नई दिल्ली, 5 अगस्त 2025
“बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ” जैसे नारे आज हर गली-मुहल्ले की दीवारों पर रंगीन अक्षरों में दिखते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या नारी के लिए न्याय उतना ही रंगीन है जितना उसका प्रचार? भारत में महिलाओं के लिए दर्जनों कानून हैं—उनकी सुरक्षा, गरिमा, संपत्ति के अधिकार और कार्यस्थल पर सम्मान की रक्षा के लिए—but ground reality आज भी हमें शर्मिंदा करती है। आज भी न्याय के रास्ते पर चलती महिला को सिर्फ अदालत से नहीं, समाज, पुलिस, मीडिया और खुद अपने परिवार से लड़ना पड़ता है।
कानूनों की भरमार, पर अमल में कमजोरी
भारत में महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों से जुड़े 35 से अधिक प्रमुख कानून हैं, जिनमें दहेज निषेध अधिनियम, घरेलू हिंसा अधिनियम, POSH कानून, बाल विवाह निषेध कानून, बलात्कार और यौन उत्पीड़न से जुड़े IPC की धाराएँ शामिल हैं। लेकिन जब कोई महिला इन कानूनों का सहारा लेती है, तो सबसे पहले उसे अपने चरित्र का प्रमाण देना पड़ता है। शिकायतकर्ता महिला से यह अपेक्षा की जाती है कि वह “पूर्ण निर्दोष” हो, “आदर्श महिला” की परिभाषा में फिट हो। यह सोच केवल कानून की भाषा में नहीं, बल्कि पुलिस, वकीलों और यहां तक कि जजों की सोच में भी झलकती है।
बलात्कार मामलों में न्याय प्रणाली की चुनौतियाँ
भारत में बलात्कार के मामलों में सजा की दर 20% से भी कम है। इसका एक बड़ा कारण प्रक्रिया की जटिलता, पुलिस की असंवेदनशीलता और समाज की चुप्पी है। कई बार बलात्कार की पीड़िता पर ही “प्रेम प्रसंग”, “सम्मति”, या “चरित्र” जैसे शब्दों से सवाल उठाए जाते हैं। न्याय का मतलब सिर्फ अपराधी को सजा देना नहीं, बल्कि पीड़िता को पुनः सामाजिक सम्मान दिलाना भी है—जो आज भी दुर्लभ है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि “संवेदनशील मामलों में पीड़िता की पहचान उजागर करना अपराध है,” फिर भी मीडिया की टीआरपी की भूख और सोशल मीडिया की सनसनीखेज़ी इन बातों की धज्जियाँ उड़ाती हैं।
कार्यस्थल पर उत्पीड़न: POSH कानून के बावजूद मौन क्यों?
2013 में बना POSH (Prevention of Sexual Harassment) Act महिलाओं को कार्यस्थलों पर सुरक्षा देता है। लेकिन 2024 की All India Bar Association की रिपोर्ट कहती है कि 70% महिलाएं POSH का सहारा नहीं लेतीं—डर, अपमान, और करियर खत्म होने के डर से। कई बार Internal Complaints Committee महज़ औपचारिकता बनकर रह जाती है। खासकर मीडिया, राजनीति और शिक्षा जगत में पावरफुल पुरुषों के खिलाफ बोलना आज भी एक महिला के लिए “अंतिम फैसला” जैसा हो सकता है।
झूठे मामलों की आड़ में सच्चे संघर्षों को कमज़ोर करना
यह सच है कि कुछ महिलाएं कानून का दुरुपयोग भी करती हैं, लेकिन हर झूठा मामला हजारों सच्चे मामलों को संदेह के घेरे में डाल देता है। झूठे मामलों को प्रमुखता देने की मीडिया प्रवृत्ति समाज की सामूहिक मानसिकता को यह संदेश देती है कि हर शिकायत एक “साज़िश” हो सकती है। यह सोच सच्ची पीड़िताओं को और अकेला कर देती है। ज़रूरत यह है कि न्याय का तराज़ू बराबरी से तोले, ना कि लिंग या “पीड़िता कितनी निर्दोष है”—इस पर निर्भर हो।
न्याय व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका: बदलाव की आस
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स में अब महिला जजों की संख्या बढ़ रही है, जिससे उम्मीद जगी है कि महिलाओं की दृष्टि से कानून को देखने का नजरिया संस्थागत होगा। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना जैसे नाम इस बदलाव की मिसाल हैं। लेकिन यह अभी शुरुआत है। पुलिस थानों, निचली अदालतों, और तहसील स्तर पर भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना न्याय के लोकतंत्रीकरण की दिशा में अनिवार्य है।
महिलाओं के लिए न्याय सिर्फ कोर्ट रूम में नहीं मिलता—उसे हर गली, स्कूल, workplace और घर की दहलीज पर खड़ा होना पड़ता है। भारत को ज़रूरत है एक ऐसी न्याय प्रणाली की, जो संवेदनशील हो, जवाबदेह हो और निष्पक्ष हो। जब तक हर महिला यह महसूस न करे कि “कानून उसकी ढाल है, उसका बोझ नहीं”—तब तक कानून केवल किताबों में रहेंगे, इंसाफ नहीं बनेंगे।