निपुणिका शाहिद, असिस्टेंट प्रोफेसर, मीडिया स्ट्डीज, स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, क्राइस्ट यूनिवर्सिटी
नई दिल्ली, 15 अगस्त
विज्ञापन हों या सिनेमा, न्यूज़ चैनल हों या इंस्टाग्राम—आज की दुनिया में महिलाएं हर मंच पर दिखाई देती हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह दृश्यता उन्हें सशक्त बना रही है या सिर्फ “उपयोग की वस्तु” के रूप में पेश कर रही है? सोशल मीडिया पर महिला ‘इन्फ्लुएंसर’ लाखों फॉलोअर्स बनाकर एक नया आयाम रच रही हैं, वहीं ट्रोलिंग, डीपफेक वीडियो, साइबर स्टॉकिंग और ‘लुक शेमिंग’ का शिकार भी बन रही हैं। यह लेख इसी द्वंद्व को समझने का प्रयास है—क्या मीडिया और डिजिटल स्पेस महिलाओं के लिए वरदान है या दोधारी तलवार?
मीडिया में महिला: ‘विजिबल’ तो हैं, पर कैसे?
टीवी सीरियल्स, फिल्मों और विज्ञापनों में महिलाओं की उपस्थिति पहले से कहीं अधिक है, परंतु वह अभी भी पारंपरिक साँचे में बंधी हुई दिखती हैं—या तो “त्यागमयी मां” या “आकर्षक नायिका”। न्यूज़ चैनलों पर महिला एंकर्स तो हैं, पर अक्सर उन्हें ग्लैमर या हाइपर-फेमिनिनिटी के पैमाने पर आंका जाता है। गंभीर न्यूज़रूम्स में भी संपादकीय निर्णय लेने वाली महिलाएं अभी अल्पसंख्यक हैं। OTT पर भले ही महिला केंद्रित कहानियाँ दिख रही हों, पर कई बार उन्हें भी “बोल्डनेस” और “अश्लीलता” की सीमा में प्रस्तुत किया जाता है—जो महिला को “विवाद” की वस्तु बना देती है, “विचार” की नहीं।
सोशल मीडिया: सशक्त आवाज़ या ट्रोल का टारगेट?
सोशल मीडिया महिलाओं के लिए दोनों तरह का स्पेस बना है—अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मंच भी और उत्पीड़न का अड्डा भी। जहां एक ओर महिला पत्रकार, कार्यकर्ता, छात्राएँ, और कलाकार अपनी राय बेझिझक रख रही हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें ट्रोल आर्मी, यौन हिंसक टिप्पणियों और ऑनलाइन धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। Ramya, Swara Bhaskar, Zubeda Khan, Ravina Rawal जैसी महिलाओं को सिर्फ विचार रखने पर ऑनलाइन रेप और हत्या की धमकियाँ मिल चुकी हैं। National Commission for Women की रिपोर्ट बताती है कि हर हफ्ते 300 से ज्यादा साइबर उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज होती हैं, जिनमें अधिकतर पीड़ित महिलाएं होती हैं।
इन्फ्लुएंसर्स: स्वतंत्रता या ‘ब्रांड-ओब्जेक्टिफिकेशन’?
आज इंस्टाग्राम, यूट्यूब और टिकटॉक पर लाखों महिला इन्फ्लुएंसर्स हैं जो फैशन, मेकअप, फिटनेस, कुकिंग, फाइनेंस, ट्रैवल जैसे क्षेत्रों में सक्रिय हैं। कई मामलों में यह आज़ादी और आत्मनिर्भरता की मिसाल है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि एल्गोरिदम उन महिलाओं को ही प्राथमिकता देता है जो ग्लैमर के परिप्रेक्ष्य में ‘बेहतर बिकती हैं’। इससे डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी महिलाओं की वैल्यू “लुक्स और ट्रेंडिंग कंटेंट” पर निर्भर हो जाती है, न कि ज्ञान या विचार पर। इससे अंततः एक नई तरह की डिजिटल बॉडी पॉलिटिक्स जन्म लेती है, जो महिलाओं को फिर से “फिट करने” की कोशिश करती है।
डीपफेक, मॉर्फिंग और ऑनलाइन उत्पीड़न
AI और टेक्नोलॉजी के विकास ने महिलाओं के खिलाफ अपराध का एक नया, अदृश्य चेहरा गढ़ा है—डीपफेक। 2024 में जारी NCW रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर महीने 100 से अधिक महिलाएं डीपफेक और मॉर्फिंग से पीड़ित हो रही हैं। इससे उनके करियर, सामाजिक सम्मान और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है। बड़ी विडंबना यह है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर शिकायत दर्ज कराने की प्रक्रिया जटिल और धीमी है, और कानून अभी भी इस तेजी से बढ़ते खतरे के पीछे चल रहे हैं।
आवश्यकता: मीडिया को बनाना होगा सहायक, पर्यवेक्षक नहीं
समस्या की जड़ यह है कि मीडिया आज भी महिलाओं को ‘बताने’ का काम करता है, ‘सुनने’ का नहीं। उन्हें सुंदरता, चाल, पहनावे, आवाज़ और व्यवहार के मापदंडों पर ही आंका जाता है। जरूरी है कि हम मीडिया और सोशल मीडिया को महिलाओं की विचारशीलता, बहस और नेतृत्व की जगह बनाएं—ना कि केवल उनके शरीर, जीवनशैली और निजी फैसलों की सार्वजनिक समीक्षा का मंच। डिजिटल लिटरेसी, साइबर सुरक्षा कानूनों में सुधार, महिला नेतृत्व वाले डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और ट्रोलिंग पर कठोर दंड—यह कुछ ऐसे कदम हैं जो जरूरी बन चुके हैं।
आज का युग महिला के लिए डिजिटल आज़ादी का युग हो सकता है—अगर समाज, राज्य और प्लेटफॉर्म्स उसे सुरक्षित और समान जगह देने के लिए ईमानदारी से काम करें। सिर्फ हैशटैग्स से बदलाव नहीं होगा, #SheTheVoice और #OnlineIsOfflineToo जैसे अभियानों को धरातल पर उतारना होगा। महिलाएं सिर्फ नायक नहीं, नैरेटर भी बनें—यही भविष्य है।