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अमेरिकी शटडाउन: अंतरराष्ट्रीय छात्रों और प्रवासी समुदाय के लिए बढ़ती अनिश्चितता

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डॉ. अखलाक अहमद उस्मानी | नई दिल्ली 3 अक्टूबर 2025

अमेरिका में सरकार का शटडाउन होना कोई नई बात नहीं है। यह अक्सर बजट पर सहमति न बनने या राजनीतिक खींचतान के कारण होता है। लेकिन इसका सबसे बड़ा असर उन पर पड़ता है जिनका जीवन प्रशासनिक प्रक्रियाओं पर निर्भर है — यानी प्रवासी समुदाय, वीजा आवेदक और अंतरराष्ट्रीय छात्र। भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो यह चिंता और गहरी हो जाती है, क्योंकि लाखों भारतीय छात्र और पेशेवर अमेरिका में शिक्षा और रोजगार से जुड़े हैं।

लोकतांत्रिक जड़ता और व्यक्तिगत ज़िंदगी की कीमत

हर शटडाउन सिर्फ एक राजनीतिक गतिरोध नहीं है, बल्कि हजारों-लाखों लोगों की व्यक्तिगत ज़िंदगी को अस्त-व्यस्त करने वाला संकट है। जब अमेरिकी कांग्रेस में बजट पर सहमति नहीं बनती, तो इसका खामियाजा कोई सांसद या सीनेटर नहीं भुगतता, बल्कि वह छात्र भुगतता है जिसका वीजा नवीनीकरण रुका हुआ है, वह पेशेवर भुगतता है जिसकी H-1B या ग्रीन कार्ड प्रक्रिया लंबित है। यह सवाल खड़ा करता है कि क्या दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक ताकत अपने ही नागरिकों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिभाओं को ऐसे असमंजस में डाल सकती है?

शिक्षा और कौशल पर सीधा प्रहार

भारतीय छात्र अमेरिका के उच्च शिक्षा संस्थानों में सबसे बड़ी विदेशी आबादी का हिस्सा हैं। वे न केवल फीस और रिसर्च के माध्यम से अमेरिकी विश्वविद्यालयों को योगदान देते हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर अमेरिका की शैक्षणिक प्रतिष्ठा को भी बढ़ाते हैं। शटडाउन का असर वीजा नवीनीकरण, Optional Practical Training (OPT) और रोजगार प्राधिकरण (EAD) जैसी प्रक्रियाओं पर पड़ता है। इसका सीधा मतलब है कि छात्र अपनी पढ़ाई, इंटर्नशिप या नौकरी के अवसरों से वंचित हो सकते हैं। यह स्थिति न सिर्फ व्यक्तिगत करियर के लिए विनाशकारी है, बल्कि अमेरिका के लिए भी हानिकारक है, क्योंकि वह प्रतिभा को खोने का जोखिम उठाता है।

प्रवासियों पर गहराता संकट

H-1B और अन्य रोजगार-आधारित वीजा धारकों के लिए शटडाउन और भी भारी साबित होता है। Department of Labor की स्वीकृतियाँ रुक जाने से PERM और prevailing wage determinations अटक जाते हैं। ग्रीन कार्ड प्रक्रिया लंबी हो जाती है और कई मामलों में लोग अपनी कानूनी स्थिति खोने के कगार पर पहुँच जाते हैं। प्रवासी परिवार असुरक्षा और मानसिक तनाव में जीने को मजबूर हो जाते हैं।

दोहरे मापदंड का प्रश्न

यहाँ एक और गहरी विडंबना है। अमेरिका दुनिया भर में लोकतंत्र और स्वतंत्रता का झंडाबरदार कहलाता है, लेकिन अपने ही तंत्र की जड़ता से अंतरराष्ट्रीय छात्रों और प्रवासियों को अनिश्चितता में धकेल देता है। यह केवल प्रशासनिक समस्या नहीं है, बल्कि यह अमेरिका की साख पर भी सवाल खड़ा करता है। क्या एक महाशक्ति अपनी राजनीतिक असहमति की कीमत पर वैश्विक प्रतिभाओं का भविष्य दांव पर लगा सकती है?

भारत जैसे देशों के लिए यह चेतावनी भी है। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था और अवसरों को इतना मजबूत बनाना होगा कि हमारी प्रतिभाएँ विदेशों पर पूरी तरह निर्भर न रहें। और अमेरिका जैसे देशों को भी यह समझना होगा कि शटडाउन की राजनीति उनके अंतरराष्ट्रीय छवि और प्रवासी विश्वास दोनों को कमजोर करती है।

आज सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि अमेरिका का शटडाउन कितने दिन चलेगा। असली सवाल यह है कि इसके चलते कितने सपने अधूरे रह जाएंगे, कितने छात्र अपनी पढ़ाई या नौकरी खो देंगे, और कितने प्रवासी परिवार असुरक्षा की खाई में धकेल दिए जाएंगे।

 

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