगा है। मगर यही फिल्म विदेशों में कला का सम्मान प्राप्त करती है। फिल्म में वासना केवल देह का आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा की स्वतंत्रता और संवेदनशीलता का परिचायक बनकर उभरती है। जिस देश ने खुद ‘कामसूत्र’ जैसी कृति दी, वही देश मीरा नायर की फिल्म से आंखें चुराने लगा।
फायर: जब दो औरतों का प्रेम पूरे समाज को जला गया
दीपा मेहता की “फायर” (1996) ने भारतीय सिनेमा में बवंडर खड़ा कर दिया। दो विवाहित महिलाएं, जो अपने पतियों की उपेक्षा से त्रस्त हैं, एक-दूसरे में प्यार और सहारा ढूंढती हैं। ये फिल्म सीधे यौन स्वतंत्रता की बात नहीं करती, बल्कि भावनात्मक भूख और आत्म-सम्मान की गूंज है। पर समाज इसे झेल नहीं पाया। थियेटरों पर हमले हुए, पोस्टर जलाए गए, और इसे ‘लेस्बियन एजेंडा’ कहकर खारिज किया गया। लेकिन यही थी विद्रोह की शुरुआत—जहां स्त्रियों ने पहली बार खुलेआम अपने अधिकारों पर बात की।
अस्तित्व: जब एक पत्नी ने अपनी यौन इच्छा के लिए उठाई आवाज
महेश मांजरेकर की फिल्म “अस्तित्व” (2000) एक गृहिणी के अंतर्मन की जटिलता को उजागर करती है। पति के लंबे गैरमौजूदगी और उपेक्षा के बीच वह एक संगीत शिक्षक की ओर आकर्षित हो जाती है। जब सच सामने आता है, तो समाज, परिवार और यहां तक कि पति का गुस्सा केवल महिला पर टूटता है। फिल्म एक बेहद गहरा सवाल पूछती है—क्या यौन अधिकार केवल पुरुष का विशेषाधिकार है? क्या पत्नी को केवल सहन करना ही सिखाया गया है?
बी.ए. पास: जब सेक्स बना बेरोजगारी और गरीबी की मंडी
अजय बहल की फिल्म “बी.ए. पास” (2012) ने यौनता को प्रेम या साहसिकता नहीं, बल्कि मजबूरी और बाज़ार में बदला हुआ देखा। एक बेरोजगार युवक, जो अपनी बहनों और खुद के लिए जीविका का साधन ढूंढ रहा है, एक समृद्ध महिला द्वारा सेक्स वर्क में धकेल दिया जाता है। धीरे-धीरे उसका शरीर उसकी करेंसी बन जाता है। फिल्म यौन संबंध को एक आर्थिक लेनदेन और शोषण की नज़र से देखती है।
पार्च्ड: जब गांव की स्त्रियों ने तोड़ी चुप्पी और मांगा यौन सुख का हक
लीना यादव की फिल्म “पार्च्ड” (2015) में गुजरात की पृष्ठभूमि में चार महिलाओं की कहानी है जो अपनी इच्छा, अधिकार और यौन स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठाती हैं। फिल्म पितृसत्ता से पीड़ित महिलाओं की आत्मा में छिपे विद्रोह को सामने लाती है। यह फिल्म कहती है कि औरत सिर्फ सहन करने के लिए नहीं बनी है—उसे भी सुख चाहिए, निर्णय चाहिए, आज़ादी चाहिए।
साथ साथ (1982): जब प्यार और विचारधारा के बीच फंसी वासना की खामोशी
“साथ साथ” एक विचारधारात्मक प्रेम कहानी थी, जिसमें रोमांस के पीछे छिपी यौन जिज्ञासा को बेहद सौम्यता से छुआ गया। फ़ारूख शेख और दीप्ति नवल के किरदारों के बीच की नजदीकी, बौद्धिकता और मानसिक जुड़ाव दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या सेक्स केवल शारीरिक होता है या विचारधारा में भी इसका कोई रूप होता है?
इज्ज़त (1968): जाति, वासना और स्त्री का संघर्ष
धर्मेंद्र और तनुजा की फिल्म “इज्ज़त” ने दलित युवक और उच्च जाति की महिला के प्रेम के माध्यम से सामाजिक और यौन शोषण का चित्र खींचा। जब एक उच्च वर्ग की महिला एक दलित युवक के शरीर को भोगती है, पर उसे सामाजिक सम्मान नहीं देती, तब सवाल उठता है: क्या वासना भी जातिवादी होती है?
