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भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली: विस्तार में समझ, चुनौतियाँ और भविष्य की दिशा

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लेखक :  डॉक्टर लक्ष्य कुमार, डॉक्टर शालीनीता चौधरी, डॉक्टर निपुणिका शाहिद

भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्थाओं में से एक है। लगभग 1,000 विश्वविद्यालयों, 50,000 से अधिक कॉलेजों, और करोड़ों विद्यार्थियों के साथ यह व्यवस्था अपने आप में एक विशाल सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक ढांचा है। यह व्यवस्था न केवल ज्ञान के संप्रेषण और मानव संसाधन के निर्माण में अहम भूमिका निभा रही है, बल्कि सामाजिक गतिशीलता और राष्ट्रीय विकास के इंजन के रूप में भी कार्य करती है। किंतु इसका स्वरूप बहुआयामी और कई चुनौतियों से ग्रसित भी है। 1947 के बाद से लेकर आज तक भारत की उच्च शिक्षा ने कई दौर देखे हैं—कभी लाल फीताशाही के शिकंजे में जकड़ी, कभी शोधविहीन पाठ्यक्रमों की बोझिलता में फंसी, और अब वर्तमान में डिजिटल, बहु-विषयक और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनने की ओर अग्रसर हो रही है।

भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली को कई निकाय नियंत्रित करते हैं—जैसे कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC), AICTE (तकनीकी शिक्षा के लिए), और हाल ही में प्रस्तावित HECI (Higher Education Commission of India)। इन निकायों के माध्यम से पाठ्यक्रम, वित्तीय सहायता, मान्यता, और अकादमिक संरचना को निर्धारित किया जाता है। संस्थागत दृष्टि से देखें तो भारत में उच्च शिक्षा का ढांचा अत्यंत विविध है—केंद्रीय विश्वविद्यालय, राज्य विश्वविद्यालय, डीम्ड यूनिवर्सिटी, निजी संस्थान, IITs, IIMs, AIIMS, और अब नवगठित राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान। इन सभी का उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना और देश के युवाओं को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाना है। फिर भी, बहुत से सरकारी कॉलेजों में बुनियादी ढांचे की कमी, फैकल्टी की कमी, और रोजगारोन्मुखी कौशल की कमी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है।

2020 में भारत सरकार द्वारा लागू की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिए एक मील का पत्थर सिद्ध हुई है। यह नीति उच्च शिक्षा को केवल डिग्री प्राप्त करने का माध्यम नहीं, बल्कि नवाचार, शोध, और कौशल-निर्माण का प्लेटफॉर्म बनाने की दिशा में प्रयासरत है। बहु-विषयक शिक्षा, Academic Bank of Credits, शोध को बढ़ावा देने वाली National Research Foundation, और डिजिटल लर्निंग प्लेटफ़ॉर्म जैसे SWAYAM एवं DIKSHA को शामिल करना इस नीति की कुछ क्रांतिकारी विशेषताएं हैं। अब विद्यार्थियों को एक ही कोर्स के भीतर कई एग्जिट विकल्प मिल सकते हैं—एक वर्ष बाद सर्टिफिकेट, दो वर्ष बाद डिप्लोमा, और तीन या चार वर्ष बाद डिग्री। इससे न केवल शिक्षा लचीली बनेगी बल्कि इसे व्यापक स्तर पर व्यावसायिक उपयोग में लाना भी संभव होगा।

