1950s: करुणा, नैतिकता और परंपरा की आभा
1950 का दशक स्वतंत्र भारत की सांस्कृतिक आत्मा को परदे पर गूंजने का युग था। इस दौर की नायिकाओं में नरगिस अग्रणी थीं। ‘मदर इंडिया’ में उन्होंने भारतीय स्त्री के आदर्श, संघर्ष और त्याग को जिस जीवटता से निभाया, वह इतिहास बन गया। नरगिस की आंखों में भारतीय स्त्री की पीड़ा और शौर्य दोनों झलकते थे।
मीना कुमारी को ‘ट्रेजडी क्वीन’ कहा गया। ‘साहिब बीबी और गुलाम’, ‘पाकीज़ा’ जैसी फिल्मों में उनका दर्द, मोहब्बत और आत्मबल मानो कविता बनकर परदे पर उतरता था।
मधुबाला ने रूप, हास्य और गंभीरता का जो संतुलन ‘मुगल-ए-आज़म’, ‘चलती का नाम गाड़ी’, ‘हावड़ा ब्रिज’ जैसी फिल्मों में दिखाया, वह उन्हें कालजयी बना देता है।
नूतन का अभिनय ‘सुजाता’, ‘बंदिनी’, ‘सीमा’ जैसी फिल्मों में सामाजिक बंधनों और आत्मबल की मिसाल था। वह अभिनय में गहराई की प्रतीक थीं।
इस दशक की और भी अहम अभिनेत्रियाँ थीं: वैजयंतीमाला, जिनकी नृत्य क्षमता और अभिनय का संगम ‘नई दिल्ली’, ‘संगम’ में दिखा, और गीता बाली, जिनकी सरलता दर्शकों के दिलों में उतरती थी।
1960s: रंगीन रोमांस और स्त्री छवि का नव्य उत्कर्ष
यह दशक मधुर संगीत, खूबसूरत लोकेशनों और चमकदार साड़ियों का युग था। यहाँ नायिकाओं ने सौंदर्य, स्वप्न और संवेदना को नया आकार दिया।
वहीदा रहमान ने ‘गाइड’, ‘प्यासा’, ‘खामोशी’ जैसी फिल्मों में स्त्री के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को बखूबी दर्शाया। वह अपनी आंखों से संवाद करने वाली नायिका थीं।
सायरा बानो, अपने चुलबुले अंदाज़ और कशिश भरे अभिनय से ‘जंगली’, ‘शगिर्द’ जैसी फिल्मों में चमकती रहीं।
मुमताज़, जिन्होंने छोटे रोल से शुरुआत की और ‘अपना देश’, ‘रोटी’ जैसी फिल्मों में आत्मविश्वास से नायकत्व साझा किया।
साधना, अपनी “साधना कट” हेयरस्टाइल के लिए मशहूर, ‘वो कौन थी’, ‘मेरा साया’ जैसी रहस्य-रोमांचक फिल्मों की रानी थीं।
नंदा, तनुजा, शर्मिला टैगोर और माला सिन्हा जैसी नायिकाओं ने इस दशक को सौंदर्य, अभिनय और विविधता से समृद्ध किया। शर्मिला टैगोर ‘अराधना’, ‘सफर’, ‘अमर प्रेम’ में लव-स्टोरी की गहराई को छूती रहीं।
1970s: विद्रोह, विविधता और महिला स्वर की तेज़ी
1970 का दशक एक ओर व्यावसायिक सिनेमा का विस्फोट था, तो दूसरी ओर समानांतर सिनेमा की शुरुआत भी हुई।
हेमा मालिनी, जिन्हें ‘ड्रीमगर्ल’ कहा गया, ‘सीता और गीता’, ‘शोले’, ‘मेरे जीवन साथी’ में हास्य, एक्शन और रोमांस का अद्भुत मेल दिखाती थीं।
रेखा, जिन्होंने इस दशक में ‘गर्म हवा’, ‘घर’ जैसी फिल्मों से गहराई की ओर कदम रखा, बाद में अपने रूप, अदायगी और मूक संवादों से नायिकाओं की नई परिभाषा बन गईं।
