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झुग्गियों की ज़िंदगी: सपनों की राजधानी में संघर्षों का संसार

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जहाँ इंडिया गेट, संसद भवन और राष्ट्रपति भवन जैसी भव्य इमारतें चमकती हैं, उन्हीं सड़कों के कुछ मोड़ों पर छिपी है एक और दिल्ली — झुग्गियों की दिल्ली। ये वे स्थान हैं जहाँ दीवारों के नाम पर टाट की चादरें हैं, छत के नाम पर प्लास्टिक की परत, और जीवन के नाम पर संघर्ष की अनकही दास्तानें। 70 लाख से अधिक लोग ऐसे घरों में रहते हैं जो घर कहलाने लायक नहीं हैं — लेकिन वहीं हँसी भी है, सपने भी और जीने की हिम्मत भी। कच्ची गलियाँ, गंदा पानी, और बिजली की तारों का जाल इस जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। एक माँ अपने बच्चे को पढ़ाते हुए कहती है — “यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता सिर्फ किताबें हैं बेटा।”

पानी और शौचालय नहीं, लेकिन उम्मीद कायम है

झुग्गियों में सबसे बड़ी समस्याएँ साफ पानी और शौचालय की हैं। जहाँ दिल्ली के पॉश इलाकों में RO के पानी से पौधे सींचे जाते हैं, वहीं इन बस्तियों में महिलाओं को चार बजे सुबह उठकर पानी की लाइन में लगना पड़ता है — क्योंकि दो घंटे बाद पानी खत्म हो जाता है। मोबाइल टॉयलेट की सुविधा है, लेकिन सफाई के अभाव में कोई उपयोग नहीं करता। खुले में शौच करना विवशता है, न कि आदत। इसके बावजूद लोग बीमार पड़ते हैं, फिर भी उठते हैं, काम पर जाते हैं और फिर शाम को वही लाइन में लग जाते हैं। यह जिंदगी के लिए जद्दोजहद है, न कि किसी गलती की सज़ा।

बच्चे जो स्कूल के बजाय मजदूरी करते हैं

झुग्गियों में जन्म लेने वाले बच्चे अक्सर अपने हाथ में कलम के बजाय झाड़ू या हथौड़ी पकड़ते हैं। कुछ बच्चे सुबह सब्ज़ी बेचते हैं, कुछ निर्माण स्थल पर बाल मज़दूरी करते हैं, और कुछ तो कूड़ा बीनने जाते हैं। शिक्षा इनके लिए सपने जैसी चीज़ है, जिसमें अक्सर नींद अधूरी रह जाती है। सरकार द्वारा बनाए गए मोहल्ला स्कूल और NGO-शिक्षा केन्द्रों ने थोड़ी उम्मीदें जगाई हैं, लेकिन परिवार की गरीबी उन उम्मीदों को ज़मींदोज कर देती है। एक 10 साल की बच्ची रुखसार कहती है, “मुझे टीचर बनना है, लेकिन मम्मी बीमार रहती हैं, तो सब्ज़ी बेचने जाना पड़ता है।”

बीमारियाँ जो सिर्फ दवाओं से नहीं, नज़रों से भी इलाज मांगती हैं

इन बस्तियों में हवा साँस लेने लायक नहीं है, पानी पीने लायक नहीं है और जगह रहने लायक नहीं। इसलिए लोग टीबी, डेंगू, टाइफॉइड, स्किन इंफेक्शन, सांस की तकलीफ जैसी बीमारियों से घिरे रहते हैं। सरकारी अस्पताल दूर हैं, और जब जाते हैं तो लाइन इतनी लंबी होती है कि इलाज से पहले हिम्मत टूट जाती है। ‘सेहत बस’ जैसी योजनाएँ आती हैं, जाती हैं, लेकिन स्थायीत्व का आभाव है। लोग जीते हैं, लेकिन स्वस्थ नहीं रहते। स्वास्थ्य यहाँ जीवन की प्राथमिकता नहीं, किस्मत की बात बन चुकी है।

बिजली का उजाला नहीं, पर आंखों में चमक है

बिजली की हालत झुग्गियों में अक्सर नाममात्र की है। कई जगह अवैध कनेक्शन हैं, जो कभी भी कट सकते हैं। गर्मियों में जब दिल्ली एसी की ठंडी हवा में साँस ले रही होती है, वहीं ये लोग पसीने में डूबे रहते हैं। फिर भी दीये जलते हैं, मोबाइल चार्ज होते हैं और रात में बच्चे किताबों पर झुकते हैं — क्योंकि सपना देखना मुफ्त है और झुग्गी के बच्चे सपने मुफ्त में भी पूरे करने का हौसला रखते हैं।

