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विश्लेषण: क्या महिलाएं सच में आज़ाद हैं?

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नई दिल्ली | 15 अगस्त 2025

लेखक: शाहिद सईद | वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता

आज़ादी का उत्सव और महिलाओं की असहायता – एक अंतर्विरोध

जब आज पूरा देश 79वें स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मना रहा है, तिरंगे की शान में गीत गाए जा रहे हैं, तो सवाल यह उठता है: क्या देश की आधी आबादी – महिलाएं – वास्तव में आज़ाद हैं? क्या उनकी आत्मा, शरीर और सम्मान को वो अधिकार मिले हैं जो एक स्वतंत्र राष्ट्र की नागरिक को मिलने चाहिए? दरअसल, भारत की महिलाएं आज एक आभासी आज़ादी में जी रही हैं — जहां संविधान ने उन्हें बराबरी का दर्जा दिया है, लेकिन समाज, सोच और सिस्टम अब भी उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक मानते हैं। दहेज, बलात्कार, घरेलू हिंसा, ऑनर किलिंग, यौन उत्पीड़न और साइबर अपराधों ने उनके स्वतंत्र अस्तित्व को निरंतर कुचलने का प्रयास किया है। यह स्वतंत्रता दिवस महज़ एक रस्म नहीं, बल्कि एक अवसर है — खुद से पूछने का कि क्या हम एक ऐसा भारत बना पाए हैं, जहां महिलाएं बेखौफ होकर जी सकें?

बिहार, बंगाल और ओडिशा – चुप्पी की चोट और कानून की लाचारी

बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा — तीनों राज्य सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भिन्न हो सकते हैं, लेकिन महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की पीड़ा में समान हैं। बिहार में 2023 में महिलाओं के विरुद्ध कुल 21,000 से अधिक अपराध दर्ज किए गए। 2024 में यह संख्या 24,000 पार कर गई — जिसमें घरेलू हिंसा, दहेज हत्या और शीलभंग के मामले प्रमुख हैं। पुनपुन, मुजफ्फरपुर, भागलपुर जैसे क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की रिपोर्टिंग लगातार बढ़ रही है। पश्चिम बंगाल में स्थिति और भयावह है — 2024 में महिलाओं पर बलात्कार और छेड़खानी के 26,000 से अधिक मामले दर्ज हुए। कोलकाता और उत्तर 24 परगना के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में यौन हिंसा अब सामाजिक असंतुलन का प्रतीक बन चुकी है। वहीं ओडिशा में दहेज हत्या के मामलों ने चिंताजनक मोड़ लिया है — विशेषकर बालासोर, क्योंझर और केंद्रपाड़ा जिलों में। ओडिशा पुलिस के मुताबिक, 2023 में दहेज से जुड़ी 800 से अधिक मौतें दर्ज की गईं — जो बताती हैं कि शादी महिलाओं के लिए आश्रय नहीं, मृत्यु का द्वार बन गई है।

मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र – चीखते आंकड़े

मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे अपेक्षाकृत समृद्ध राज्य भी महिला अपराध के मामलों में पीछे नहीं हैं। मध्य प्रदेश लगातार बलात्कार की राजधानी कहे जाने का कलंक ढो रहा है। 2024 में राज्य में 13,345 बलात्कार के मामले दर्ज हुए — यानी हर दिन औसतन 36 बलात्कार! भोपाल, इंदौर, सागर, उज्जैन और रीवा जैसे शहरों से लेकर छोटे कस्बों तक, महिला सुरक्षा एक छलावा बनकर रह गई है। महाराष्ट्र, जो आर्थिक रूप से सबसे आगे है, वहां भी महिलाओं की स्थिति कोई खास बेहतर नहीं। मुंबई जैसे महानगरों में 2024 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 18,000 से अधिक मामले दर्ज हुए — जिनमें से बड़ी संख्या साइबर स्टॉकिंग, कार्यस्थल उत्पीड़न और सोशल मीडिया पर चरित्र हनन की थी। ग्रामीण महाराष्ट्र — खासकर मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्रों में — महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा और ऑनर किलिंग जैसे अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं, लेकिन परिवार की ‘इज़्ज़त’ और ‘सामाजिक डर’ के कारण ये मामले दफन हो जाते हैं।

नॉर्थ-ईस्ट: शांत दिखने वाला इलाका, सन्नाटे में डूबी पीड़ा

पूर्वोत्तर भारत को अक्सर भारत के सबसे शांतिप्रिय क्षेत्रों में गिना जाता है, लेकिन यह सन्नाटा कई बार अपराध की आहट को छुपा लेता है। असम, मणिपुर, नगालैंड, त्रिपुरा जैसे राज्यों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की रिपोर्टिंग कम दिखती है — लेकिन एनसीआरबी और PMC की रिपोर्ट बताती है कि कई जिलों में महिलाओं के विरुद्ध जोखिम राष्ट्रीय औसत से दोगुना है। असम में 2024 में महिला तस्करी, यौन उत्पीड़न और कम उम्र में विवाह के हजारों मामले दर्ज किए गए। मणिपुर में जातीय हिंसा के दौरान महिलाओं के साथ हुआ व्यवहार — बलात्कार, निर्वस्त्र परेड और उत्पीड़न — यह स्पष्ट करता है कि राज्य की संवैधानिक व्यवस्था भी महिलाओं के लिए शून्य सुरक्षा की गारंटी देती है। कई अपराध पुलिस रिकॉर्ड में नहीं आते — या तो प्रशासन की निष्क्रियता के कारण या फिर राजनीतिक दबाव के चलते।

जब दिल्ली ही असुरक्षित हो, तो बाकी देश का क्या होगा?

