नई दिल्ली 3 अक्टूबर 2025
आज़ादी की कहानी: जनबल, बलिदान और इतिहास का अलिखित पक्ष
भारत का स्वतंत्रता संग्राम दुनिया के सबसे बड़े, सबसे जटिल और सबसे बलिदानी सामूहिक आंदोलनों में से एक था। यह कोई साधारण राजनीतिक मुहिम नहीं थी बल्कि करोड़ों लोगों का रणनीतिक, नैतिक और व्यक्तिगत बलिदान था — किसानों का धरना, मजदूरों का हड़ताल, युवाओं की जेलें भरना, महिलाओं की अगुवाई, और ऐसे अनगिनत गुमनाम शहीद जिनकी कहानियाँ स्कूल-किताबों की सीमाओं से परे हैं। महात्मा गांधी की अहिंसा-नीति ने जन-आधार तैयार किया; भगत सिंह-सुभाष-चंद्रबोस जैसे नायक चारों ओर से ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दे रहे थे; किसान-मजदूर आंदोलन और छात्र-युवा संघर्ष ने अंग्रेज़ों की नैतिक व प्रशासनिक वैधता पर गंभीर प्रहार किया। इस महान कथा में जहाँ अनेकों का नाम उज्जवल है, वहीं एक संस्था — राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) — का योगदान स्पष्ट रूप से अनुपस्थित और विवादित दिखता है। इतिहास के प्रमुख सारगर्भित पन्नों में आरएसएस का सक्रिय, व्यापक और निर्णायक योगदान नहीं मिलता — और यह अनुपस्थिति आत्म-घोषित दावों के विरुद्ध सवाल उठाती है।
संघ का उदय: संगठन-निर्माण बनाम आज़ादी-लड़ाई
1925 में नागपुर में के.बी. हेडगेवार के नेतृत्व में आरएसएस की स्थापना हुई। उस कालखण्ड में देश असहयोग (1920–22), नमक सत्याग्रह (1930) और बाद में भारत छोड़ो (1942) जैसी अभूतपूर्व जनलहरों से गुजर रहा था; इन हर आंदोलनों ने अंग्रेज़ों की सत्ता को अस्थिर कर दिया। पर आरएसएस का फोकस—स्थापना दस्तावेज़ों और प्रारंभिक गतिविधियों से पता चलता है—“शाखा” व्यवस्था, शारीरिक अनुशासन, सांस्कृतिक-धार्मिक रचितियाँ और हिंदू समाज के भीतर संगठनात्मक पुनर्गठन पर था। संघ ने उस समय सीधे-सीधे अंग्रेज़ों के खिलाफ कोई बड़ा जनआंदोलन आरम्भ नहीं किया और न ही कांग्रेस-नेतृत्व के जनविद्रोहों में सामूहिक भागीदारी दिखाई। यह ऐतिहासिक तथ्य संघ के आधिकारिक दावों के साथ संगत नहीं दिखता और इसे समकालीन आलोचनाओं और शोधों में भी रेखांकित किया गया है।
निर्णायक मोड़ पर दूरी: असहयोग से भारत छोड़ो तक संघ का बहिष्कार
जब देश एक स्वर में अंग्रेज़ों से स्वतंत्रता की माँग कर रहा था, तब संघ ने कई निर्णायक मोड़ों पर दूरी बनाए रखी। असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह जैसे जनआंदोलनों में संघ की उपस्थिति नगण्य रही; 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के समय संघ और उससे जुड़े कुछ घटक स्पष्टतः आंदोलन के विरोध में दिखे। समकालीन दस्तावेज़ों, सरकारी रिकार्डों और बाद के इतिहासकारों के विश्लेषण से यह बात उभर कर आती है कि उस दौर में अंग्रेज़ प्रशासन के लिए यह अच्छा था कि कुछ घरेलू संगठन जन-एकता में शामिल न हों — और संघ ने उसी स्थिति को बनाए रखा। इस तथ्य ने स्वतंत्रता-आंदोलन के आयोजन और गति पर असर डाला और यह प्रश्न खड़ा किया कि क्या संघ की प्राथमिकताओं में राजनीतिक आज़ादी की तत्काल-महत्ता कम थी।
गुलामी को सहज मानने वाली मानसिकता? — प्राथमिकताओं का संकट
अगर हम संघ की विचारधारा और प्राथमिकताओं को गहराई से देखें तो एक ऐसा रुख़ उभरता है जहाँ “राजनीतिक आज़ादी” की अपेक्षित प्राथमिकता पर “सांस्कृतिक/धार्मिक-संरचना” पर ध्यान भारी दिखता है। संघ के नेतृत्व ने कई मौकों पर यह संकेत दिया कि उनकी प्राथमिकता हिंदू समाज का संगठन और उसके “मर्यादित” पुनर्निर्माण है — न कि तत्कालीन औपनिवेशिक सत्ता से टकराव। इस रणनीति-विचार का परिणाम यह हुआ कि संघ की गतिविधियाँ और वक्तव्य विभाजन-प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले तत्वों के प्रति संवेदनशील रहे — जो अंततः अंग्रेज़ों की “डिवाइड-अँड-रूल” नीति के अनायास या जानबूझकर साथ देने जैसा दिखता है। ऐसे विचार-निहित बदलावों ने आज़ादी-आंदोलन के व्यापक सामूहिक दबाव को कुछ हद तक कमज़ोर करने में मदद दी।
टू-नेशन का बीज: किसने और कैसे बोया?
