भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी था। इसी दौर में 1870 के दशक में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘आनन्द मठ’ उपन्यास के लिए संस्कृत-बांग्ला मिश्रित कविता ‘वन्दे मातरम्’ लिखी। यह कविता मातृभूमि को देवी के रूप में चित्रित करती है — सुजलाम, सुफलाम, मलयज-शीतलाम… और माँ दुर्गा, माँ सरस्वती, माँ लक्ष्मी जैसी प्रतीकात्मक उपमाओं से भारत को पुकारती है।
इतिहास की जुबानी
1905 में बंग-भंग आंदोलन के समय ‘वन्दे मातरम्’ एक राष्ट्रवादी नारा बन गया। इसकी गूंज सभाओं, रैलियों और क्रांतिकारी आंदोलनों में सुनाई देती थी। लेकिन 1930 के दशक में मुस्लिम लीग और कुछ मुस्लिम विद्वानों ने इसके धार्मिक स्वरूप पर आपत्ति जताई, विशेषकर उन श्लोकों पर जिनमें भारत माता को ‘दुर्गा’ और ‘सरस्वती’ के रूप में संबोधित किया गया है। इस्लाम में ईश्वर की मूर्तिपूजा की मनाही है, और इसे मातृभूमि की देवी-रूप आराधना के रूप में देखा गया।
गांधी – नेहरू दृष्टिकोण
महात्मा गांधी ने कहा था — “‘वन्दे मातरम्’ हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का आत्मा है, लेकिन हमें अपने सभी भाइयों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।”
पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1937 में यह निर्णय लिया कि केवल पहले दो श्लोक (जिनमें धार्मिक देवी-देवता का सीधा उल्लेख नहीं है) को आधिकारिक तौर पर गाया जाएगा। यह समझौता एकता बनाए रखने के लिए था।
मौजूदा हालात
आज ‘वन्दे मातरम्’ संविधान के अनुच्छेद 51A के तहत नागरिक कर्तव्यों में शामिल है और राष्ट्रीय गीत का दर्जा रखता है। सरकारी कार्यक्रमों में पहले दो श्लोक ही गाए जाते हैं। हालांकि, समाज में समय-समय पर बहस उठती है कि क्या इसे सभी नागरिकों द्वारा गाना अनिवार्य होना चाहिए।
संतुलन और संवेदनशीलता
‘वन्दे मातरम्’ हमारे स्वतंत्रता संघर्ष का प्रतीक है और राष्ट्रीय एकता का गीत है, लेकिन भारत की विविधता में संवेदनशीलता उतनी ही ज़रूरी है जितनी देशभक्ति। किसी भी प्रतीक को मजबूरी या दंड के साथ नहीं, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव और स्वेच्छा से अपनाया जाना चाहिए। राष्ट्रभक्ति का माप किसी गीत या नारे से नहीं, बल्कि नागरिक कर्तव्यों, एक-दूसरे के सम्मान और देशहित में किए गए काम से होता है।
भारत की ताकत उसकी विविधता में है। ‘वन्दे मातरम्’ को लेकर मतभेद ऐतिहासिक और धार्मिक संदर्भों से जुड़े हैं, लेकिन संवाद और समझदारी से इसे एक साझा धरोहर के रूप में अपनाया जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज़ादी के आंदोलन में यह गीत हिंदू-मुसलमान, सिख, ईसाई—सभी के होठों पर था।