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‘Watershed’: सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौता और बदलते भू-राजनीतिक समीकरण

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ऐतिहासिक समझौते की घोषणा

रियाद और इस्लामाबाद ने जिस Strategic Mutual Defence Agreement (SMDA) पर हस्ताक्षर किए, उसे एक watershed moment कहा जा रहा है। इस समझौते का सबसे बड़ा बिंदु यह है कि यदि किसी भी बाहरी ताक़त ने पाकिस्तान या सऊदी अरब पर हमला किया तो उसे दोनों देशों के ख़िलाफ़ हमला माना जाएगा और वे संयुक्त रूप से जवाब देंगे। यह बयान न केवल दोनों देशों की सैन्य एकजुटता का प्रतीक है, बल्कि आने वाले समय में क्षेत्रीय राजनीति की नई तस्वीर भी पेश करता है।

समझौते के पीछे का राजनीतिक और रणनीतिक परिप्रेक्ष्य

यह डील ऐसे समय पर हुई है जब खाड़ी देशों का पारंपरिक सुरक्षा गारंटर माना जाने वाला अमेरिका लगातार सवालों के घेरे में है। गाज़ा युद्ध और हाल ही में दोहा (कतर) पर हमले ने खाड़ी देशों की सुरक्षा चिंताओं को और गहरा कर दिया है। सऊदी अरब, जो लंबे समय से अमेरिका की सुरक्षा गारंटी पर निर्भर था, अब वैकल्पिक साझेदारियों की तलाश कर रहा है। पाकिस्तान, अपनी परमाणु क्षमता और मजबूत सैन्य ढांचे के कारण, सऊदी के लिए सबसे उपयुक्त साझेदार के रूप में उभरा है।

सैन्य सहयोग का विस्तार

इस समझौते से दोनों देशों के बीच पहले से चल रहे सुरक्षा सहयोग को औपचारिकता मिल गई है। अब यह केवल बयानों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसमें संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण, रक्षा उत्पादन और सैनिकों की तैनाती भी शामिल होगी। पाकिस्तान के सैनिकों की संभावित तैनाती सऊदी अरब में न केवल सऊदी सुरक्षा के लिए उपयोगी होगी, बल्कि पूरे खाड़ी क्षेत्र में शक्ति संतुलन को बदलने वाली होगी। विशेषज्ञों का मानना है कि यह डील एक तरह का जॉइंट डिटेरेंस (साझा निवारक क्षमता) बनाएगी, जिससे विरोधियों को किसी भी आक्रामक कदम से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा।

भारत के लिए नई चुनौती

भारत ने इस समझौते को बेहद गंभीरता से लिया है। नई दिल्ली का कहना है कि वह इस समझौते के सभी पहलुओं का गहराई से अध्ययन करेगा और अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं करेगा। भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि पाकिस्तान को सऊदी अरब जैसा बड़ा रणनीतिक सहयोगी मिलने से क्षेत्रीय सुरक्षा समीकरण प्रभावित हो सकते हैं। विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर सवाल उठाते हुए कहा है कि यह विदेश नीति की नाकामी है, जिसने पाकिस्तान को इतना बड़ा सहारा दिला दिया है। भारत अब यह सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा कि उसके अपने अरब देशों से संबंध इस नए गठजोड़ के बीच कमजोर न पड़ें।

अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं और वैश्विक असर

यह समझौता केवल दक्षिण एशिया या खाड़ी तक सीमित नहीं है, बल्कि अमेरिका और यूरोप की रणनीतिक चिंताओं को भी बढ़ाता है। अमेरिका, जो दशकों से खाड़ी देशों का सुरक्षा गारंटर रहा है, अब अपनी पकड़ ढीली होती देख रहा है। यूरोपीय विशेषज्ञों का मानना है कि यह डील एक नई ध्रुवीयता को जन्म दे सकती है, जहां खाड़ी क्षेत्र में पश्चिमी प्रभाव कमज़ोर और इस्लामी सैन्य सहयोग मज़बूत होगा। यह स्थिति रूस और चीन के लिए अवसर भी पैदा करती है, क्योंकि वे लंबे समय से खाड़ी देशों में अपनी रणनीतिक पैठ बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।

आने वाले समय की चुनौतियां 

सबसे अहम सवाल यह है कि इस समझौते में “आक्रमण” की परिभाषा क्या होगी। क्या यह केवल पारंपरिक सैन्य हमलों तक सीमित रहेगा, या इसमें साइबर युद्ध, आतंकवादी हमले और परमाणु खतरे भी शामिल होंगे? दूसरी चुनौती सऊदी अरब के सामने है, जिसे भारत, अमेरिका और अन्य वैश्विक साझेदारों के साथ अपने संबंधों का संतुलन बनाए रखना होगा। अगर सऊदी इस समझौते को पूरी तरह पाकिस्तान-केंद्रित बना देता है, तो उसे अन्य रणनीतिक साझेदारियों में झटका लग सकता है। इसलिए यह समझौता जितना सुरक्षा कवच है, उतना ही नए तनावों और कूटनीतिक संतुलन की परीक्षा भी है।

इस समझौते के आगे के प्रभावों को लेकर तीन संभावित परिदृश्य उभरते हैं — सकारात्मक परिदृश्य यह होगा कि सऊदी-पाकिस्तान रक्षा साझेदारी से क्षेत्रीय स्थिरता बढ़े और दोनों देश मिलकर बाहरी खतरों को संतुलित करने में सफल हों; नकारात्मक परिदृश्य यह है कि यह गठजोड़ भारत समेत पड़ोसी देशों के लिए नई सुरक्षा चुनौतियाँ खड़ी करे और खाड़ी क्षेत्र को नई ध्रुवीयता की ओर धकेल दे; जबकि संतुलित परिदृश्य में संभावना है कि सऊदी अरब इस समझौते को पाकिस्तान तक सीमित रखते हुए भारत, अमेरिका और अन्य साझेदारों के साथ भी संबंधों का संतुलन बनाए रखे, ताकि सुरक्षा सहयोग नए तनाव में न बदले।

 

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