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जब इंसानियत की कब्र बन गई ज़मीन

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गाज़ा 11 अक्टूबर 2025

1948 से अब तक — जब एक देश का नक्शा दूसरे की लाशों पर बढ़ता गया

सन् 1948 की वह विडम्बनापूर्ण कहानी आज भी गाज़ा की हर ईंट और हर कब्र में गूंजती है, जब संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव ने फिलिस्तीन की प्राचीन भूमि को दो हिस्सों में बाँट दिया था — एक हिस्सा यहूदी राज्य के लिए और दूसरा अरब राज्य के लिए। उस समय, फिलिस्तीन का क्षेत्रफल लगभग उतना ही विशाल था जितना आज का इज़रायल, लेकिन उसके बाद शुरू हुआ विस्तारवादी नीति का निर्मम सिलसिला जिसने एक देश के नक्शे को दूसरे की लाशों पर बढ़ता हुआ दिखाया। सैन्य कब्ज़ों, अतिक्रमणों, और लगातार घेराबंदी ने फिलिस्तीनी धरती को टुकड़ों में इस तरह बाँटा कि आज वह महज़ भूगोल नहीं, बल्कि खून और राख का एक जलता हुआ भूखंड बन गया है — जहाँ ज़िंदगियाँ नहीं, बल्कि युद्ध अपराधों के भयावह आँकड़े गिनती में बदल गए हैं। 

इज़रायल, जो कभी दुनिया से अपनी सुरक्षा की माँग लेकर अस्तित्व में आया था, आज खुद अमानवता और निर्दयता का सबसे बड़ा प्रतीक बन गया है। टैंकों, विनाशकारी बमों और अत्याधुनिक मिसाइलों की अंधाधुंध शक्ति के बीच उसने सिर्फ़ फिलिस्तीनियों के घर ही नहीं तोड़े — उसने अंतरराष्ट्रीय कानून और समूची इंसानियत की नींव को हिलाकर रख दिया है। विशेष रूप से, अमेरिकी हथियारों की लगातार आपूर्ति ने इज़रायल के हाथों को और भी खूनी बना दिया है, और परिणाम यह है कि गाज़ा की गलियाँ आज मलबे, शोक और ध्वस्त सपनों का एक विशाल म्यूजियम बन चुकी हैं, जहाँ जीवन की हर आशा दम तोड़ चुकी है।

 गाज़ा — जहाँ हर ईंट के नीचे एक मासूम लाश दब गई है

पिछले कई महीनों की अमानवीय और निरंतर बमबारी ने गाज़ा को एक जीवित शहर से बदलकर एक सामूहिक कब्रिस्तान में तब्दील कर दिया है। हजारों मासूम बच्चे, जिनके हाथों में भविष्य की पुस्तकें और खिलौने होने चाहिए थे, वे आज इज़रायली टैंकों द्वारा ध्वस्त किए गए कंक्रीट के मलबे के नीचे दफ़न हैं। वे वृद्धजन, जो जीवन के अंतिम पड़ाव पर दुआओं में केवल शांति और अपने घर की सलामती माँगते थे, आज उन्हीं की क्षत-विक्षत लाशों से “आत्मरक्षा” के निर्मम दावे किए जा रहे हैं। 

वे माएँ, जिन्होंने अपने कलेजे के टुकड़ों को कड़ी मशक्कत से पाला था, अब उनकी एकमात्र नियति अपने बच्चों के शवों को पहचानने की अकल्पनीय पीड़ा से गुज़रना बन गई है। इज़रायल बार-बार विश्व पटल पर “यह आत्मरक्षा है” का खोखला नारा लगाता है, लेकिन यह सवाल विश्व समुदाय की अंतरात्मा को झकझोरता है: इज़रायल किससे डरता है? क्या वह उन निहत्थे, डरे हुए बच्चों से डरता है जो महीनों से स्कूल नहीं जा पाए? क्या वह उन बेसहारा औरतों से डरता है जो बिना बिजली और पानी के अमानवीय शिविरों में जी रही हैं? या क्या वह उन बुज़ुर्गों से भयभीत है जो केवल अपनी पैतृक भूमि पर शांति से मरना चाहते हैं? यह तथाकथित “आत्मरक्षा” नहीं, बल्कि निरीहता और लाचारी पर एक ताकतवर का नग्न वार है।

अमेरिका की भूमिका — हथियार बेचने की भूख में जलती मासूमियत

इस वीभत्स त्रासदी की एक और घिनौनी और लंबी परछाई है — वह है तथाकथित विश्व महाशक्ति, अमेरिका की भूमिका। यह वही अमेरिका है जो हर वैश्विक मंच पर बड़े-बड़े अक्षरों में “लोकतंत्र” और “मानवाधिकार” का पाखंडी ढोल पीटता है, लेकिन यही देश इज़रायल को हर साल अरबों डॉलर के अति-घातक और उन्नत हथियार बिना किसी शर्त के दान करता है। अमेरिकी नेतृत्व इस सच्चाई से पूरी तरह वाकिफ़ है कि उन हथियारों से बने बम कौन तैयार करता है, और सबसे महत्वपूर्ण, वह जानता है कि वे बम किस निर्दोष आबादी पर गिरते हैं — फिर भी उसका प्राथमिक मकसद “विश्व शांति” नहीं, बल्कि हथियारों की बिक्री और भू-राजनीतिक प्रभुत्व की स्वार्थी राजनीति है।