जया भादुरी — ‘गुड्डी’, ‘कोरा कागज़’, ‘अभिमान’ जैसी फिल्मों में वह मध्यमवर्गीय स्त्री की आवाज़ थीं, जिनके चेहरे पर सहजता, मासूमियत और विद्रोह — तीनों समाए होते थे।
ज़ीनत अमान ने ‘हरे रामा हरे कृष्णा’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में ग्लैमर को स्त्री चेतना के साथ मिलाया। उन्होंने भारतीय सिनेमा में वेस्टर्न सेंसिबिलिटी की पहचान दी।
परवीन बाबी, सरिका, रेणुका, विद्या सिन्हा — इन सभी ने इस दशक को महिलाओं की विविधता से भरपूर बना दिया।
1980s–2000s | ग्लैमर, यथार्थ और आत्मविश्वास की उड़ान
1980s: परंपरा से विद्रोह तक की स्त्रियाँ
1980 का दशक अभिनय और ग्लैमर की जुगलबंदी का युग था, जहाँ परंपरा को निभाते हुए स्त्रियाँ आधुनिक चेतना और सामाजिक मुद्दों की प्रतिनिधि बनती रहीं।
श्रीदेवी — इस दशक की सबसे शक्तिशाली अभिनेत्री बनकर उभरीं। ‘हिम्मतवाला’, ‘नगीना’, ‘मिस्टर इंडिया’, ‘चालबाज़’, ‘सदमा’ जैसी फिल्मों में उन्होंने कॉमिक टाइमिंग, इमोशनल गहराई और डांस की त्रिवेणी से खुद को ‘लेडी सुपरस्टार’ बना दिया। ‘सदमा’ में उनकी मासूमियत और दर्द ने दर्शकों को रुला दिया, जबकि ‘मिस्टर इंडिया’ में उनका चुलबुलापन भी उतना ही यादगार था।
जया प्रदा — नृत्य, सौंदर्य और स्त्री गरिमा की प्रतीक, वे दक्षिण और हिंदी सिनेमा में समान रूप से चमकीं। ‘शराबी’, ‘तोहफा’, ‘कामचोर’, ‘संजोग’ जैसी फिल्मों में उन्होंने क्लासिक भारतीय स्त्री की भावुकता को आधुनिक चमक के साथ प्रस्तुत किया।
डिंपल कपाड़िया, ‘बॉबी’ से लेकर ‘सागर’, ‘कर्मा’, ‘राम लखन’, और ‘ड्रामा क्वीन’ तक अपने अभिनय में गहराई लाईं। उन्होंने राम लखन में सशक्त स्त्री की छवि दी, जबकि बाद के वर्षों में रुदाली जैसी फिल्मों में गंभीरता से अभिनय की एक नई लकीर खींची।
रेखा का यह दशक स्वर्णिम रहा — उमराव जान ने उन्हें अद्भुत शायरा और दर्द की मल्लिका बना दिया। खूबसूरत, इज्जत, सिलसिला जैसी फिल्मों में उन्होंने अभिनय को संवेदनशीलता, गहराई और आंतरिक सौंदर्य से भरा।
मीनाक्षी शेषाद्रि, पूनम ढिल्लों, रति अग्निहोत्री, मधु मालती जैसी अभिनेत्रियों ने मनोरंजन और सामाजिक कथाओं में सशक्त उपस्थिति दर्ज की।
1990s: ग्लोबल लुक, फैमिली ड्रामा और मोहब्बत का जादू
1990 के दशक में भारत का सिनेमा आर्थिक उदारीकरण और टीवी संस्कृति के प्रभाव में आया। यह वह दौर था जब नायिकाओं ने ग्लैमर और पारिवारिक मूल्यों का संतुलन साधा।
माधुरी दीक्षित — इस दशक की निर्विवाद नायिका थीं। उनकी मुस्कान, डांस और अभिनय का मेल ‘दिल’, ‘हम आपके हैं कौन’, ‘बेटा’, ‘राजा’, ‘दिल तो पागल है’, ‘साजन’, ‘देवदास’ जैसी फिल्मों को कालजयी बना गया। धक धक गर्ल के नाम से प्रसिद्ध, माधुरी ने भारतीय स्त्री की कोमलता और दृढ़ता दोनों को परदे पर उतारा।