औरतें जो सिर्फ घर नहीं, पूरा समाज चलाती हैं

झुग्गियों की औरतें सिर्फ चूल्हा नहीं जलातीं, वे समाज का हौसला भी जलाए रखती हैं। वे सुबह 4 बजे उठकर पानी लाती हैं, बच्चों को तैयार करती हैं, खुद काम पर जाती हैं — कोई घरेलू कामगार, कोई फैक्ट्री वर्कर, कोई सफाई कर्मचारी। फिर लौटकर खाना बनाती हैं और अगले दिन की तैयारी करती हैं। इनकी मेहनत को कोई अखबार नहीं छापता, लेकिन इनके पसीने से दिल्ली की रफ्तार चलती है। वे नारे नहीं लगातीं, वे बस चुपचाप क्रांति करती हैं।

कला और संस्कृति: छांव में पनपता आत्मसम्मान

कठपुतली कॉलोनी हो या संगम विहार की गलियाँ — यहाँ के कलाकारों ने भारतीय लोककला को बचाया है। ये झुग्गियाँ सिर्फ गरीबी की पहचान नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विरासत की गहराई भी हैं। यहां के बच्चे नृत्य सीखते हैं, पेंटिंग करते हैं, दीवारों पर कविता लिखते हैं। NGO के प्रयासों से कभी-कभी ये कला मंच पर भी पहुंचती है, लेकिन अधिकांशतः यह कला इन्हीं गलियों में दम तोड़ देती है। फिर भी कोई ना कोई बच्चा रोज़ कविता लिखता है — जो दुनिया को बताती है कि वह गरीब जरूर है, लेकिन भावनाओं से खाली नहीं।

योजनाएं बहुत हैं, लेकिन ज़मीन पर नहीं पहुंचती

‘जहाँ झुग्गी, वहाँ मकान’, ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’, ‘दिल्ली झुग्गी पुनर्वास योजना’ — कागजों में सब कुछ सुनहरा लगता है। पर जब बस्तियों में जाते हैं, तो वहाँ टूटी सड़कें, अधूरी पाइपलाइन, और गंदगी की दुर्गंध मिलती है। पुनर्वास के नाम पर कुछ बस्तियों को उखाड़ा गया, लेकिन मकान अब तक नहीं बने। लोग पेड़ों के नीचे, पुलों के नीचे दोबारा झुग्गी बनाकर जीने लगे। पुनर्वास उनके लिए एक और विस्थापन बन गया। यह सिस्टम की सबसे बड़ी असफलता है — गरीब को हटाना आसान है, लेकिन बसाना मुश्किल।

न्याय की लड़ाई: अदालतों में नहीं, ज़मीन पर

झुग्गी में रहने वाला व्यक्ति हर रोज़ न्याय के लिए लड़ता है — सफाई के लिए, राशन के लिए, बिजली के लिए, और कभी-कभी सिर्फ एक सम्मान की नज़र के लिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हर नागरिक को गरिमामय जीवन जीने का अधिकार है’, लेकिन झुग्गी में यह अधिकार सवाल बनकर लटका हुआ है। न्याय का दरवाज़ा इनके लिए अक्सर बहुत दूर होता है — और जब कोई NGO, कोई वकील इनकी बात उठाता है, तो एक उम्मीद की लौ जलती है।

अंत नहीं, नई शुरुआत का रास्ता

दिल्ली की झुग्गियाँ सिर्फ ‘समस्या’ नहीं हैं — वे इस शहर की आत्मा हैं। यहाँ रहने वाले लोग सिर्फ ‘वोटर’ नहीं, बल्कि मेहनतकश नागरिक हैं। अगर सरकार, समाज और न्याय व्यवस्था एक साथ आएं, तो इन झुग्गियों को झोपड़ियों से मकानों में बदला जा सकता है, निराशा को आत्मनिर्भरता में बदला जा सकता है। बस ज़रूरत है संवेदना की, भागीदारी की और निर्णय की।

15 अगस्त को जब हम तिरंगे को सलामी देते हैं, तब एक नज़र उन गलियों पर भी डालनी चाहिए जहाँ उस तिरंगे की छांव में लोग संघर्ष कर रहे हैं। आज़ादी का असली मतलब तभी पूरा होगा, जब हर झुग्गी को सम्मान, सुविधाएं और स्थायीत्व मिलेगा। दिल्ली तब ही सचमुच राजधानी कहलाएगी — जब उसका हर नागरिक राजा जैसा महसूस कर सकेगा, भले वह झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो।

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