मैदान से मोहल्ला तक – खेल में आ रहे हैं मुस्लिम युवाओं के सुनहरे कदम
एक ज़माना था जब मुस्लिम परिवार अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन खिलाड़ी बनने को अस्थिर भविष्य और ‘मजहब से दूर’ समझते थे। अब यह मानसिकता तेजी से बदल रही है। आज मुस्लिम युवा क्रिकेट, फुटबॉल, बैडमिंटन, एथलेटिक्स, शूटिंग, कुश्ती, कबड्डी और मार्शल आर्ट्स जैसे खेलों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन कर रहे हैं। उन्होंने यह साबित किया है कि मैदान में मेहनत, अनुशासन और जूनून के साथ खेलना भी इबादत से कम नहीं। मुस्लिम मोहल्लों के मैदान अब केवल ईद की नमाज़ या खेल के शौक तक सीमित नहीं, बल्कि टैलेंट और टारगेट दोनों को जन्म दे रहे हैं।
क्रिकेट में नहीं है कोई ‘ड्रेस कोड ऑफ मज़हब’ – सिर्फ स्कोरकार्ड बोलता है
क्रिकेट जैसे खेल में मुस्लिम खिलाड़ियों की भूमिका लंबे समय से बनी रही है –नवाब पटौदी, सलीम दुर्रानी, सैयद किरमानी, मोहम्मद अजहरुद्दीन, मोहम्मद कैफ, जाहिर खान, मुनाफ पटेल, मोहम्मद शमी, मोहम्मद सिराज, इरफान पठान, यूसुफ पठान, मोहम्मद सरफराज जैसे नाम घर-घर के आदर्श रहे हैं।
2024 के टी-20 वर्ल्ड कप में मोहम्मद सिराज की गेंदबाज़ी ने भारत को फाइनल में पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 2023 वर्ल्ड कप में मोहम्मद शमी की गेंदबाजी ने तहलका मचाया था। मुंबई के आरिफ शेख अब BCCI के टैलेंट हंट प्रोग्राम के तहत देश के 100 उभरते खिलाड़ियों को ट्रेनिंग दे रहे हैं। क्रिकेट सिर्फ करियर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता और व्यक्तिगत आत्मविश्वास का प्रतीक बन गया है, जिसमें मुस्लिम युवा बिना किसी भेदभाव के सिर उठाकर खेल रहे हैं।
मार्शल आर्ट्स, बॉक्सिंग और निशानेबाजी में भी बढ़ रहा है मुस्लिम बेटियों का दबदबा
भारत में कई मुस्लिम खिलाड़ी ऐसे रहे हैं जिन्होंने खेलों में अपनी मेहनत, लगन और प्रदर्शन से देश और समाज का नाम रोशन किया है। सानिया मिर्जा, भारतीय टेनिस की सबसे सफल महिला खिलाड़ी हैं, जिन्होंने ग्रैंड स्लैम सहित कई अंतरराष्ट्रीय खिताब जीते और महिलाओं की खेल में भागीदारी को एक नई दिशा दी। बॉक्सिंग में नाज़नीन परवीन और रुखसार जहां जैसी महिला बॉक्सरों ने राष्ट्रीय स्तर पर मेडल जीतकर साबित किया कि हिजाब पहनकर भी पंच मारा जा सकता है। निशानेबाजी में हिना सिद्दीकी जैसे नाम उभरकर आए हैं जिन्होंने भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंटों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। ये खिलाड़ी घर-घर में पहचाने जाने वाले नाम हैं, जो खेल के मैदान में न सिर्फ अपनी कौशल से बल्कि अपने जज़्बे और राष्ट्रप्रेम से भी मिसाल बने हैं। ये खिलाड़ी आज के मुस्लिम युवाओं के लिए प्रेरणा हैं कि मेहनत, हिम्मत और हुनर हो, तो कोई भी मंच छोटा नहीं होता।
हैदराबाद की नुसरत जहां और कश्मीर की इर्शाद फातिमा ने कराटे, वुशु और ताइक्वांडो जैसे खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड और सिल्वर मेडल जीतकर यह साबित कर दिया कि मुस्लिम बेटियां भी लाजवाब पंच मार सकती हैं। नुसरत ने अपनी छोटी सी कोचिंग से शुरुआत की और आज 150 से ज्यादा मुस्लिम लड़कियों को सेल्फ-डिफेंस की ट्रेनिंग दे चुकी हैं। ये बेटियां अब ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ से आगे निकलकर ‘बेटी लड़ाओ, बेटी जिताओ’ की प्रेरणा बन रही हैं। हिजाब पहनकर रिंग में उतरने वाली ये खिलाड़ी यह संदेश दे रही हैं कि परदा कमजोरी नहीं, आत्मबल की परंपरा है।