जूही चावला — ‘यस बॉस’, ‘राजू बन गया जेंटलमैन’, ‘हम हैं राही प्यार के’, ‘दर’ जैसी फिल्मों में उन्होंने चुलबुली, संवेदनशील और व्यावहारिक नायिका का चेहरा दिया। उनकी मुस्कराहट पूरे दशक का हिस्सा बनी।
मनीषा कोइराला — ‘1942: ए लव स्टोरी’, ‘बॉम्बे’, ‘खामोशी’, ‘गुप्त’, ‘अग्नि साक्षी’ जैसी फिल्मों में उनकी सादगी और गहराई नज़र आई। वे समानांतर सिनेमा और मेनस्ट्रीम दोनों में स्वीकार की गईं।
करिश्मा कपूर — कपूर खानदान की पहली महिला जिनका करियर सुपरस्टार स्तर तक पहुंचा। ‘राजा हिंदुस्तानी’, ‘दिल तो पागल है’, ‘हीरो नं 1’, ‘कुली नं 1’ जैसी फिल्मों में ग्लैमर, इमोशन और ऊर्जा के साथ दर्शकों को बांधे रखा।
काजोल — अभिनय की सहजता, दमदार डायलॉग डिलीवरी और स्क्रीन प्रेजेंस से उन्होंने ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’, ‘कुछ कुछ होता है’, ‘गुप्त’, ‘प्यार तो होना ही था’ में यादगार भूमिका निभाई।
रवीना टंडन, उर्मिला मातोंडकर, शिल्पा शेट्टी, ममता कुलकर्णी और नम्रता शिरोडकर जैसे चेहरे हिंदी सिनेमा के विविध रंगों का हिस्सा बने।
2000s: आत्मनिर्भर स्त्रियाँ, नए विषय और ग्लोबल पहचान
यह दशक भारतीय सिनेमा में विषयों की विविधता, नई तकनीक और महिला चरित्रों की गहराई का युग बना। अब नायिका सिर्फ प्रेमिका नहीं, नेतृत्वकर्ता, पत्रकार, मां, योद्धा, विद्रोही भी बन चुकी थी।
ऐश्वर्या राय — भारत की सबसे सुंदर स्त्रियों में शुमार, हम दिल दे चुके सनम, ताल, देवदास, जोधा अकबर, रैनकोट, प्रोवोक्ड जैसी फिल्मों में उन्होंने सौंदर्य और संवेदना का सामंजस्य दिखाया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की सांस्कृतिक छवि को उन्होंने मजबूती से प्रस्तुत किया।
रानी मुखर्जी — उनकी आवाज़ जितनी खास थी, अभिनय उतना ही दमदार। ‘ब्लैक’, ‘हम तुम’, ‘वीर-ज़ारा’, ‘बंटी और बबली’, ‘युवा’, ‘मर्दानी’ जैसी फिल्मों में उन्होंने नारी सशक्तिकरण का नया चेहरा पेश किया।
प्रियंका चोपड़ा — मिस वर्ल्ड से लेकर ‘फैशन’, ‘बर्फी’, ‘डॉन’, ‘मुझसे शादी करोगी’, और फिर हॉलीवुड तक का सफर उन्होंने आत्मविश्वास, मेहनत और बुद्धिमत्ता से तय किया। ‘क्वांटिको’ जैसी सीरीज़ में उन्होंने भारत की महिला प्रतिभा को वैश्विक मंच पर स्थापित किया।
करीना कपूर — ‘जब वी मेट’, ‘ओमकारा’, ‘कभी खुशी कभी ग़म’, ‘चमेली’, ‘वीरे दी वेडिंग’ जैसी फिल्मों में उन्होंने सशक्त, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर स्त्री का चित्रण किया। वे पारंपरिक और आधुनिक दोनों दुनिया की मिसाल बनीं।
बिपाशा बसु, लारा दत्ता, सुष्मिता सेन, कंगना रनौत (प्रारंभिक दौर), विद्या बालन (आरंभिक) — इन सभी ने महिला किरदारों को गहराई, विविधता और पहचान दी।