सारांश (1984): जब उम्र के साथ इच्छा की अस्वीकार्यता पर सवाल उठे
महेश भट्ट की फिल्म “सारांश” एक वृद्ध दंपती की कहानी है जो अपने पुत्र की मृत्यु के बाद जीवन में अर्थ ढूंढ रहे हैं। फिल्म में एक स्त्री किरदार की यौन इच्छा भी है, जो समाज को चुभती है। यह सिनेमा बताता है कि यौनता की कोई उम्र नहीं होती, और आत्मा की भूख शरीर से कहीं बड़ी होती है।
डर्टी पिक्चर (2011): जब एक औरत ने अपने शरीर को हथियार बनाया
“डर्टी पिक्चर” में विद्या बालन ने सिल्क स्मिता की कहानी को ऐसे जिया कि वासना शक्ति बन गई। सेक्स सीन यहां प्रदर्शन नहीं बल्कि प्रतिरोध बन जाते हैं। समाज जो महिला की देह को ‘ऑब्जेक्ट’ बनाता है, वही समाज जब उस ऑब्जेक्ट की चेतना देखता है तो हिल जाता है।
लिपस्टिक अंडर माय बुरका (2016): जब चुप्पी की तहों में फूटा यौन क्रांतिकारी विस्फोट
अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म चार महिलाओं की कहानी है जो अपने भीतर के ज्वालामुखी को आवाज़ देती हैं। यह फिल्म बताती है कि महिला की यौन इच्छा केवल फिल्मी कल्पना नहीं है—वह एक सामाजिक हकीकत है, जिसे स्वीकारने से हम डरते हैं। बैन भी हुई, बहस भी छिड़ी, लेकिन लहर बन गई।
Sins (2005): जब चर्च की चुप्पी में पादरी के भीतर पनपा कामुकता का भूकंप
यह फिल्म भारतीय सिनेमा में शायद सबसे विवादास्पद रही है। एक पादरी, जो धर्म की शरण में कामुकता को छुपाने की कोशिश करता है, अंततः खुद ही उसकी गिरफ्त में आ जाता है। ये फिल्म एक झटका है उन धार्मिक संस्थाओं को, जो शरीर और आत्मा की सीमा तय करना चाहते हैं।
सत्यम शिवम सुंदरम (1978): जब सौंदर्य की परिभाषा और वासना की हदें टूटीं
राज कपूर की यह फिल्म उस वक्त की सबसे बोल्ड फिल्मों में से एक थी। ज़ीनत अमान के किरदार में एक तरफ़ बाहरी कुरूपता थी, तो दूसरी तरफ़ आतंरिक सुंदरता और कामुकता। फिल्म ने साबित किया कि शारीरिक सौंदर्य से परे भी वासना और प्रेम की अभिव्यक्ति हो सकती है।
आश्रम (2020–2023): जब धर्म और वासना की गठजोड़ को पर्दाफाश किया गया
OTT पर प्रसारित प्रकाश झा की सीरीज़ “आश्रम” ने एक नकली बाबा की कहानी के जरिए दिखाया कि किस तरह धर्म की आड़ में यौन शोषण, पाखंड और सत्ता का खेल खेला जाता है। यह शो आधुनिक भारत में धर्म और सेक्स के टकराव का जीवंत उदाहरण है। “बाबा निराला” जैसे किरदारों ने दिखाया कि कैसे समाज यौनिकता की विकृति को आस्था की चादर में छुपा देता है।
Lust Stories 2: आधुनिक भारत की जटिल इच्छाओं का नया आईना
नेटफ्लिक्स की एंथोलॉजी फिल्म Lust Stories 2 आधुनिक भारत के रिश्तों, यौन इच्छाओं और सामाजिक ढांचे की परतों को बेहद संवेदनशील, साहसी और यथार्थपरक अंदाज़ में खोलती है। इसमें चार अलग-अलग कहानियों के ज़रिए यह दिखाया गया है कि कैसे शादी, उम्र, वर्ग और परंपरा के नाम पर दबी-कुचली इच्छाएं आज भी जीवित हैं — और मौका मिलते ही अपने लिए रास्ता बना लेती हैं। रानी मुखर्जी, काजोल, मृणाल ठाकुर जैसे कलाकारों की मौजूदगी ने इसे न सिर्फ स्टार पावर दी, बल्कि भावनात्मक गहराई भी। कहानियाँ सेक्स को महज़ शारीरिक क्रिया के रूप में नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान, बदले, आत्म-खोज और मनोवैज्ञानिक मुक्ति के रूप में प्रस्तुत करती हैं। Lust Stories 2 ने यह साबित कर दिया कि आज का भारतीय सिनेमा अब वासना की कहानी को शर्म से नहीं, सवाल और स्वीकृति के साथ दिखाता है।
सेक्स को ना देखें आंखों से, समझें आत्मा से
भारतीय सिनेमा ने वासना और प्रेम को बार-बार परदे पर उतारा है। लेकिन हर बार यह एक नई क्रांति थी—कभी स्त्री के लिए, कभी दलित के लिए, कभी समलैंगिकों के लिए और कभी गरीबों के लिए। Lust Stories से पहले ही यह आंदोलन शुरू हो चुका था। फर्क बस इतना था कि उस वक़्त यह सिनेमा गुस्से से बनाया जाता था, आज वह ‘कंटेंट’ बन गया है। पर अगर आपको सच में समझना है कि कामुकता क्या है—तो आपको उन फिल्मों की ओर लौटना होगा, जो Lust Stories से पहले आई थीं… और ज़माने से लड़ गई थीं।