ट्रैक और फील्ड में दिख रहा है मेहनत का रंग, पहचान का उजाला
महाराष्ट्र के जावेद अख्तर ने 2024 की एशियन एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 800 मीटर रेस में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच दिया। वे एक छोटे से गांव से आते हैं जहाँ न जूते थे, न कोच, न स्टेडियम। लेकिन जावेद की मेहनत ने दिखा दिया कि अगर इरादा मजबूत हो, तो रास्ता खुद बनता है। इसी तरह कोलकाता की रुकैया तबस्सुम लॉन्ग जंप में जूनियर नेशनल में स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं और अब ओलंपिक की तैयारी कर रही हैं। इन खिलाड़ियों ने उन मुस्लिम युवाओं के लिए रास्ता खोल दिया है जो स्पोर्ट्स में करियर बनाने का सपना तो देखते हैं, पर उन्हें मंज़िल तक पहुँचाने वाला कोई रास्ता नहीं दिखता।
खेल के जरिये बन रहा है एकता, साहस और पहचान का नया भारत
खेल अब सिर्फ फिजिकल फिटनेस का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक मेलजोल, सांप्रदायिक सौहार्द और आत्मविश्वास निर्माण का ज़रिया बन चुका है। मुस्लिम खिलाड़ी मैदान पर जब भारत का झंडा लेकर दौड़ते हैं, तो उनकी पहचान मज़हब से नहीं, झंडे से होती है। यह एक नया भारत है, जहाँ मैदान पर मोहम्मद, कृष्णा, गुरप्रीत और शांति एक साथ खेलते हैं और जीतते हैं – अपने दम पर, अपने देश के लिए। मुस्लिम समाज के भीतर भी अब यह समझ गहराने लगी है कि अगर बेटा-बेटी खेलों में अच्छा कर रहा है, तो उसे रोकने की जगह सपोर्ट किया जाए। इसी से वह काबिल बनेगा और कौम को भी गौरव दिलाएगा।
खेलों के नए इरादों को मिल रही है सरकारी और सामाजिक सराहना
2025 में सरकार द्वारा घोषित ‘खेलो इंडिया मुस्लिम यूथ स्कीम’ के तहत कई मुस्लिम बहुल जिलों में स्पोर्ट्स ट्रेनिंग सेंटर खोले गए हैं। इस योजना के अंतर्गत कश्मीर, यूपी, झारखंड और बिहार के मुस्लिम बच्चों को फ्री किट, कोचिंग और छात्रवृत्ति दी जा रही है। सामाजिक संगठन भी अब स्थानीय स्तर पर स्पोर्ट्स मीट और टैलेंट शो आयोजित कर रहे हैं, जिसमें मुस्लिम युवाओं की भागीदारी अभूतपूर्व रही है। यह संकेत है कि समाज के भीतर और बाहर दोनों जगह से मुस्लिम खिलाड़ियों को सराहना और सहारा दोनों मिलने लगे हैं।
नतीजा – अब मुस्लिम समाज कह रहा है: ‘खेलो बेटा, नाम रोशन करो’
आज जब किसी मुस्लिम घर का बच्चा ट्रैकसूट पहनकर मैदान की ओर निकलता है, तो अब लोग सवाल नहीं करते – वे दुआ देते हैं। अब यह सोच मज़बूत हो रही है कि खेल एक पेशा है, कोई मजाक नहीं। मुस्लिम समाज में खेल के प्रति यह नया रवैया प्रगतिशीलता, आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान की दिशा में एक बड़ी छलांग है। मुस्लिम खिलाड़ी अब मजहब की इबादत के साथ देश के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। यही है वह असल तस्वीर – जहां नमाज़ भी है, राष्ट्रगान भी। जहां तस्बीह भी है, ट्रॉफी भी।