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राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ के आरोप हमारे लोकतंत्र के बारे में क्या उजागर करते हैं?

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लेखक : पवन खेड़ा (अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मीडिया और प्रचार विभाग के अध्यक्ष)

नई दिल्ली 10 अगस्त 2025

अगर रेफरी तटस्थ न हो, तो खेल कभी निष्पक्ष नहीं हो सकता — और अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष न हो, तो लोकतंत्र ही समाप्त हो जाएगा।

7 अगस्त को राहुल गांधी ने बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में “वोट चोरी” के आरोपों को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस की। कांग्रेस की रिसर्च टीम द्वारा किए गए गहन और स्वतंत्र विश्लेषण में यह तथ्य सामने आया कि इस क्षेत्र में 1,00,250 फर्जी वोट डाले गए, और यह कथित रूप से भाजपा व चुनाव आयोग की मिलीभगत से हुआ, ताकि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत सुनिश्चित हो सके। यह कोई मामूली प्रशासनिक गलती नहीं थी, बल्कि सुनियोजित, व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से मतदाता सूची में हेरफेर का एक बड़ा उदाहरण था।

टीम के विश्लेषण में पाया गया कि मतदाता सूचियों में बड़ी संख्या में ऐसे नाम दर्ज थे जिनके पते “घर नंबर 0” जैसे असंभव पते थे। कुछ स्थानों पर 80 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को 18 वर्ष के पहले बार वोट देने वाले मतदाताओं की श्रेणी में डाल दिया गया था। शराब की भठ्ठियों, गोदामों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर हजारों की संख्या में काल्पनिक निवासी दर्ज थे। मतदाता सूची में कई मतदाताओं की तस्वीरें धुंधली, गायब या पूरी तरह से पहचानने योग्य नहीं थीं। कुछ लोग एक ही समय में कई बूथों पर दर्ज पाए गए, और कुछ मामलों में तो वे अलग-अलग राज्यों में भी पंजीकृत थे, जिससे उन्हें कई बार मतदान करने का अवसर मिला। यह सब चुनावी ईमानदारी के लिए गंभीर खतरा है।

राहुल गांधी और पवन खेड़ा का तर्क है कि जैसे किसी खेल में रेफरी का निष्पक्ष होना अनिवार्य है, वैसे ही चुनाव में चुनाव आयोग का निष्पक्ष होना लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। यदि चुनाव आयोग की निष्पक्षता संदेह के घेरे में आ जाए, तो लोकतंत्र केवल नाम मात्र का रह जाएगा। महादेवपुरा की यह घटना केवल एक क्षेत्र की समस्या है या देशभर में फैली एक व्यापक बीमारी — इस सवाल का जवाब खोजने के लिए एकमात्र रास्ता यह है कि पूरे देश में डिजिटल और मशीन-पठनीय मतदाता सूचियों का ऑडिट कराया जाए। इससे किसी भी राजनीतिक प्रेरणा से मुक्त कंप्यूटर आधारित प्रणाली के माध्यम से सभी निर्वाचन क्षेत्रों का सत्यापन हो सकेगा। यह न केवल चुनाव आयोग की साख को बढ़ाएगा बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा की भी विश्वसनीयता को मजबूत करेगा।

लेकिन, पवन खेड़ा के अनुसार, चुनाव आयोग इस मांग को पूरा करने के बजाय पारदर्शिता को बाधित कर रहा है। आयोग बूथों के सीसीटीवी फुटेज को नष्ट कर देता है और डिजिटल मतदाता सूची जारी करने से इनकार करता है। वे केवल मोटी कागज की फाइलें उपलब्ध कराते हैं जिन्हें स्कैन करने पर भी OCR तकनीक से पढ़ना लगभग असंभव होता है। ऐसा स्वरूप जानबूझकर इस तरह से तैयार किया गया है कि स्वतंत्र और व्यवस्थित जांच न हो सके। महादेवपुरा जैसे सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र की मतदाता सूची का मैनुअल, लाइन-बाय-लाइन विश्लेषण करने में कांग्रेस टीम को छह महीने और हजारों मानव-घंटों का समय लगा — और परिणाम में लाखों नकली वोटों के सबूत मिले।

इस मुद्दे की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब चुनावी प्रक्रिया के निरीक्षण का अधिकार केवल “दर्शक दीर्घा” तक सीमित कर दिया जाता है, तो लोकतंत्र की जगह सिर्फ एक बंद और छिपा हुआ स्कोरबोर्ड रह जाता है — जिसमें जनता झांक तक नहीं सकती। विपक्ष के इस आरोप पर भाजपा और चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया यही रही कि इसे खारिज किया जाए, जांच को टाल दिया जाए और मीडिया व सोशल मीडिया में विपक्ष को बदनाम करने का अभियान चलाया जाए।

खेड़ा का मानना है कि यह संघर्ष केवल कांग्रेस का नहीं, बल्कि हर उस नागरिक का है जो भारत के लोकतंत्र को वास्तविक और पारदर्शी देखना चाहता है। यह एक “लोकतंत्र की सत्यता की परीक्षा” है, जिसमें पत्रकार, तकनीकी विशेषज्ञ, नागरिक संगठन और आम मतदाता सभी की भागीदारी जरूरी है। बिना सत्यापन और पारदर्शिता के वोट केवल एक दिखावा बनकर रह जाएगा। असली लोकतंत्र वही है जिसमें हर नागरिक की आवाज खुलकर गूँज सके और चुनावी प्रक्रिया पर जनता का भरोसा अक्षुण्ण रह सके।

(अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस के लिए पवन खेड़ा का लिखा लेख)

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