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“आस्था या अराजकता? कांवर यात्रा में बढ़ती अति और शासन की जिम्मेदारियां”

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नई दिल्ली 

18 जुलाई 2025

श्रावण मास का पवित्र महीना भारत में शिवभक्तों के लिए आस्था, तपस्या और श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है। कांवर यात्रा, जिसमें लाखों श्रद्धालु गंगाजल लेकर भगवान शिव को अर्पित करने निकलते हैं, एक पवित्र अनुष्ठान है। लेकिन बीते वर्षों में यह आस्था कभी-कभी अराजकता में बदलती दिख रही है। डीजे की कानफाड़ू आवाज़ें, सड़कों पर आमजन का उत्पीड़न, ट्रैफिक जाम, ज़बरन दुकानें बंद कराना, राहगीरों को पीटना, और कभी-कभी तो खाने-पीने के सामान की लूट तक—क्या यह वही कांवर यात्रा है जो साधना, मौन और संयम का प्रतीक हुआ करती थी?

सड़कें आम जनता की हैं, अस्पताल जाने वाला मरीज़, ऑफिस पहुंचने वाला कर्मचारी, परीक्षा देने जाता छात्र या किसी अंतिम यात्रा में शामिल होते लोग—इन सभी की पीड़ा क्या आस्था के नाम पर नज़रअंदाज़ की जा सकती है? डीजे की तेज़ आवाज़ से अस्पतालों, स्कूलों और रिहायशी इलाकों में रहने वालों की तकलीफें बढ़ती हैं। आस्था तभी सार्थक है जब वह दूसरों की आज़ादी और सम्मान में बाधा न बने। लेकिन जब कांवर यात्रा के नाम पर निजी और सरकारी संपत्ति को तोड़ा जाए, पुलिसकर्मियों से बदसलूकी की जाए या धार्मिक उन्माद के साथ सांप्रदायिक तनाव फैलाया जाए—तो यह सिर्फ सामाजिक अनुशासन की नहीं, बल्कि संविधान की भी अवहेलना है।

सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी है कि—

  1. कांवर यात्रा के लिए विशेष रूट तय हों, जहां आमजन का आवागमन बाधित न हो।
  1. डीजे, लाउडस्पीकर और अन्य ध्वनि यंत्रों की सीमा तय की जाए, विशेष रूप से अस्पताल, विद्यालय और कोर्ट जैसे क्षेत्रों में।
  1. सभी कांवरियों का रजिस्ट्रेशन हो और पुलिस निगरानी में यात्रा हो। जो भी व्यक्ति कानून तोड़े, उसे आस्था की आड़ में छूट न दी जाए।
  1. निजी संपत्तियों और दुकानों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, जिससे लूट और ज़बरदस्ती रोकी जा सके।
  1. स्थानीय पुलिस, प्रशासन, धार्मिक संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की संयुक्त समिति बनाई जाए, जो मार्ग, नियमों और संयम का पालन सुनिश्चित करे।
  1. शिविरों में खान-पान, प्राथमिक उपचार, विश्राम और शौचालय की व्यवस्था हो, जिससे कांवरियों को व्यवस्थित सहारा मिले और उन्हें अराजकता का सहारा न लेना पड़े।

कांवर यात्रा केवल “शिवभक्ति” का प्रदर्शन नहीं, आत्म-अनुशासन और आंतरिक शुद्धि का उत्सव है। यह यात्रा यदि दूसरों की पीड़ा का कारण बनती है, तो उसका आध्यात्मिक मूल्य शून्य हो जाता है। आस्था, जब विवेक और संवेदना से जुड़ी हो, तभी वह समाज को जोड़ती है; अन्यथा वह विघटनकारी बन जाती है।

सरकारें, समाज और स्वयं श्रद्धालु—सभी को यह समझने की आवश्यकता है कि धार्मिक स्वतंत्रता, संविधान द्वारा प्रदत्त एक मूल अधिकार है, लेकिन यह किसी और की स्वतंत्रता या जीवन के अधिकार को कुचलकर नहीं मिलती। शांति, सौहार्द, और संयम ही सच्चे धर्म के स्तंभ हैं। जब कांवर यात्रा इन मूल्यों के साथ चलेगी, तभी यह देश की एकता, अखंडता और सांस्कृतिक विरासत का सम्मान बनेगी—न कि बोझ।

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