2010s–2025 | स्त्री के स्वर, ओटीटी की लहर और वैश्विक पहचान
2010s: कंटेंट-क्वीन का दौर
2010 का दशक भारतीय सिनेमा में नायिकाओं की पुनः परिभाषा का युग था। अब महिलाएं केवल सौंदर्य या प्रेम की प्रतिनिधि नहीं रहीं, बल्कि वे संघर्ष, विद्रोह, नेतृत्व और निर्णय की धुरी बन गईं। यह वह दौर था जब “कंटेंट इज़ किंग” के साथ-साथ “वुमन इज़ क्वीन” भी साबित हुआ।
विद्या बालन — विद्या बालन इस दशक की क्रांति थीं। ‘द डर्टी पिक्चर’, ‘कहानी’, ‘तुम्हारी सुलु’, ‘शकुंतला देवी’, ‘मिशन मंगल’ जैसी फिल्मों में उन्होंने दिखाया कि एक महिला-केंद्रित फिल्म भी बॉक्स ऑफिस हिट हो सकती है। उनकी अभिनय शैली में आत्मबल, व्यावहारिकता और गहराई का अद्वितीय संगम दिखा। वे स्टीरियोटाइप्स को तोड़ने वाली प्रतीक बनीं।
कंगना रनौत — ‘क्वीन’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘मणिकर्णिका’, ‘पंगा’, ‘थलाइवी’ जैसी फिल्मों में कंगना ने अपने विद्रोही तेवर और अभिनय की सच्चाई से साबित किया कि वे स्त्री-विमर्श को सिर्फ निभाती नहीं, जीती हैं। वे अलग दृष्टिकोण, आत्मविश्वास और साहस की मिसाल बनीं।
दीपिका पादुकोण — ‘गोलियों की रासलीला राम-लीला’, ‘पीकू’, ‘पद्मावत’, ‘छपाक’, ‘गहराइयां’ जैसी फिल्मों से उन्होंने अभिनय में परिपक्वता, साहस और मनोवैज्ञानिक पेचिदगियों को दर्शाया। पीकू में बेटी, पद्मावत में रानी और छपाक में एसिड सर्वाइवर — हर किरदार अलग, पर सशक्त।
आलिया भट्ट — कम उम्र में अभिनय की गंभीर ऊंचाइयों को छूने वाली आलिया भट्ट ने ‘हाईवे’, ‘राज़ी’, ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’, ‘डियर जिंदगी’ में स्त्री के आत्मबोध और साहस का नया चित्र प्रस्तुत किया। वे सहज, तरल और भावनाओं की अद्भुत संप्रेषक बनकर उभरीं।
श्रद्धा कपूर — श्रद्धा कपूर ने अपनी मासूम मुस्कान, मधुर आवाज़ और सहज अभिनय से 2010 के दशक में बॉलीवुड में खास जगह बनाई। ‘आशिकी 2’ में आरुही के रूप में वे घर-घर में मशहूर हुईं। ‘एक विलेन’, ‘हैदर’, ‘स्त्री’, ‘बागी’ जैसी फिल्मों में उन्होंने रोमांस, थ्रिलर, एक्शन और हॉरर-कॉमेडी जैसे अलग-अलग रंगों में खुद को साबित किया। गायकी में भी उन्होंने अपनी छाप छोड़ी, जिससे वे एक बहुआयामी कलाकार बन गईं।
तापसी पन्नू — पिंक’, ‘थप्पड़’, ‘नाम शबाना’, ‘रश्मि रॉकेट’ जैसी फिल्मों में उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को अभिनय की ताकत से जोड़ा। वे आज की जुझारू, आत्मनिर्भर और विचारशील स्त्री की प्रतीक बन चुकी हैं।
भूमि पेडनेकर — भूमि ने ‘दम लगाके हईशा’, ‘सांड की आंख’, ‘शुभ मंगल सावधान’ जैसी फिल्मों में आम स्त्रियों की असाधारणता को उभारा। उनके किरदार यथार्थवादी, समाज-सापेक्ष और दमदार होते हैं।
