Home » National » बीजेपी जिसको जोड़ती है, उसी को खा जाती है — अगला नंबर 2 बाबुओं का है?

बीजेपी जिसको जोड़ती है, उसी को खा जाती है — अगला नंबर 2 बाबुओं का है?

Facebook
WhatsApp
X
Telegram

नई दिल्ली, 20 अक्टूबर 2025 

राजनीति के गलियारों में एक पुरानी लेकिन असरदार कहानी बार-बार दोहराई जा रही है: उस दल को सहयोग दे कर बड़ा किया जाता है — और फिर मौका मिलते ही उसी में दरार डाल कर सत्ता हथिया ली जाती है। यह अध्याय अब तक शिवसेना, राकांपा, बीजेडी, बीएसपी और अकाली दल जैसे कई नामी दलों के साथ दर्ज हो चुका है — और विश्लेषक आगाह कर रहे हैं कि अगली बारी बिहार-आंध्र और “2 बाबुओं” यानी नीतीश कुमार और एन. चन्द्रबाबू नायडू की पार्टियों की हो सकती है। 

वही पुरानी चाणक्यनीति: दोस्त बनाकर काट देना

राजनीतिक इतिहास बताता है कि गठबंधन और मुलाक़ातें कभी-कभार दीवारों के आगे की चालें होती हैं। 2019–22 के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में देखे गए घटनाक्रम — जहां शिवसेना के भीतर विद्रोह ने पार्टी को आधा-दो-टुकड़े कर दिया — इसकी ताज़ा मिसाल है। इस घटनाक्रम ने न केवल सत्ता का समीकरण बदल दिया बल्कि राजनीतिक विश्वासघात की वह छवि भी कायम कर दी जो आज विपक्षी दलों को सताती रहती है। 

पृथक्करण के ताज़ा उदाहरण: नायकों से विद्रोह तक

  1. बीजेपी ने महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे बड़ा दांव उस समय चला जब उसने उद्धव ठाकरे के खिलाफ एकनाथ शिंदे को खड़ा कर दिया। सत्ता की कुर्सी बचाने की लड़ाई में शिवसेना दो हिस्सों में बंट गई — एक तरफ उद्धव की “ठाकरे सेना” और दूसरी तरफ शिंदे की “बालासाहेबची शिवसेना”। यह विभाजन सिर्फ पार्टी का नहीं, बल्कि महाराष्ट्र की राजनीति और भावनाओं का भी दो टुकड़ा कर गया।

  2. बीजेपी ने शरद पवार से अजीत पवार को अलग कर एनसीपी को दो हिस्सों में बांट दिया। 2023–25 के दौरान हुए इस विभाजन ने साफ दिखा दिया कि सत्ता की लालसा और राजनीतिक स्वार्थ कैसे एक मज़बूत पार्टी को भी भीतर से तोड़ सकते हैं।
  1. ओडिशा की बीजेडी ने लंबे समय तक राष्ट्रीय दलों के साथ सरकार बनाई, पर 2009 के बाद उसने NDA से दूरी बना कर अपनी अलग राह चुनी — यह भी दिखाता है कि गठबंधन अस्थायी और अवसरवादी हो सकता है। एक तरह से बीजेपी ने पटनायक की पार्टी खत्म कर दी।
  1. बीएसपी की हालत और उसकी वोट-बेस में गिरावट ने भी राजनीतिक चौतरफा चालों और रणनीतियों का फायदा उठाने वालों को सबक दिया है — जिसका लाभ अक्सर राष्ट्रीय दलों को मिला। 

उपरोक्त घटनाओं में एक समान पैटर्न दिखता है: “जो थाली में खाया, उसी में छेद”

  1. किसी क्षेत्रीय दल को सत्ता के समीकरण में शामिल कर उसका उपयोग किया जाता है।
  1. जब मौक़ा और गणित बनने लगते हैं, तो भीतर से दरार डालकर वही दल कमजोर कर दिया जाता है।
  1. परिणाम: क्षेत्रीय नेतृत्व छिनता है, वोट-बेस बिखरता है, और सत्ता पर बड़ा दल दांव जीत जाता है।

आमरिका से लेकर लोकल स्तर तक इस रणनीति को ‘divide and rule’ का आधुनिक संस्करण कहा जा सकता है — जो भारत की राजनीति में लंबे समय से प्रयोग हो रहा है।

क्या नीतीश — चंद्रबाबू की बारी है?

विश्लेषक मानते हैं कि बिहार और आंध्र के स्थानीय समीकरण — अख्तियार, गुट और रिश्तों की जटिलता — ऐसे प्रयोगों के लिए संवेदनशील हैं। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू दोनों की परिपक्व राजनीतिक पृष्ठभूमि और शक्तिशाली स्थानीय मशीनरी है, पर गठबंधन-राजनीति में भरोसा और वफादारी हमेशा स्थायी नहीं रहे। इसी लिहाज़ से कहा जा रहा है कि इन पार्टियों को भी ‘फूट’ और ‘टुकड़े’ की संभावनाओं से आज सावधान रहना चाहिए — वरना इतिहास की तरह परिदृश्य इनके लिए भी कठिन बन सकता है। (उपरोक्त विश्लेषण हालिया राजनीतिक घटनाक्रम और गठबंधन-इतिहास पर आधारित है)। 

क्या यह सिर्फ राजनीति है — या गद्दारी?

लेख में इस्तेमाल किए गए कई उदाहरण बताते हैं कि सत्ता के खेल में वफादारी की जगह अवसरवाद ने ले ली है। यूँ तो गठबंधन लोकतांत्रिक मण्डल हैं, पर अगर उन्हें किसी रणनीतिक ‘गद्दारी’ के रूप में प्रयोग कर सत्ता हथियाने का जरिया बनाया जाए, तो लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर सवाल उठते हैं। आपके शब्दों में — “गद्दार हर हाल में गद्दार रहेगा” — यही भय और नाराज़गी प्रतिबिंबित होती है।

राजनीतिक इतिहास और हालिया घटनाएँ बताती हैं कि छोटे-छोटे दल और स्थानीय नेतृत्व को बड़े गठबंधनों में अपनी जागरूकता बढ़ानी होगी — नहीं तो वही पुराना पाठ दोहराया जा सकता है: जो जोड़ते हैं, वही तोड़ भी देते हैं। और लोकतंत्र में इसे केवल राजनीतिक चाल कहा जाना चुनौतीपूर्ण है — यह एक नैतिक और राष्ट्रीय सवाल भी बन जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *