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सुप्रीम दो टूक: राज्य उत्सव में धर्म की दीवारें नहीं, बानू मुस्ताक को दशहरा उद्घाटन से नहीं रोक सकते

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नई दिल्ली, 19 सितंबर 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें कर्नाटक सरकार के फैसले को चुनौती दी गई थी कि प्रतिष्ठित कन्नड़ लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता बानू मुस्ताक को मैसूरु दशहरा समारोह का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया जाए। अदालत ने साफ कहा कि यह मामला धार्मिक अधिकारों के उल्लंघन का नहीं है, बल्कि राज्य द्वारा आयोजित सांस्कृतिक और पारंपरिक आयोजन का हिस्सा है, जिसमें किसी व्यक्ति को उसके धर्म के आधार पर अलग नहीं किया जा सकता।

क्या था विवाद?

याचिकाकर्ता का कहना था कि दशहरा का उद्घाटन पारंपरिक रूप से हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ा हुआ है—जिसमें मंदिर में पूजा, दीप प्रज्वलन और अन्य अनुष्ठान शामिल होते हैं। ऐसे में किसी गैर-हिंदू व्यक्ति को आमंत्रित करना हिंदुओं की धार्मिक परंपराओं और अनुच्छेद 25 में निहित उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि आगम-शास्त्रों के मुताबिक, धार्मिक क्रियाएँ केवल हिंदू समुदाय का कोई सदस्य ही कर सकता है, और यदि इसे अन्य धर्म से जुड़ा कोई व्यक्ति करता है, तो यह हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं के खिलाफ है।

हाई कोर्ट का रुख

इससे पहले 15 सितंबर 2025 को कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि दशहरा राज्य द्वारा आयोजित सांस्कृतिक उत्सव है, यह किसी एक धर्म का निजी धार्मिक आयोजन नहीं है। हाई कोर्ट ने साफ किया था कि सरकार का यह फैसला संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन नहीं करता, और बानू मुस्ताक जैसी प्रतिष्ठित लेखिका, जो समाज और साहित्य में योगदान दे चुकी हैं, उन्हें ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में आमंत्रित करना उचित है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट में जब यह मामला पहुंचा तो न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मीहता की पीठ ने हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा और याचिका को तुरंत खारिज कर दिया। अदालत ने याचिकाकर्ता से पूछा कि “भारत के संविधान की प्रस्तावना क्या कहती है?”, और स्वयं ही उत्तर दिया—“धर्मनिरपेक्षता”। पीठ ने स्पष्ट कहा कि जब देश का मूलभूत ढांचा ही धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है, तो राज्य सरकार द्वारा किसी साहित्यकार को आमंत्रित करने पर आपत्ति जताना तर्कसंगत नहीं है।

संवैधानिक महत्व

यह मामला केवल एक आमंत्रण का विवाद नहीं था, बल्कि इसने संविधान की व्याख्या और उसकी आत्मा को एक बार फिर केंद्र में ला दिया। अनुच्छेद 25 निश्चित रूप से प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, लेकिन अदालतों ने दोहराया कि यह अधिकार केवल उसी स्थिति तक सीमित है जहाँ निजी धार्मिक परंपराओं का प्रश्न हो। राज्य प्रायोजित सार्वजनिक कार्यक्रमों को केवल धार्मिक दायरे में सीमित करना न तो व्यावहारिक है और न ही संवैधानिक। इस फैसले से यह संदेश गया कि सांस्कृतिक आयोजनों में विविधता और समावेशिता ही भारतीय लोकतंत्र की असली पहचान है।

 

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