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West Media vs भ्रष्ट मीडिया: अमेरिका में ‘No King’ आंदोलन की गूंज, भारत में सब “चंगा सी”

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नई दिल्ली, 19 अक्टूबर 2025 

दो देशों की कहानी, एक ही सवाल: लोकतंत्र जिंदा है या सिर्फ ज़िंदा दिखाया जा रहा है? अमेरिका की सड़कों पर जनता ‘No King’ आंदोलन के तहत सत्ता से टकराने के लिए लाखों की संख्या में उमड़ पड़ी है, जबकि भारत में सत्ता की नीतियों से तंग जनता की आवाज़ गोदी मीडिया के शोर में दब गई है। यह मुकाबला सिर्फ दो देशों का नहीं, बल्कि सच बोलने वाले मीडिया बनाम झुक जाने वाले मीडिया का है।

अमेरिका की सड़कों पर लोकतंत्र की गरज: “No King, Only Constitution”

अमेरिका के इतिहास में यह दौर अभूतपूर्व है — 70 लाख से ज़्यादा लोग राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की कथित तानाशाही प्रवृत्तियों के खिलाफ सड़कों पर उतर चुके हैं। न्यूयॉर्क से लेकर लॉस एंजिल्स तक, “No to Dictatorship, Yes to Democracy” के नारे रात-दिन गूंज रहे हैं। लोग संविधान को बचाने के लिए अपने घरों से निकल पड़े हैं।अमेरिकी मीडिया न सिर्फ इन प्रदर्शनों की कवरेज कर रहा है, बल्कि सत्ताधारी वर्ग से तीखे सवाल भी पूछ रहा है। CNN, BBC और The Washington Post जैसे बड़े चैनल सरकार के दबाव से बेखौफ, जनभावनाओं की आवाज़ बन गए हैं। वहां प्रेस अभी भी “फोर्थ पिलर” कहलाने लायक है — जो सत्ता की नहीं, जनता की वकालत करता है।

भारत में आंदोलनों पर सन्नाटा: गोदी मीडिया के स्क्रीन पर सब ‘चंगा सी’

अब ज़रा भारत की तरफ देखिए — यहाँ लद्दाख, असम, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे इलाकों में जनता महीनों से सरकार की नीतियों के खिलाफ आंदोलित है। लद्दाख के लोग अपने राज्य का दर्जा और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ठंड में सड़कों पर बैठे हैं; असम में NRC और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विरोध हो रहा है; झारखंड में आदिवासी समुदाय विस्थापन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं; और महाराष्ट्र में आरक्षण और बेरोज़गारी को लेकर गुस्सा उबाल पर है। लेकिन दिल्ली-मुंबई के बड़े चैनलों पर क्या दिखता है? धार्मिक विवाद, फिल्मी गॉसिप, विपक्षी नेताओं पर हमले और प्रधानमंत्री की रैली का लाइव कवरेज।

जनता पूछ रही है — “क्या मीडिया अब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं, सत्ता का चतुर्थ सेवक बन गया है?”

जब मीडिया झुकता है, तो लोकतंत्र गिरता है

लोकतंत्र की असली पहचान सवालों में होती है, लेकिन जब सवाल पूछने वाला मीडिया ही सत्ता की गोद में बैठ जाए, तो तानाशाही का जन्म स्वतः हो जाता है। यही आज भारत की सबसे बड़ी त्रासदी है — यहाँ अब पत्रकारिता नहीं, प्रचार तंत्र चल रहा है। जो पत्रकार गरीब की कहानी दिखाए, उसे “एंटी-नेशनल” कहा जाता है; जो सरकार से जवाब मांगे, उसके घर पर टैक्स छापे पड़ते हैं। राजनीतिक विश्लेषक इसे “लोकतांत्रिक तानाशाही” कहते हैं — जहाँ चुनाव तो होते हैं, पर सवाल मर चुके होते हैं। सत्ताधारी खुश रहते हैं क्योंकि मीडिया ने अपनी आत्मा बेच दी है।

अमेरिका बनाम भारत: फर्क सिर्फ डर का नहीं, ज़मीर का है

अमेरिका में प्रेस जनता की आँख बनकर शासन पर निगरानी रखता है — वहाँ पत्रकार जेल नहीं, संसद के सामने खड़ा होता है। लेकिन भारत में वही प्रेस सत्ता का प्रवक्ता बन चुका है — जो जनता के दर्द पर पर्दा डालता है और “सब चंगा सी” का भ्रम फैलाता है। जब मीडिया सवाल छोड़ देता है, तब लोकतंत्र सांस छोड़ देता है। और आज भारत की मीडिया व्यवस्था ठीक वैसी ही लग रही है — जिंदा, पर ज़मीर से खाली।

सत्ता की तानाशाही नहीं, मीडिया की चुप्पी असली खतरा है

अमेरिका की सड़कों पर लोग लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ रहे हैं — और वहाँ का मीडिया जनता के साथ है। लेकिन भारत में जनता अकेली है, क्योंकि उसका मीडिया बिक चुका है। यह अंतर सिर्फ देशों का नहीं, हिम्मत और ज़मीर का अंतर है। तानाशाही सिर्फ शासन से नहीं, मीडिया की चुप्पी से भी पनपती है। और भारत में अब यह चुप्पी इतनी गहरी है कि सच्चाई भी चीख़े — तो चैनल उसे “एंटी-इंडिया” कहकर म्यूट कर देते हैं।

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