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भारत में महिलाओं के मुद्दे: अधिकार, संघर्ष और आगे का रास्ता

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इंशा रहमान, स्टूडेंट ऑफ लॉ

नई दिल्ली, 31 जुलाई 2025

भारत में महिलाओं की स्थिति आज भी कई विरोधाभासों और परतों में बंधी हुई है। जहां एक ओर भारतीय महिलाएं चंद्रयान में नेतृत्व कर रही हैं, सेना की अग्निवीर बन रही हैं, सुप्रीम कोर्ट की जज बन रही हैं, वहीं दूसरी ओर वे आज भी यौन हिंसा, असमान वेतन, भेदभाव और डिजिटल उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं। भारत में महिला सशक्तिकरण केवल नीतिगत शब्द नहीं रह सकता—यह एक संस्थागत और सामाजिक युद्ध बन चुका है। यह लेख उसी जटिलता और समाधान की तलाश को सामने लाता है।

सुरक्षा: एक अधिकार जो संघर्ष बन गया है

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2024 के आंकड़ों के अनुसार, हर 16 मिनट में एक महिला यौन अपराध की शिकार होती है। इसमें ऑनलाइन ट्रोलिंग, स्टॉकिंग, साइबर ब्लैकमेलिंग, घरेलू हिंसा, और बलात्कार जैसे मामलों में साल दर साल बढ़ोतरी देखी जा रही है। दिल्ली, जो राष्ट्रीय राजधानी है, वह भी “रेप कैपिटल” की छवि से बाहर नहीं निकल पाई है।

तुलनात्मक रूप से देखें तो:

स्वीडन में महिला सुरक्षा के लिए विस्तृत ‘Feminist Foreign Policy’ लागू है, जो अंतरराष्ट्रीय सहायता, सैन्य नीति और व्यापारिक फैसलों में भी लैंगिक न्याय को प्राथमिकता देता है।

कनाडा में ‘Gender-based Analysis Plus (GBA+)’ नामक ढांचा प्रत्येक नीति और कानून में लैंगिक प्रभावों का मूल्यांकन करता है।

इंटरनेट पर सुरक्षा के लिए यूके ने “Online Safety Bill” पास किया है, जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने के लिए कंपनियों की जवाबदेही तय करता है।

भारत में इन उदाहरणों को ध्यान में रखते हुए, महिला सुरक्षा को केवल पुलिस-आधारित नहीं बल्कि समाजशास्त्रीय, डिजिटल और संस्थागत संरचना से जोड़ना होगा।

आर्थिक स्वतंत्रता: अवसर की दरारें, आकांक्षा की दीवारें

विश्व बैंक के अनुसार, भारत में सिर्फ 24% महिलाएं ही औपचारिक कार्यबल में हैं, जो वैश्विक औसत (लगभग 48%) से बहुत कम है।

लैंगिक वेतन अंतर अब भी औसतन 19% है, और महिलाओं को कार्यस्थलों पर प्रमोशन, नेतृत्व की भूमिकाएं और सुरक्षा कम मिलती है। इसके बावजूद, महिलाओं द्वारा संचालित स्वयं सहायता समूह (SHGs), स्टार्टअप्स, और डिजिटल मार्केटिंग प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से एक नई क्रांति पनप रही है।

सरकार द्वारा घोषित “महिला उद्यमिता मंच” और “Stand Up India” योजनाएं कुछ सफल उदाहरण हैं, लेकिन इनका लाभ अब भी सीमित और शहर केंद्रित है।

अंतरराष्ट्रीय अनुभव:

नॉर्वे ने बोर्ड स्तर पर महिलाओं के लिए 40% आरक्षण अनिवार्य किया है।

जर्मनी में 2021 से “Women on Boards Act” के तहत सभी बड़ी कंपनियों को कम-से-कम एक महिला निदेशक नियुक्त करना अनिवार्य है।

भारत को भी कॉर्पोरेट गवर्नेंस और MSME सेक्टर में महिलाओं के लिए अनिवार्य प्रतिनिधित्व पर विचार करना होगा।

राजनीतिक भागीदारी: प्रतिनिधित्व है, प्रभाव नहीं

2023 में पारित महिला आरक्षण विधेयक ऐतिहासिक कदम है, लेकिन इसका प्रभाव 2029 के बाद दिखेगा। इसके बावजूद पंचायत स्तर पर महिलाओं को 50% आरक्षण वर्षों से प्राप्त है, जिससे कई ग्रामीण नेतृत्वकर्ता उभरी हैं। लेकिन समस्या “सरपंच-पति” मानसिकता की है, जहाँ महिला नेताओं को केवल नाममात्र बनाया जाता है और निर्णय पुरुष लेते हैं।

अंतरराष्ट्रीय तुलनाएँ:

