नई दिल्ली, 11 अगस्त 2025
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता और वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर की आपराधिक मानहानि (क्रिमिनल डिफेमेशन) मामले में दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए एक अहम फैसला सुनाया। यह मामला वर्ष 2000 में जारी एक प्रेस नोट से जुड़ा है, जिसमें पाटकर ने उस समय के जनसेवक और वर्तमान दिल्ली के उपराज्यपाल वी. के. सक्सेना पर गंभीर आरोप लगाए थे। इन आरोपों में हवाला लेन-देन और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से जुड़े कथन शामिल थे। अदालत ने निचली अदालत और दिल्ली हाई कोर्ट के फैसलों को सही ठहराया, लेकिन पाटकर पर लगाया गया ₹1 लाख का जुर्माना हटा दिया और उनकी रिहाई से संबंधित कुछ शर्तों को नरम कर दिया।
मामले की शुरुआत तब हुई जब वी. के. सक्सेना ने वर्ष 2000 में पाटकर के बयानों को मानहानि करार देते हुए उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। दिल्ली के साकेत ट्रायल कोर्ट ने 2024 में पाटकर को पांच महीने की जेल और ₹10 लाख का जुर्माना लगाया था, हालांकि बाद में उन्हें प्रॉबेशन पर रिहा कर दिया गया। इसके बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने 29 जुलाई 2025 को दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन वर्चुअल या वकील के माध्यम से अदालत में पेश होने की अनुमति देकर प्रॉबेशन की प्रक्रिया को आसान बना दिया। पाटकर ने इस फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति एन. कोतिस्वर सिंह शामिल थे, ने कहा कि निचली अदालतों के निष्कर्षों में हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं है। कोर्ट ने माना कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए सबूत पर्याप्त हैं और पाटकर के बयान मानहानिकारक माने जाने योग्य हैं। हालांकि, अदालत ने ₹1 लाख के अतिरिक्त जुर्माने को हटाने का आदेश दिया और प्रॉबेशन की निगरानी से संबंधित कुछ सख्त शर्तों में ढील दी, जिससे पाटकर को नियमित रूप से व्यक्तिगत रूप से अदालत में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं होगी।
पाटकर की ओर से वरिष्ठ वकील संजय पारिख ने दलील दी कि अभियोजन पक्ष ने जिस इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (ईमेल) पर भरोसा किया, उसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के तहत प्रमाणित नहीं किया गया था, जिससे उसकी वैधता संदिग्ध हो जाती है। उन्होंने यह भी कहा कि अभियोजन के गवाहों की गवाही में कई विरोधाभास थे और अदालत ने बचाव पक्ष के सबूतों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने माना कि गवाहों और दस्तावेज़ी साक्ष्यों का समग्र मूल्यांकन दोषसिद्धि को सही ठहराता है।
यह फैसला न केवल दो दशक पुराने व्यक्तिगत विवाद का कानूनी अंत है, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानहानि कानून के बीच संतुलन की बहस को भी नए सिरे से सामने लाता है। कोर्ट ने एक ओर पाटकर की दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए मानहानि के मामलों में जवाबदेही के महत्व को रेखांकित किया, वहीं दूसरी ओर आर्थिक दंड और कड़ी निगरानी में ढील देकर न्याय में सहानुभूति और संतुलन का संदेश भी दिया। यह मामला इस बात की मिसाल है कि कैसे सार्वजनिक जीवन में दिए गए बयान, यदि अप्रमाणित और अपमानजनक हों, तो वे लंबे समय तक कानूनी विवाद का कारण बन सकते हैं।