पटना 7 नवंबर 2025
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के बीच एक ऐसा मुद्दा उभर कर सामने आया है जिसने एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) के मुस्लिम उम्मीदवारों को असहज स्थिति में ला खड़ा किया है — यह मुद्दा है वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 का। इस कानून को केंद्र सरकार ने इसी वर्ष संसद में पारित कराया था और इसके बाद से ही मुस्लिम समुदाय के बीच इसे लेकर असंतोष और आशंकाएं गहराती गई हैं। अब जब बिहार के चुनावी मैदान में एनडीए के कई मुस्लिम उम्मीदवार उतर चुके हैं, तो जनता उन्हें इस संशोधन कानून को लेकर लगातार घेर रही है।
गांवों, कस्बों और नगरों की चुनावी सभाओं में मुस्लिम मतदाता इन प्रत्याशियों से सीधा सवाल पूछ रहे हैं — “आपकी पार्टी ने इस बिल को क्यों समर्थन दिया?”, “क्या इससे वक्फ संपत्तियों पर सरकारी नियंत्रण नहीं बढ़ जाएगा?”, “क्या यह कानून हमारी धार्मिक संस्थाओं की आज़ादी में दखल नहीं है?” इन सवालों का जवाब देना एनडीए के इन मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए अब किसी ‘राजनीतिक परीक्षा’ से कम नहीं रह गया है।
वक्फ संशोधन कानून ने मुस्लिम मतदाताओं में पैदा की बेचैनी
दरअसल, वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 को केंद्र सरकार ने पारदर्शिता और जवाबदेही के नाम पर पेश किया था। सरकार का तर्क है कि इससे वक्फ संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन, तीसरे पक्ष द्वारा ऑडिट और अवैध कब्जों पर नियंत्रण संभव होगा। लेकिन मुस्लिम संगठनों, धार्मिक संस्थाओं और समुदाय के कई बुद्धिजीवियों का कहना है कि यह बिल वक्फ बोर्डों की स्वायत्तता खत्म करने की दिशा में कदम है। बिहार जैसे राज्य में, जहां मुस्लिम आबादी लगभग 18 प्रतिशत है और लगभग 40 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाती है, इस कानून के खिलाफ भावनाएँ चुनावी हवा को प्रभावित कर रही हैं।
इसी पृष्ठभूमि में, एनडीए के कई मुस्लिम प्रत्याशियों को जनता के बीच सफाई देनी पड़ रही है कि उनका इरादा समुदाय के खिलाफ नहीं था। जेडीयू की एक उम्मीदवार ने कहा कि “वक्फ कानून सुधार की दिशा में है, न कि हस्तक्षेप की। हमने अपने समुदाय के लोगों को समझाने की कोशिश की है कि इस कानून से पारदर्शिता आएगी।” लेकिन मतदाता इस बात को उतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर रहे। लोगों का कहना है कि “अगर पारदर्शिता के नाम पर धर्मिक संस्थाओं की स्वतंत्रता छीनी जाएगी, तो यह सुधार नहीं, नियंत्रण कहलाएगा।”
विपक्ष ने इसे चुनावी हथियार बना लिया
वक्फ कानून को लेकर विपक्ष ने इसे पूरी ताकत से एनडीए के खिलाफ मोर्चा बना लिया है। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने सार्वजनिक मंचों से घोषणा की है कि अगर उनकी सरकार बनी, तो वे इस वक्फ संशोधन कानून को “कूड़ेदान में फेंक देंगे।” इसी तरह कांग्रेस और एआईएमआईएम जैसे दलों ने भी इस कानून को मुसलमानों के अधिकारों पर हमला बताया है।
इन बयानों ने एनडीए के मुस्लिम उम्मीदवारों की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। वे एक ओर विकास, रोजगार और शिक्षा जैसे मुद्दों पर वोट मांग रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें लगातार अपने समुदाय को यह समझाना पड़ रहा है कि वक्फ कानून उनके अधिकारों के खिलाफ नहीं है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बिहार के मुस्लिम बहुल इलाकों — जैसे किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा, दरभंगा और सीमांचल बेल्ट — में यह मुद्दा सीधे तौर पर चुनावी व्यवहार को प्रभावित कर रहा है। मतदाता अब यह नहीं देख रहे कि उम्मीदवार कौन है, बल्कि यह पूछ रहे हैं कि “वक्फ बोर्ड के साथ आपका रुख क्या है?”
