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खाद्य सुरक्षा और आयात के मायने?

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15 अगस्त 2025
आलोक रंजन, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार

किसी भी देश के लिए खाद्य सुरक्षा के मायने हैं। दरअसल खाद्य सुरक्षा भारतीय कृषि अर्थव्वस्था के लिए गंभीर चुनौती है। खासकर जब देश की आधी आबादी खेती के जरिए अपना जीवनयापन कर रही हों। खाद्य सुरक्षा से यहां मतलब सिर्फ भंडारण या अनाजों को चूहों से बचाने का नहीं है। खाद्य सुरक्षा का बड़ा अर्थ ये भी है कि हम सस्ता आयात या डयूटी फ्री खाद्यान क्यों मंगाने पर मजबूर है। मान लीजिए, जब हमारे देश में किन्नौर या डीलिसियस एपल की पैदावार पर्याप्त है तो हमें वाशिंग्टन एपल या कनाडा के येलो पीइज के आयात की जरुरत क्यों पड़ती है?

ऐसा नहीं हैं कि देश के खाद्य बाज़ारों में अमेरिकी प्रवेश की कोशिश पहले नहीं हुई हों। बाबू जगजीवन राम जब कृषि मंत्री थे तो उन्होंने भी रोम में अमरिकी दबाव को नकारा था। कई बार ऐसी कोशिशें हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी RCGM की सिफारिशों को लेकर दबाव झेलते रहे है। अब सामने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं, जो 26 फीसदी टैरिफ लगाने की धमकी देकर भारतीय बाज़ारों को खोलने की कोशिश में लगे है। इससे भारतीय खासकर छोटे किसानों को फर्क जरुर पड़ेगा। जो सेब बाग से 20-25 रुपए किलो उठ जाता है, वो बाज़ार में बिचौलिए के जरिए 80-100 रुपए किलो बिकता हैं। अगर बाहर से आयातित फल, सोयाबीन, अमेरिकी मक्का आता है तो यहां के किसान का बाज़ार सिकुड़ेगा।

राष्ट्रपति ट्रंप डब्लयूटीओ के समझौते से भी परहेज कर रहे हैं। वो भारत के कृषि बाज़ार को अपनी शर्तों पर खोलना चाहते हैं। हाल में भारतीय आमों के कंटेनर को एक कीट होने का बात पर अमेरिकी बाज़ार में पहुंचने की अनुमति नहीं मिली थी। लेकिन वाशिंग्टन एपल यहां धड़ल्ले से बिक रहा, कोई सेहत संबंधी चेक नहीं है। जेनेटिक मोडिफाइड फसलों से हमारी जनता का स्वास्थ बेहतर नहीं हो सकता। अमरीका को लेकर ये हमारी मानसिकता है, कि वो सुपीरियर है। नहीं, हमारा किसान श्रेष्ठ है, जो विपरीत हालात में इतनी बड़ी आबादी को अनाज उपलब्ध करा रहा है।

समस्या किसान की नहीं है। नीति निर्धारकों की है। जो अपनी नीतियों को लागू करने पिछड़ जाते है। आस्ट्रेलिया ने हमसे करीब 10-12 साल पहले दालों के बीज मंगाए और अब वो दालें खुद के उपयोग लायक उगा लेते हैं और निर्यात भी कर लेते हैं। हम आज भी कनाडा से येलो पीइज आयात करते है। Edible oil और इसकी सीड्स के हमसे दूसरे सबसे बड़े आयातक हैं। कमी हमारी नीतियां लागू करने में है।

कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने हाल में एक यूटयूब चैनल पर इंटरव्यू में कहा कि OECD की studies की कोई चर्चा कहीं नहीं हुई, जिसमें बताया गया कि 2000 से 2016 के बीच भारतीय किसानों को 45 लाख करोड़ का घाटा हुआ। सीमांत किसानों के हालात जस के तस है, उनका रकबा कम हुआ, तो वो मवेशियों से होने वाली आय पर निर्भर हुए।

कृषि विशेषज्ञ डॉ. रवि सिंह बताते है कि ये स्पष्ट है कि सस्ते खाद्य आयात उपभोक्ताओं के लिए फायदेमंद लग सकते हैं, लेकिन वे अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे नहीं हैं – खासकर किसानों के दृष्टिकोण से, क्योंकि वे सीधे प्रभावित होते हैं। अमेरिका और भारत के बीच व्यापार सौदों में प्रमुख फसलों की रक्षा होनी चाहिए और एमएसपी और अन्य योजनाओं के माध्यम से हमारे किसानों का समर्थन जारी रखना चाहिए। खाद्य सुरक्षा किसानों की आय से गहराई से जुड़ी हुई है, और जब अमेरिकी कृषि उत्पाद – जिन पर भारी सब्सिडी दी जाती है – भारतीय बाजारों में प्रवेश करते हैं और कीमतों को नीचे लाते हैं तो जोखिम बढ़ जाता है। ऐसे समय में जब वैश्विक व्यापार पहले से ही तनाव का सामना कर रहा है, विदेशी खाद्य आयात पर निर्भरता हमारी आपूर्ति और मांग श्रृंखला को गंभीर रूप से बाधित कर सकती है।

दरअसल दुनिया में कहीं भी नज़र घुमाएं तो पायेंगे कि सत्ता उद्योगों के लिए काम करती है। खेती- किसानी उनकी प्राथमिकता में नहीं है।इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय उदाहरण है कि 1996 में अटल जी की सरकार ने बजट का 60 फीसदी कृषि सेक्टर को देने का मन बनाया था, लेकिन दुर्भाग्य से वो सरकार 13 दिनों में ही गिर गई।

सत्ता चाहे तो कृषि का कायाकल्प होने में देर नहीं लगेगी। एक सुखद बात ये है कि खाद्य सुरक्षा नेटवर्क को मजबूत करने के लिए भारत सरकार अनाज भंडारण योजना पर काम कर रही है। मूल बात ये है कि आयात करना कोई समस्या का समाधान नहीं है, वो भी तब जब 140 करोड़ की आबादी को अनाज उपलब्ध कराना हों। सौ बात कि एक बात ये कि अमरीकी आयात के लिए बाज़ार खोलना कोई अक्लमंदी नहीं होगी और इसका सीधा असर कृषि अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।

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