देश की राजधानी दिल्ली, जहां से नीतियाँ बनती हैं और महिला सुरक्षा पर घोषणाएँ होती हैं, 2022 और 2023 में महिलाओं के खिलाफ अपराध दर में सबसे ऊपर रही। NCRB के अनुसार, दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर 145 प्रति लाख है — जो देश में सबसे अधिक है। इसमें यौन उत्पीड़न, स्टॉकिंग, एसिड अटैक, घरेलू हिंसा और साइबर अपराध शामिल हैं। दिल्ली में हर दिन औसतन 7 बलात्कार की घटनाएं दर्ज होती हैं। ये आंकड़े तब और भयावह हो जाते हैं जब यह समझा जाए कि सैकड़ों महिलाएं डर, अपमान और सामाजिक दबाव के कारण पुलिस तक जाती ही नहीं हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी स्वीकार किया है कि उन तक पहुंचने वाली शिकायतें, असल स्थिति का केवल 10% ही दर्शाती हैं।

डिजिटल स्पेस – नई तकनीक, नया शोषण

अब अपराध केवल शरीर तक सीमित नहीं रहे — महिलाओं की निजता को वर्चुअल स्पेस में भी रौंदा जा रहा है। 2024 में NCW को 9,000 से अधिक साइबर उत्पीड़न की शिकायतें मिलीं, जिनमें मॉर्फ तस्वीरें, ऑनलाइन रेप थ्रेट, अश्लील चैट और ब्लैकमेलिंग जैसे अपराध शामिल थे। छोटे शहरों में इन अपराधों की रिपोर्टिंग बेहद कम है — क्योंकि लड़कियों को इंटरनेट इस्तेमाल करने पर भी सवालों का सामना करना पड़ता है, और अपराधी अक्सर जान-पहचान वाले ही होते हैं।

कानून हैं, लेकिन क्रियान्वयन कहां है?

भारत में महिला सुरक्षा के लिए अनेक योजनाएं चलाई गईं — निर्भया फंड, वन स्टॉप सेंटर, महिला हेल्पलाइन 181, POSH कानून, फास्ट ट्रैक कोर्ट्स। लेकिन यह योजनाएं कागज़ों में ज्यादा और ज़मीन पर कम दिखाई देती हैं। 2024 में सामने आया कि निर्भया फंड का 35% हिस्सा कई राज्यों में खर्च ही नहीं किया गया। POSH के तहत कार्यस्थल पर शिकायत समिति का गठन अनिवार्य है, लेकिन सरकारी विभागों और निजी संस्थानों में इसकी अनुपस्थिति आम बात है। हेल्पलाइन में फोन करने वाली महिलाओं को या तो टाल दिया जाता है या ‘थाने जाओ’ जैसा जवाब मिलता है।

समाधान: आत्मचिंतन से बदलाव की शुरुआत

बदलाव केवल कानून से नहीं, सोच से आता है। हमें बेटों को यह सिखाना होगा कि लड़की कोई वस्तु नहीं, बराबर की इंसान है।।स्कूलों में जेंडर सेंसिटाइजेशन और यौन शिक्षा को अनिवार्य बनाना होगा। मीडिया और फिल्मों को महिला की गरिमा दिखानी होगी — न कि केवल उसके शरीर को।।पुलिस, न्यायपालिका और समाज — तीनों को मिलकर महिला विरोधी सोच को हर स्तर पर चुनौती देनी होगी। हर पंचायत, हर जिले, हर राज्य में महिला सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाना होगा — तभी देश में असल स्वतंत्रता आएगी।

जब तक हर महिला निडर नहीं, तिरंगा अधूरा है

77 साल पहले हमने विदेशी हुकूमत से आज़ादी पाई थी। पर भारत की महिलाएं आज भी घरेलू, सामाजिक, मानसिक और शारीरिक गुलामी से जूझ रही हैं। यह स्वतंत्रता दिवस केवल उत्सव नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मचिंतन का अवसर होना चाहिए। जब तक एक भी महिला रात को अकेले बाहर निकलने से डरे, ऑफिस में अपनी पहचान छुपाए, या घर में ही प्रताड़ित हो — तब तक हमारी स्वतंत्रता झूठी है।

आज़ादी सिर्फ सीमा पर झंडा फहराने से नहीं मिलती — वो तब मिलती है जब एक महिला अपने सम्मान, सुरक्षा और आत्मविश्वास के साथ खुलकर जी सके। और जब तक ऐसा नहीं होता,।भारत का तिरंगा अधूरा है।

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