हालांकि, भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली के सामने अभी भी कई चुनौतियाँ खड़ी हैं। सबसे बड़ी चुनौती गुणवत्ता की असमानता है। निजी विश्वविद्यालयों और सरकारी संस्थानों के बीच संसाधनों, फैकल्टी और एक्सपोजर में बहुत बड़ा अंतर है। कुछ IITs, IIMs या टॉप निजी विश्वविद्यालयों को छोड़कर अधिकांश संस्थानों में ना शोध के लिए पर्याप्त अनुदान है, ना ही विद्यार्थियों के लिए प्रयोगशालाएं, और ना ही पढ़ाने वालों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम। बेरोजगारी की बात करें तो आंकड़े बताते हैं कि महज़ 25% इंजीनियरिंग ग्रैजुएट और लगभग 15% सामान्य डिग्रीधारी ही रोजगार के लिए योग्य माने जाते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे पाठ्यक्रम अब भी थ्योरी से भरे हुए हैं और उनमें उद्योग की मांगों के अनुरूप व्यावहारिक कौशल की घोर कमी है।

एक और चिंता का विषय शोध की गिरती स्थिति है। भारत के विश्वविद्यालयों में उच्चस्तरीय अनुसंधान के अवसर सीमित हैं। शोध के लिए जो धनराशि आवंटित होती है, वह भी कुछ चुने हुए संस्थानों तक ही सीमित रह जाती है। जबकि विकसित देशों में विश्वविद्यालयों के शोध कार्य ही औद्योगिक नवाचार और तकनीकी विकास का आधार बनते हैं, भारत में शोध अभी भी बौद्धिक जड़ता और अफसरशाही से घिरा हुआ है। NEP ने शोध की स्थिति सुधारने के लिए National Research Foundation की स्थापना का सुझाव दिया है, परंतु उसका जमीनी क्रियान्वयन अभी धीमा और परीक्षण के दौर में है।

इस संदर्भ में RUSA (राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान) और NIRF (राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क) जैसी योजनाएँ कुछ हद तक सुधार लाने का प्रयास कर रही हैं। RUSA राज्यों के विश्वविद्यालयों को वित्तीय एवं बुनियादी समर्थन देने वाली योजना है, जिससे कॉलेजों की अधोसंरचना में परिवर्तन लाया जा रहा है। वहीं NIRF ने संस्थानों की गुणवत्ता का एक मानक तय किया है, जिससे छात्र और अभिभावक अब रैंकिंग के आधार पर संस्थानों का चयन कर सकते हैं। लेकिन, ये पहल तब तक सीमित असर ही छोड़ेंगी जब तक कि शिक्षा क्षेत्र में समग्र नीतिगत और वित्तीय प्रतिबद्धता नहीं दिखाई जाएगी।

फिर भी, आशा की किरणें मौजूद हैं। भारत के कई विश्वविद्यालय अब अंतरराष्ट्रीय साझेदारी, डिजिटल लर्निंग, और इंडस्ट्री-एकेडेमिया इंटरफेस की ओर बढ़ रहे हैं। स्टार्टअप संस्कृति को बढ़ावा देना, इनक्यूबेशन सेंटर का निर्माण, और प्रायोगिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना आज की जरूरत है और कुछ संस्थान इस दिशा में तेजी से कार्य कर रहे हैं। “Study in India” जैसी योजनाएँ भी विदेशी छात्रों को भारत की ओर आकर्षित कर रही हैं, जिससे भारत एक वैश्विक शिक्षा केंद्र बनने की ओर कदम बढ़ा रहा है।

अंततः यह कहा जा सकता है कि भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली एक संक्रमणकाल से गुजर रही है। यह पारंपरिक और डिजिटल, सैद्धांतिक और व्यावसायिक, राष्ट्रीय और वैश्विक के बीच संतुलन खोजने की प्रक्रिया में है। जब तक सरकार, शिक्षा संस्थान, शिक्षक और विद्यार्थी एक साझा विजन के तहत कार्य नहीं करते, तब तक केवल नीतियों से बदलाव संभव नहीं। उच्च शिक्षा का असली उद्देश्य केवल रोजगार देना नहीं, बल्कि ऐसे नागरिक तैयार करना है जो सोचने, सृजन करने और नेतृत्व देने में सक्षम हों। अगर NEP 2020 की भावनाओं को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए, तो भारत निश्चित ही एक “शिक्षा महाशक्ति” बनने की राह पर अग्रसर हो सकता है।

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