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H-1B वीज़ा पर अमेरिकी चाल: फीस की मार से विदेशी प्रतिभा का गला घोंटने की साज़िश!

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नई दिल्ली/वॉशिंगटन – अमेरिका ने H-1B वीज़ा धारकों और नए आवेदकों पर ऐसा आर्थिक हथियार चला दिया है, जिसने न केवल भारतीय प्रोफेशनल्स को हिलाकर रख दिया है बल्कि पूरी दुनिया की आईटी इंडस्ट्री में खलबली मचा दी है। ताज़ा रिपोर्ट्स के मुताबिक H-1B वीज़ा फीस अब इतनी ऊँची कर दी गई है कि वह ज़्यादातर H-1B वीज़ा धारकों की सालाना सैलरी से भी ज्यादा बैठ रही है। सवाल यह है कि यह वीज़ा सुविधा है या शोषण का नया मॉडल?

फीस या लूट?

H-1B वीज़ा की बढ़ी हुई फीस अब लाखों डॉलर तक पहुँच रही है। सोचिए, एक भारतीय आईटी प्रोफेशनल जो अमेरिका जाकर अपने करियर को आगे बढ़ाना चाहता है, उसकी सालाना कमाई से ज़्यादा रकम सिर्फ वीज़ा फीस में वसूली जाएगी। यह किसी टैक्स का बोझ नहीं बल्कि सीधा-सीधा “ब्रेन ड्रेन पर पेन ट्रेन” है। अमेरिका विदेशी दिमाग चाहता तो है, लेकिन उन्हें वीज़ा की दलाली में निचोड़कर ही।

अमेरिका की चालबाज़ी या डर?

यह फैसला साफ़ दिखाता है कि अमेरिका विदेशी प्रतिभा से तो अपनी अर्थव्यवस्था चलाना चाहता है, लेकिन अब उसी प्रतिभा को आर्थिक जाल में फँसाने पर तुला है। सिलिकॉन वैली की सफलता भारतीय और एशियाई इंजीनियरों के बिना अधूरी है, और अब वही इंजीनियरों को ‘पेमेंट की दीवार’ में धकेल दिया जा रहा है। क्या यह अमेरिका का डर है कि विदेशी प्रतिभा वहाँ की लोकल वर्कफोर्स से बेहतर साबित हो रही है?

भारत के लिए सबक!

भारत को यह स्थिति एक चेतावनी की तरह देखनी चाहिए। जब हमारे सबसे मेधावी युवा अमेरिका में सिर्फ वीज़ा फीस की दलाली में पिस रहे हैं, तो क्या हमें अपनी नीतियों को इस दिशा में नहीं मोड़ना चाहिए कि उन्हें भारत में ही वही अवसर, वही इज़्ज़त और वही आर्थिक ताक़त मिले? आज ज़रूरत है कि भारत “टैलेंट एक्सपोर्ट” के बजाय “टैलेंट रिटेंशन” की दिशा में ठोस कदम उठाए।

सवालों के घेरे में अमेरिका

  • क्या वीज़ा फीस को सालाना सैलरी से ज़्यादा करना विदेशी प्रतिभा पर हमला नहीं है?
  • क्या यह नस्लीय-आर्थिक भेदभाव का नया रूप नहीं है?
  • क्या अमेरिका दुनिया को यह संदेश देना चाहता है कि उसके यहाँ आना सिर्फ़ पैसे वालों का ही हक़ है?

अमेरिका को याद रखना चाहिए कि दुनिया आज “ग्लोबल टैलेंट वॉर” के दौर में है। अगर वह भारतीय और एशियाई प्रोफेशनल्स को फीस के नाम पर सताएगा, तो यह प्रतिभा चीन, यूरोप और खाड़ी देशों की ओर रुख कर सकती है। अमेरिका की यह चाल कहीं उसे खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी न मार दे।

 

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