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बिहार में वोटर लिस्ट पर घमासान: विपक्ष बोला, लोकतंत्र का गला घोंट रहा आयोग, लाखों नहीं कर पाएंगे मतदान

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पटना, 5 जुलाई 2025

फिर से सवालों के घेरे में चुनाव आयोग

बिहार चुनाव 2025 को लेकर जिस तरह से मतदाता सूची की जांच और दस्तावेज़ों की मांग की प्रक्रिया को लागू किया गया है, उसने चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर पहले से उठ रहे सवालों को और गहरा कर दिया है। यह कोई पहला मौका नहीं है जब आयोग की मंशा पर शक जताया गया हो — इससे पहले महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में हुए चुनावों के दौरान भी आयोग की भूमिका पर विपक्षी दलों ने आरोप लगाए थे कि वह सत्तारूढ़ दलों के इशारे पर काम कर रहा है। विशेषकर महाराष्ट्र चुनाव में मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर संशोधन, और कुछ सीटों पर वोटिंग मशीनों की पारदर्शिता को लेकर काफी विवाद हुआ था। अब बिहार जैसे संवेदनशील और राजनीतिक रूप से सक्रिय राज्य में आयोग की कार्यशैली को लेकर जब फिर सवाल उठ रहे हैं, तो यह संस्था की गरिमा और विश्वसनीयता के लिए एक गंभीर चुनौती बन गया है। लोकतंत्र का यह स्तंभ, जिसे निष्पक्ष और मजबूत माना जाता रहा है, अब जनता और विपक्ष दोनों की नजरों में कटघरे में है — और यह स्थिति भविष्य के चुनावों की पारदर्शिता और भरोसे को भी प्रभावित कर सकती है

बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है और इसके साथ ही एक बड़ा विवाद राज्य की राजनीति को हिला रहा है। चुनाव आयोग द्वारा वोटर लिस्ट की विशेष समीक्षा प्रक्रिया यानी Special Intensive Revision (SIR) ने जनता को जहां जागरूक किया है, वहीं भारी संख्या में लोगों को परेशानी में भी डाल दिया है। आयोग की नई गाइडलाइन के अनुसार, हर मतदाता को कम से कम एक आधिकारिक दस्तावेज प्रस्तुत करना होगा ताकि वह वोटर लिस्ट में अपना नाम दर्ज या सही करवा सके। लेकिन यह प्रक्रिया इतनी जटिल और पेचीदा बना दी गई है कि लाखों लोग — विशेष रूप से गरीब, ग्रामीण, प्रवासी, अल्पसंख्यक और दलित समुदाय — वोटर लिस्ट से बाहर हो सकते हैं।

आयोग की मांग अजीब, आम लोगों के लिए मुश्किल

चुनाव आयोग ने मतदाता सूची की जांच के लिए 11 दस्तावेज़ों की सूची दी है, जिनमें आधार कार्ड, राशन कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, मनरेगा जॉब कार्ड, बैंक पासबुक आदि शामिल हैं। परंतु बिहार जैसे राज्य में, जहां आज भी लाखों लोग बुनियादी सरकारी सेवाओं तक ठीक से नहीं पहुंच पाते, वहां इतनी शर्तें रखना आम आदमी के लिए एक नई परेशानी बन गया है। कई ग्रामीण इलाकों में आज भी बिजली, इंटरनेट, या स्थानीय स्तर पर प्रमाणित पहचान पत्र की सुविधा नहीं है। ऐसे में यह संभावना है कि लाखों योग्य मतदाता सिर्फ इसलिए वोट नहीं डाल पाएंगे क्योंकि वे इन दस्तावेजों को समय पर नहीं जुटा पाएंगे।

विपक्ष का आरोप: लोकतंत्र के खिलाफ साजिश

इस पूरे मामले पर विपक्ष का रुख बेहद तीखा है। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव ने आरोप लगाया कि यह पूरी प्रक्रिया एक राजनीतिक साजिश है, ताकि विशेष समुदायों, खासतौर से पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को जानबूझकर वोट देने से रोका जा सके। उन्होंने यहां तक कहा कि “मेरी पत्नी का भी नाम लिस्ट से हट सकता है। आयोग अब केंद्र सरकार की कठपुतली बन गया है।” वहीं, पप्पू यादव ने चुनाव आयोग को ‘RSS का दफ्तर’ करार देते हुए कहा कि इस बार का चुनाव आयोग “सत्ता पक्ष को जिताने का औजार” बन चुका है। उनकी बातों को विपक्ष के अन्य नेताओं का भी समर्थन मिला, जिन्होंने दिल्ली से चल रहे फैसलों पर सवाल उठाए हैं।

सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा मामला: जनता को न्याय की उम्मीद

चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया के खिलाफ अब कानूनी लड़ाई भी शुरू हो गई है। मतदाता सूची की समीक्षा को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है, जिसमें कहा गया है कि यह पूरी प्रक्रिया असंवैधानिक, भेदभावपूर्ण और अलोकतांत्रिक है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि आयोग बिना पर्याप्त सूचना दिए और बिना ज़मीनी सच्चाई को समझे हुए लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर करने की तैयारी में है। सुप्रीम कोर्ट अब तय करेगा कि क्या यह प्रक्रिया जनता के अधिकारों के खिलाफ है या नहीं। यह फैसला न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में चुनावी प्रक्रियाओं की दिशा तय करेगा।

गांव, गरीब और मजदूर सबसे ज्यादा प्रभावित

इस पूरी स्थिति में सबसे ज्यादा नुकसान उन लोगों का हो सकता है जो पहले से ही सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर हैं। मजदूरी करने वाले, खेतिहर किसान, रोज़गार की तलाश में पलायन करने वाले युवक, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले नागरिक और महिलाएं — जिनके पास खुद के नाम से कोई दस्तावेज़ नहीं हैं — इस नई व्यवस्था के तहत ‘अनदेखे नागरिक’ बना दिए जाएंगे। वे वोट देने के हक़दार तो हैं, लेकिन कागज़ों के अभाव में उन्हें लोकतंत्र से बाहर कर दिया जाएगा।

क्या चुनाव आयोग अपनी जवाबदेही निभा रहा है?

चुनाव आयोग का काम निष्पक्ष चुनाव कराना और हर नागरिक को मतदान का अधिकार सुनिश्चित करना है। लेकिन इस बार आयोग की प्रक्रिया पर भारी सवाल उठ रहे हैं। क्या आयोग ने ज़मीनी हकीकत को ध्यान में रखकर यह नियम बनाए? क्या उसने ग्रामीण इलाकों, तकनीकी संसाधनों की कमी, और दस्तावेज़ बनाने में लगने वाले समय को ध्यान में रखा? आयोग भले ही दावा कर रहा हो कि यह पारदर्शी प्रक्रिया है, लेकिन विपक्ष और आम जनता दोनों का भरोसा इससे डगमगाया है।

क्या होनी चाहिए सच्ची प्रक्रिया?

सही तरीका यह होता कि आयोग वोटर पहचान के लिए सरल और व्यापक विकल्प देता — जैसे स्वप्रमाणन, या पंचायत से सत्यापित कागज, या सिर्फ आधार नंबर भी काफी माना जाता। इसके साथ ही, घर-घर जाकर सत्यापन की प्रक्रिया आसान की जा सकती थी। लेकिन जब प्रक्रिया इतनी तकनीकी और जटिल बना दी जाती है कि आम नागरिक समझ ही न सके कि क्या करना है — तब यह लोकतंत्र के साथ अन्याय बन जाता है।

बिहार चुनाव 2025 एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। इस बार चुनाव सिर्फ एक सरकार चुनने का मौका नहीं है, बल्कि यह भी तय करेगा कि क्या भारत में हर नागरिक को वोट देने का बराबरी का हक है या नहीं। आयोग की नीयत पर शक जताया जा रहा है, विपक्ष इसे साजिश बता रहा है, आम जनता उलझन में है और अदालत में सुनवाई बाकी है। ऐसे में यह जरूरी है कि चुनाव आयोग पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ प्रक्रिया को सरल बनाए और सुनिश्चित करे कि हर एक वोटर की आवाज़ सुनी जाए — चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति या इलाक़े से हो। लोकतंत्र में सबसे बड़ा हथियार आपका वोट है, लेकिन पहले यह सुनिश्चित कीजिए कि आपका नाम वोटर लिस्ट में है — क्योंकि वोटर कार्ड न होना अब केवल आपकी गलती नहीं, व्यवस्था की विफलता भी है। 

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