रवांडा दुनिया का इकलौता देश है जहाँ संसद में 60% से अधिक सदस्य महिलाएं हैं।

न्यूज़ीलैंड, फिनलैंड और आइसलैंड जैसे देशों ने महिलाओं को रक्षा, अर्थव्यवस्था और आंतरिक मामलों जैसे मंत्रालयों में नेतृत्व दिया है।

भारत में महिलाओं को संसद में भेजने से अधिक ज़रूरी है कि उन्हें नीतिगत निर्णयों में प्रभावी स्थान दिया जाए।

शिक्षा और स्वास्थ्य: आंकड़ों की नहीं, पहुंच की लड़ाई

UNESCO की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 15 से 24 आयु वर्ग की लड़कियों में लगभग 30% शिक्षा बीच में छोड़ देती हैं, जिनमें प्रमुख कारण मासिक धर्म, बाल विवाह, घरेलू काम और स्कूलों में शौचालयों की कमी है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत ने जननी सुरक्षा योजना, POSHAN अभियान, मातृ वंदना योजना जैसे कार्यक्रम चलाए हैं, लेकिन सामाजिक वर्जनाएं और जागरूकता की कमी इनकी पहुँच को सीमित कर देती है।

दुनिया के उदाहरण:

केन्या में “Free Sanitary Napkin Act” के तहत स्कूलों में मुफ्त पैड दिए जाते हैं।

नीदरलैंड में Comprehensive Sexuality Education (CSE) को शिक्षा प्रणाली में अनिवार्य रूप से जोड़ा गया है।

भारत को भी स्वास्थ्य और शिक्षा को सांस्कृतिक चुप्पियों से बाहर लाने की रणनीति बनानी होगी।

कानूनी सुरक्षा बनाम सामाजिक भय

भारत में महिलाओं के लिए दहेज निषेध अधिनियम (1961), POSH एक्ट (2013), घरेलू हिंसा अधिनियम (2005), बाल विवाह निषेध अधिनियम (2006) जैसे मजबूत कानून हैं। लेकिन अभियोजन दर (conviction rate) अब भी चिंताजनक रूप से कम है। महिला शिकायतें अक्सर समाज के डर, पुलिस की असंवेदनशीलता और न्याय में देरी के कारण दर्ज ही नहीं होतीं।

विदेशों में:

फ्रांस में घरेलू हिंसा पीड़िताओं को तुरंत अलग आवास, कानूनी सहायता और मनोवैज्ञानिक सहायता दी जाती है।

ऑस्ट्रेलिया ने कार्यस्थल पर उत्पीड़न रोकने के लिए कंपनियों पर “Proactive Duty of Care” लागू किया है, जिसमें निवारक कदम न लेने पर दंड होता है।

भारत को संवेदनशील पुलिसिंग, फास्ट-ट्रैक अदालतें, और गवाह संरक्षण को मजबूत करना होगा।

डिजिटल दुनिया में महिला: स्वतंत्रता या निगरानी?

भारत में डिजिटल स्पेस महिलाओं के लिए एक अवसर भी है और एक खतरा भी। ऑनलाइन उत्पीड़न, डीपफेक, साइबरस्टॉकिंग और सोशल मीडिया ट्रोलिंग आम हो चुके हैं।

2018 के बाद से साइबर क्राइम की शिकायतों में 83% वृद्धि हुई है, लेकिन महिला सुरक्षा के लिए कोई समर्पित साइबर विधेयक अभी तक नहीं है।

अंतरराष्ट्रीय कानून:

ऑस्ट्रेलिया का e-Safety Commissioner मॉडल

यूरोपीय संघ का “Digital Services Act” जो प्लेटफॉर्म्स को महिलाओं के विरुद्ध कंटेंट पर जवाबदेह बनाता है

भारत में “Cyber Crime Against Women Cells” को पूरे देश में सक्रिय करना और डिजिटल कानूनों में लैंगिक दृष्टिकोण शामिल करना आवश्यक है।

महिला सशक्तिकरण केवल ‘विकास’ नहीं, ‘जरूरत’ है

महिलाओं की सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी को केवल लैंगिक न्याय के दायरे में देखना पर्याप्त नहीं। यह राष्ट्र निर्माण का मूल है। भारत को यह समझना होगा कि महिला केंद्रित विकास नहीं, महिला-नेतृत्वित विकास ज़रूरी है।

महिलाओं को केवल सुरक्षित ही नहीं, सम्मानित, समर्थ और निर्णायक बनाना होगा। और यह बदलाव केवल सरकार या कानून से नहीं, समाज की मानसिकता बदलने से आएगा। तभी भारत उस आकांक्षा को छू पाएगा, जिसका सपना “सबका साथ, सबका विकास और सबका प्रयास” में देखा गया था।

 

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