एनडीए की ‘नुकसान-नियंत्रण’ रणनीति
इन हालात को देखते हुए भाजपा और जेडीयू दोनों दलों ने अपने मुस्लिम उम्मीदवारों को स्पष्ट निर्देश दिया है कि वे मतदाताओं से सीधा संवाद करें, भ्रम दूर करें और यह समझाएं कि वक्फ कानून का उद्देश्य धार्मिक संपत्तियों की सुरक्षा है, न कि अधिग्रहण। बिहार में भाजपा ने “वक्फ जागरूकता अभियान” भी शुरू किया है, ताकि समुदाय में व्याप्त भय को कम किया जा सके।
सत्ताधारी गठबंधन के नेताओं का कहना है कि विपक्ष जानबूझकर भ्रम फैला रहा है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा — “यह कानून भ्रष्टाचार रोकने और वक्फ संपत्तियों को उनके असली उपयोग में लाने के लिए है। जो लोग घोटाले में लिप्त थे, वही आज विरोध कर रहे हैं।”
हालाँकि राजनीतिक ज़मीन पर यह तर्क उतना असरदार नहीं दिख रहा जितनी सरकार को उम्मीद थी। गांवों में मस्जिद समितियों, मदरसों और सामाजिक संस्थाओं में चर्चाएं जारी हैं। लोग यह महसूस कर रहे हैं कि यह कानून धीरे-धीरे धार्मिक संपत्तियों पर सरकारी पकड़ मजबूत करेगा।
सामाजिक-सांप्रदायिक असर और राजनीतिक जोखिम
बिहार जैसे राज्य में, जहां मुस्लिम वोट किसी भी चुनावी समीकरण को पलटने की क्षमता रखते हैं, वक्फ कानून पर जारी बहस एक “धार्मिक अस्मिता बनाम राजनीतिक भरोसे” की लड़ाई में बदल चुकी है। एनडीए के मुस्लिम प्रत्याशी एक मुश्किल स्थिति में हैं — उन्हें अपनी पार्टी की नीतियों का बचाव भी करना है और अपने समुदाय के भरोसे को बनाए रखना भी।
यह द्वंद्व खासकर उन सीटों पर ज्यादा स्पष्ट है जहां मुस्लिम जनसंख्या 35 से 50 प्रतिशत तक है। वहां विपक्ष खुलेआम कह रहा है कि “जो उम्मीदवार वक्फ बोर्ड की आज़ादी पर चुप है, उसे वोट क्यों दें?”
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह कानून मुस्लिम समाज के भीतर राजनीतिक चेतना को नई दिशा दे रहा है। यह सिर्फ धार्मिक संपत्तियों का मुद्दा नहीं रहा, बल्कि अब यह पहचान, समानता और अधिकार का प्रतीक बन चुका है। यदि एनडीए के मुस्लिम उम्मीदवार इस विमर्श को सही दिशा नहीं दे पाए, तो इसका असर आने वाले वर्षों में गठबंधन की रणनीति पर भी पड़ेगा।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का पहला चरण यह साफ़ दिखा रहा है कि वक्फ कानून केवल एक कानूनी संशोधन नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक चेतना का प्रश्न बन चुका है। एनडीए के मुस्लिम उम्मीदवारों को अब सिर्फ वोट नहीं, बल्कि भरोसा जीतना होगा — और यह भरोसा वादों से नहीं, बल्कि संवेदनशील संवाद और पारदर्शी नीति से ही संभव है। बिहार के चुनावी परिदृश्य में यह सवाल अब हर मंच पर गूंज रहा है —“विकास की बात बाद में, पहले बताइए — वक्फ कानून पर आपका रुख क्या है?” यही सवाल इस बार बिहार के चुनावी मैदान में धर्म, राजनीति और लोकतंत्र — तीनों के संतुलन की असली परीक्षा बन गया है।