 चाहे राष्ट्रपति के पद पर ट्रम्प बैठा हो या बाइडन, अमेरिकी नीतियों की आत्मा एक ही रही है: “पहले भीषण हमले करो, फिर भारी मात्रा में हथियार दो, और अंत में दिखावे के लिए एक शांति सम्मेलन बुलाओ।” गाज़ा में हो रही हर एक निर्दोष मौत का सौदा उसी व्हाइट हाउस से शुरू होता है, जहाँ हर साल इज़रायल के लिए नई “सैन्य सहायता योजना” की घोषणा की जाती है, जो मानवता को रौंदने के लिए एक अनकहा लाइसेंस बन जाती है।

दुनिया की चुप्पी — और मरती हुई मानवता की चीख़

अंतरराष्ट्रीय मंच पर दुनिया की प्रतिक्रिया इससे ज़्यादा शर्मनाक और निराशाजनक नहीं हो सकती। संयुक्त राष्ट्र ने केवल “गहरी चिंता” व्यक्त की; यूरोप के राष्ट्रों ने “गहन संवेदना” देने की रस्म निभाई; और भारत समेत कई बड़े देशों ने केवल “शांति की अपील” की — लेकिन गाज़ा में बमबारी एक पल के लिए भी नहीं रुकी। 

जिन ध्वस्त गलियों में आज भी धुआँ और बारूद की बू के गुबार उठ रहे हैं, वहाँ कोई सक्रिय “मानवाधिकार संगठन” नहीं, बल्कि केवल मलबे में दबे हुए बेबस शव हैं। दुनिया की यह बड़ी, बहरी चुप्पी आज के दौर का सबसे बड़ा नैतिक और राजनीतिक अपराध है। जब किसी छोटे से बच्चे की लाश पर धिक्कार की राख उड़ती है, और दुनिया के तथाकथित नेता प्रेस कॉन्फ्रेंस में आकर इस नरसंहार को छिपाने के लिए “संतुलन बनाए रखने” की बात करते हैं — तो यह नंगा सच साबित हो जाता है कि सभ्यता अब केवल किताबों और शब्दकोशों में ही बची है, वह ज़मीन पर कहीं मौजूद नहीं है। गाज़ा की पीड़ा विश्व की मृत अंतरात्मा का प्रमाण है।

फिलिस्तीन की लड़ाई — अब इंसानियत की निर्णायक लड़ाई है

यह संघर्ष अब केवल धर्मों के बीच का या सीमाओं के निर्धारण का संकीर्ण मामला नहीं रह गया है — यह संघर्ष इंसानियत और निर्मम अत्याचार के बीच का एक निर्णायक युद्ध बन चुका है। फिलिस्तीन की वह पावन धरती अब केवल अरबों की नहीं रही; वह हर उस इंसान की है जो न्याय और मानवीय मूल्यों में अटूट विश्वास रखता है। जो यह मानता है कि किसी भी युद्ध का सबसे पहला और सबसे पवित्र शिकार केवल सच्चाई और निर्दोषता होती है। गाज़ा का हर अनाथ बच्चा अब सिर्फ़ एक फिलिस्तीनी नहीं है, वह आज मानवता का सार्वभौमिक प्रतीक बन गया है — जो दुनिया को यह सख़्त चेतावनी दे रहा है कि “कभी-कभी जो युद्ध जीतते हैं, इतिहास उन्हें ही सबसे बड़ा और अक्षम्य अपराधी करार देता है।” यह पुकार किसी राहत सामग्री की नहीं है, यह न्याय की पुकार है, जिसे अब और अधिक अनसुना नहीं किया जा सकता। 

 अब जवाब चाहिए 

आज सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह नहीं है कि इज़रायल और गाज़ा के बीच युद्ध कब रुकेगा —असली सवाल तो यह है कि कितने और बच्चों की मौत के बाद यह तथाकथित सभ्य दुनिया अपनी चुप्पी तोड़ेगी? कितनी और माताओं की गोदें उजड़ेंगी, कितने और घर ढहेंगे तब जाकर हम सब एक साथ खड़े होकर कहेंगे कि “अब काफ़ी हो चुका है”? इज़रायल के टैंकों ने गाज़ा के भौतिक भूगोल को शायद मिटा दिया हो, लेकिन फिलिस्तीन की आत्मा अब भी टूटी नहीं है। हर टूटे घर से, हर भयभीत बच्चे की आँख से, हर शहीद के लहू से वही मार्मिक और सशक्त आवाज़ आ रही है, “हम ज़िंदा हैं, क्योंकि हम निर्दोष हैं और हमारी धरती हमारी है।”

 

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