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धर्म नहीं अधर्म : जब आस्था बन जाए दिखावा और भक्ति बन जाए हथियार

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नई दिल्ली 

15 अगस्त 2025

जब धर्म आचरण नहीं, प्रदर्शन बन जाए

धर्म का मूल स्वभाव है—सत्य, करुणा, क्षमा और सेवा। लेकिन जब धर्म केवल रीतियों और रस्मों में सिमट जाए, जब वह आचरण की जगह केवल मंच का प्रदर्शन बन जाए, तो उसकी आत्मा खो जाती है। आज मंदिरों की गूंज में घनघोर घंटियाँ सुनाई देती हैं, लेकिन उनमें भीतर से आत्मा की मौन पुकार गायब है। लोग व्रत रखते हैं, पर मन में द्वेष रखते हैं। श्लोकों का पाठ होता है, लेकिन व्यवहार में अमानवता होती है। यही पाखंड है—जहां धर्म केवल बाहरी चोले तक सिमट कर रह जाए, भीतर की नैतिक चेतना बिना जागृत हुए। धर्म, अगर भीतर न हो, तो केवल दिखावा है, अभिनय है, अधर्म है।

धर्म के नाम पर हिंसा – ईश्वर की सबसे बड़ी अवज्ञा

हर धर्म का मूल संदेश प्रेम है। लेकिन आज जिस भाषा में ईश्वर का नाम लिया जाता है, उसी में नफ़रत भी घोली जा रही है। यह कैसी भक्ति है जो तलवारों के साए में पल रही है? इतिहास से लेकर वर्तमान तक, हमने देखा है कि धर्म के नाम पर कितने नरसंहार हुए हैं। लेकिन इनमें न तो ईश्वर खुश होते हैं, न आत्मा शांति पाती है। यदि कोई धर्म आपको दूसरों के विरुद्ध उकसाता है, रक्त बहाने की प्रेरणा देता है, तो वह धर्म नहीं, शुद्ध अधर्म है। धर्म वह है जो शांति लाए, सौहार्द बढ़ाए, और हिंसा को त्यागे। नफरत का कोई धर्म नहीं होता।

जब धर्म राजनीति का औजार बन जाए

राजनीति और धर्म के रिश्ते जब गहराते हैं, तो धर्म की आत्मा दम तोड़ देती है। धर्म, जो आत्मा की मुक्ति का मार्ग था, आज सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने की सीढ़ी बना दिया गया है। चुनावी मंचों पर जब धर्म को ‘वोट बैंक’ की भाषा में बोला जाता है, जब धर्म के नाम पर वोट माँगे जाते हैं और नफरत की रेखाएं खींची जाती हैं, तो समझ लीजिए कि धर्म राजनीति का शिकार हो गया है। यह राजनीतिकरण जब चरम पर होता है, तो समाज दो हिस्सों में टूटता है—‘हम’ और ‘वे’। ऐसे में धर्म नहीं, अधर्म शासन करने लगता है।

धर्म के नाम पर समाज को बांटना—मानवता का अपमान

जब हम धर्म के नाम पर किसी को ‘अछूत’ कहते हैं, किसी को ‘काफ़िर’ कहते हैं, किसी को ‘गैर’ मानते हैं, तो हम धर्म की आत्मा का नहीं, अपनी कुंठाओं का पालन कर रहे होते हैं। धर्म समाज को जोड़ने आया था, अलग करने नहीं। अगर कोई धर्म कहता है कि फलाँ जाति छोटी है, फलाँ खाना हराम है, फलाँ रीति अपवित्र है—तो यह धर्म नहीं, सामाजिक अन्याय है। जब धर्म के नाम पर दीवारें खड़ी होती हैं, तो पुल नहीं बनते। मानवता की जड़ें कटती हैं, आत्मा से आत्मा का रिश्ता टूटता है। धर्म वह है जो सबको एक दृष्टि से देखे, भेद से नहीं।

धर्म वह है जो भीतर उजाला करे, न कि बाहर आग लगाए

धर्म का काम है भीतर की अंधकार को मिटाना। अगर आपका धर्म आपको धैर्य नहीं सिखाता, करुणा नहीं भरता, सेवा के लिए प्रेरित नहीं करता—तो वह केवल एक सामाजिक लिबास है, आत्मिक नहीं। अगर मंदिरों की दीवारें बुलंद हैं, लेकिन उसके द्वार ग़रीबों के लिए बंद हैं—तो वह मंदिर नहीं, अभिमान की इमारत है। धर्म वह है जो आपको भीतर से बेहतर बनाए, न कि बाहर से बड़ा दिखाए। धर्म वह है जो किसी भूखे को भोजन कराए, किसी रोते को सहारा दे, और किसी भटके को रास्ता दिखाए। ऐसा धर्म दीपक है, बाकी सब धुएं की तरह खो जाता है।

धर्म का असली चेहरा: सत्य, सेवा और समरसता

सत्य, सेवा और समरसता—इन्हीं तीन शब्दों में धर्म की असली पहचान छिपी है। धर्म केवल उपासना का नहीं, व्यवहार का विषय है। एक व्यक्ति चाहे जितनी बार प्रार्थना करे, लेकिन अगर वह अपने पड़ोसी से ईर्ष्या करता है, झूठ बोलता है, शोषण करता है—तो वह अधर्मी है। सच्चा धर्म वही है जो इंसान को सच्चा बनाता है, न्यायप्रिय बनाता है और दूसरों के दुख में सहभागी बनाता है। धर्म वह नहीं जो केवल पूजा में दिखे, धर्म वह है जो चाल-चरित्र में झलके।

धर्म की रक्षा नारे से नहीं, जीवनशैली से होती है

आज धर्म खतरे में है, लेकिन बाहर से नहीं—भीतर से। खतरा पंथों या मजहबों से नहीं, बल्कि उन लोगों से है जो धर्म को निजी स्वार्थ, सत्ता और नफ़रत का औजार बना चुके हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्च—ये तभी पवित्र होंगे जब वहाँ से मानवता की सुगंध फैलेगी, जब वहाँ प्रेम और सेवा का संवाद चलेगा। धर्म को बचाने का सबसे बड़ा उपाय है—उसे जिया जाए, अपनाया जाए, और उसके मूल सिद्धांतों को व्यवहार में लाया जाए। धर्म की रक्षा उसके नारे लगाने से नहीं, बल्कि उस पर चलने से होती है।

धर्म को हथियार मत बनाइए, उसे आत्मा की आवाज़ बनाइए 

धर्म वो नहीं जो लोगों को डरा दे, बल्कि धर्म वो है जो अंधकार में दीपक जला दे। धर्म अगर खून बहाए, तो वह ईश्वर से दूर करता है। धर्म अगर हाथ पकड़कर गिरे को उठाए, तो वही ईश्वर का सबसे सुंदर रूप है। अधर्म को धर्म कहने की गलती न करें। धर्म को धर्म की तरह समझें, जिएं और साझा करें। क्योंकि धर्म बांटता नहीं, जोड़ता है। धर्म जलाता नहीं, प्रकाश देता है। और सच्चा धर्म कभी भी इंसानियत से अलग नहीं होता। धर्म वही, जो मानवता से जुड़ा हो। बाकी सब अधर्म है।

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