ओटीटी युग और नई कहानियाँ (2020s की शुरुआत)
2020 के बाद कोरोना काल और डिजिटल क्रांति ने भारतीय सिनेमा में ओटीटी (Netflix, Prime, Hotstar आदि) के माध्यम से नई स्त्रियों की कहानियाँ सामने रखीं — वे जो न तो परंपरा की बंदिशों में थीं, न ही ग्लैमर की चमक में गुम।
शेफाली शाह — ‘दिल्ली क्राइम’, ‘ह्यूमन’, ‘डार्लिंग्स’ जैसी वेबसीरीज़ और फिल्मों में उन्होंने गंभीर, सशक्त और layered महिला किरदार निभाए। उनकी संवादहीन आंखों से दर्शक कांप उठते हैं।
रसिका दुग्गल — ‘मिर्जापुर’, ‘दिल्ली क्राइम’, ‘अंतर्जाल’ जैसी प्रस्तुतियों में उन्होंने सीमित स्क्रीन स्पेस में भी अपार असर छोड़ा।
कोंकणा सेन शर्मा — ‘ए डेथ इन द गंज’, ‘गहराइयां’, ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ जैसी फिल्मों में उन्होंने महिलाओं की मानसिक गहराइयों और सामाजिक द्वंद्व को बेबाकी से दिखाया।
स्वरा भास्कर, सयानी गुप्ता, कीर्ति कुल्हारी, अमृता सुभाष, तिलोत्तमा शोम — इन अभिनेत्रियों ने न केवल फिल्म बल्कि सामाजिक विमर्श में भी स्त्री स्वर को मज़बूती दी।
2020–2025: वैश्विक पहचान और भारतीय स्त्रियों की अंतरराष्ट्रीय आभा…. अब भारतीय नायिकाएँ सिर्फ भारत की पहचान नहीं, वैश्विक सिनेमा का चेहरा बन चुकी हैं।
प्रियंका चोपड़ा जोनास — ‘द व्हाइट टाइगर’, ‘सिटाडेल’, ‘बेवॉच’ जैसी इंटरनेशनल फिल्मों में अभिनय के साथ-साथ वे प्रोड्यूसर, लेखक और एक्टिविस्ट के रूप में उभर चुकी हैं। वे “भारतीय महिला” की शक्ति और बुद्धिमत्ता का वैश्विक प्रतीक हैं।
आलिया भट्ट — ‘हार्ट ऑफ स्टोन’ के माध्यम से उन्होंने हॉलीवुड में कदम रखा, वहीं ‘गंगूबाई’ जैसी फिल्म ने उन्हें भारत में एक वैश्विक नायिका बना दिया।
समांथा रुथ प्रभु, रश्मिका मंदाना, कियारा आडवाणी
दक्षिण भारत से राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचने वाली ये नायिकाएँ अब अखिल भारतीय पहचान बन चुकी हैं। ‘पुष्पा’, ‘शेरशाह’, ‘यशोदा’, ‘सिटाडेल इंडिया’ जैसे प्रोजेक्ट्स में इनका अभिनय आधुनिक भारतीय नायिका को परिभाषित करता है।
हिंदी सिनेमा की स्त्रियाँ — फ्रेम से फ्रंटियर तक
1950 से 2025 तक की यह यात्रा सिर्फ नायिकाओं की सूची नहीं, बल्कि भारतीय स्त्री की बदलती चेतना, सामाजिक जागरूकता और आत्मनिर्भरता की सिनेमाई दास्तान है। कभी वे त्याग की मूर्ति थीं, कभी मोहब्बत की मिसाल। अब वे नेतृत्वकर्ता, निर्णयकर्ता और विमर्श की धुरी बन चुकी हैं।
हर दशक में उन्होंने समाज को एक नई दृष्टि दी। नरगिस से दीपिका तक, मीना कुमारी से आलिया तक — ये नायिकाएँ महज कलाकार नहीं, भारतीय स्त्री चेतना की आइकॉन हैं।