भ्रष्टाचारी प्रशासन, सुरक्षा की कमी या मानसिकता की समस्या है? संबंधों में भेदभाव और समाज की असमान सोच पर बड़ी पड़ताल
विशेष रिपोर्ट 29 अक्टूबर 2025
भारत आज चाँद पर पहुंच चुका है, डिजिटल अर्थव्यवस्था बना चुका है, और महिला वैज्ञानिकों से लेकर महिला पायलटों तक हर क्षेत्र में नारी-शक्ति की गूंज सुनाई दे रही है। फिर भी, हमारे शहरों की सड़कों, पार्कों, बाजारों और सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं की उपस्थिति आज भी नाममात्र है। यह एक विचित्र विरोधाभास है — प्रगति के बीच छिपी पिछड़ेपन की छाया। सवाल यह है कि इसका कारण क्या है? क्या यह भ्रष्टाचारी और लापरवाह प्रशासन की असफलता है, जो महिलाओं को सुरक्षा का भरोसा नहीं दे पा रहा? क्या यह सामाजिक मानसिकता का दोष है, जिसने आज भी महिलाओं को घर की चारदीवारी में सीमित कर रखा है? या फिर यह उन संबंधों का भेदभाव है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को “मर्यादा” के नाम पर बंधनों में जकड़े हुए हैं?
दक्षिण एशिया, विशेषकर भारत में, महिलाएं आज भी सार्वजनिक स्थानों पर सहज उपस्थिति दर्ज नहीं करा पा रही हैं। लगभग 40 प्रतिशत भारतीय महिलाएं अपने ही शहरों में खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं — यह आंकड़ा न केवल भयावह है, बल्कि यह हमारी प्रशासनिक असफलता और सामाजिक उदासीनता दोनों का प्रमाण है। रात में सड़क पर चलने, मेट्रो या बस में सफर करने, या किसी पार्क में देर शाम बैठने का उनका डर, यह बताता है कि “आजादी” का अर्थ महिलाओं के लिए अब भी सीमित है। 18 से 24 वर्ष की युवतियाँ, जो देश का सबसे ऊर्जावान वर्ग मानी जाती हैं, खुद को सबसे ज्यादा असुरक्षित महसूस करती हैं — यह समाज की दिशा पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है।
सुरक्षा की कमी के साथ-साथ इस समस्या की जड़ हमारे सामाजिक संस्कारों में भी गहराई तक पैठी है। भारतीय समाज में महिलाओं को आज भी घर और परिवार से जोड़ा जाता है, जबकि पुरुषों को सड़कों और सार्वजनिक जीवन का स्वाभाविक हिस्सा माना जाता है। यही कारण है कि किसी महिला का रात में सड़क पर अकेले चलना या किसी ढाबे पर बैठना आज भी समाज की निगाहों में “अनुचित” समझा जाता है। यह सोच न केवल महिलाओं की आज़ादी को सीमित करती है बल्कि समाज की सामूहिक चेतना को भी कमजोर करती है। यह “दृश्य उपस्थिति का भेदभाव” है — जहाँ महिला की मौजूदगी असामान्य और पुरुष की उपस्थिति सामान्य मानी जाती है।
शहरों का ढांचा और प्रशासनिक प्रणाली भी इस असमानता को और गहरा करती है। सड़कें, बस स्टॉप, सार्वजनिक शौचालय, बाजार, पार्क — ये सभी स्थान पुरुष-केंद्रित सोच से बने हैं। महिलाओं के लिए सुरक्षा, प्रकाश, निगरानी या सुविधा का अभाव है। कई शहरों में स्ट्रीट लाइटें बंद रहती हैं, पुलिस गश्त सीमित होती है, और शिकायत की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि महिलाएं न्याय की उम्मीद ही छोड़ देती हैं। प्रशासनिक भ्रष्टाचार और जिम्मेदारी से बचने की प्रवृत्ति ने महिलाओं को “सावधान रहने” का भार अकेले उनके कंधों पर डाल दिया है। परिणामस्वरूप, महिलाएं अपने सार्वजनिक जीवन को न्यूनतम कर देती हैं — घर से नौकरी, नौकरी से घर — और सामाजिक जीवन उनके लिए विलासिता बन जाता है।
यह भी सच है कि संबंधों और सामाजिक भूमिकाओं में भेदभाव ने महिलाओं की स्वतंत्रता को गहराई से प्रभावित किया है। पिता, भाई, पति और बेटों के साये में महिलाओं के हर कदम का माप होता है — “कहाँ जा रही हो”, “क्यों जा रही हो”, “किसके साथ जा रही हो” — यह सवाल सिर्फ महिलाओं से पूछे जाते हैं। जबकि यही प्रश्न पुरुषों से कभी नहीं किए जाते। यह असमानता केवल व्यवहार में नहीं, बल्कि भावनात्मक और मानसिक स्तर पर भी मौजूद है। समाज ने महिलाओं की स्वतंत्रता को “इजाजत” का विषय बना दिया है, और यही कारण है कि वे सार्वजनिक स्थानों पर आत्मविश्वास के साथ नहीं दिख पातीं।
फिर भी, उम्मीद की किरणें दिख रही हैं। दिल्ली, मुंबई, जयपुर, पटना और हैदराबाद जैसे शहरों में महिलाएं “Reclaim the Night”, “Girls at Dhabas” और “Take Back the Street” जैसे अभियानों से यह संदेश दे रही हैं कि सड़कें, पार्क और चौक किसी एक लिंग के लिए नहीं हैं। महिलाएं अब रात में साइकिल चला रही हैं, ढाबों पर बैठकर चाय पी रही हैं, और खुले में बातचीत कर रही हैं। यह सिर्फ विरोध नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया है — जिसमें महिलाएं यह साबित कर रही हैं कि सार्वजनिक स्थान उनका भी उतना ही अधिकार है जितना पुरुषों का।
जरूरत है कि सरकार, समाज और प्रशासन तीनों अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाएं। शहरों की डिजाइन जेंडर-सेंसिटिव होनी चाहिए, सड़कों पर पर्याप्त रोशनी और कैमरों की व्यवस्था अनिवार्य होनी चाहिए। हर बस स्टॉप और सार्वजनिक स्थल पर महिलाओं के लिए सुरक्षित इंतज़ार स्थलों की व्यवस्था हो। महिला हेल्पलाइन केवल औपचारिकता न हो, बल्कि तत्काल कार्रवाई का भरोसा दिलाने वाली व्यवस्था बने। स्कूलों और कॉलेजों में यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि महिला की उपस्थिति किसी जगह को असामान्य नहीं बनाती — बल्कि वह किसी भी जगह की वास्तविकता को पूरा करती है।
यह सवाल प्रशासन या सुरक्षा तक सीमित नहीं है — यह सवाल स्वतंत्रता की असली परिभाषा का है। जब तक एक महिला रात में बिना डर के सड़क पर चल नहीं सकती, जब तक वह किसी सार्वजनिक स्थल पर बिना झिझक बैठ नहीं सकती, तब तक बराबरी का दावा अधूरा रहेगा। महिलाओं की सार्वजनिक उपस्थिति किसी शहर की आधुनिकता का पैमाना है, और जब तक यह पैमाना झुका रहेगा, तब तक भारत की आज़ादी और विकास दोनों अधूरे ही कहलाएंगे।