इतिहास में अक्सर कहा जाता है कि “दो राष्ट्र” (Two-Nation Theory) का सिद्धांत केवल मुस्लिम लीग का ही परिणाम था, पर गहराई से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि वैचारिक धरातल पर यह विचार कुछ हिंदू-राष्ट्रीयवादी लेखों और वक्तव्यों में भी उभर चुका था। विनायक दामोदर सावरकर और हिंदू महासभा के कुछ वक्तव्यों ने धार्मिक पहचान को राष्ट्र की पहचान के समकक्ष रखने की प्रवृत्ति दिखाई, जो बाद में अलगाव-वादी विमर्श के अनुकूल साबित हुई। मुस्लिम लीग ने 1940 के लाहौर प्रस्ताव में अलग देश की माँग की — पर उस माँग को वैचारिक समर्थन-रेखा कई स्रोतों में पहले से मिलती है। इसलिए विभाजन के लिये केवल एक संस्था को अकेला दोष देना इतिहास की जटिलता को अनदेखा करना होगा; फिर भी यह सच है कि कुछ हिंदू-राष्ट्रवादी धाराओं ने वैचारिक जमीन तैयार की जो बाद में विभाजन का एक घटक बन गई।
सावरकर: “वीर” या “माफीवीर” — दस्तावेज़ों की बोली
आरएसएस और उसके समर्थक सावरकर को वीर-प्रतिमा के रूप में पेश करते हैं; पर राष्ट्रीय अभिलेख और प्रकाशित दस्तावेज़ बताते हैं कि सावरकर ने जेल-काल के दौरान और बाद में ब्रिटिश सरकार को कई बार माफी-याचिकाएँ (mercy petitions) भेजीं। इन याचिकाओं का शाब्दिक अभिलेख राष्ट्रीय अभिलेखागार में उपलब्ध है और कई शोधियों तथा पत्रिकाओं ने इन्हें प्रकाशित करके इस पक्ष-चरित्र की विवेचना की है। आलोचक इसे ‘माफीवीर’ का प्रमाण मानते हैं — तर्क देते हुए कि सच्चे क्रांतिकारी ने अपमानित होकर भी माफी नहीं मांगी; समर्थक तर्क देते हैं कि ये याचिकाएँ रणनीति का हिस्सा थीं। पर दस्तावेज़ मौजूद हैं और वे सावरकर की राजनीतिक-व्यवहारिक छवि को जटिल बनाते हैं — न कि सरल-सी वीरगाथा ही दर्शाते हैं।
हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग: मिली-भगत या सामरिक संगतता?
ऐतिहासिक घटनाक्रम दिखाते हैं कि कुछ प्रदेशों में (विशेषकर बंगाल, सिंध आदि) और कुछ कालों में हिंदू महासभा-प्रकार के नेताओं तथा मुस्लिम लीग के स्थानीय नेतृत्व के बीच सामरिक तौर पर मेल-जोल दिखाई दिया — अक्सर उस जमीनी राजनीतिक परिदृश्य के कारण जहाँ अंग्रेज़ी प्रशासन के साथ तालमेल से स्थानीय सत्ता सुरक्षित रहती थी। अंग्रेज़ राज के “फंडिंग, संरक्षण और उपलब्धियों” के पार्श्वभूमि में ऐसे गठजोड़ और राजनीतिक काउंटर-इंटेलिजेंस उपयुक्त दिखाई देते थे। यह स्पष्ट करता है कि विभाजन-प्रक्रिया एक हीधार वाले खेल की देन नहीं थी; पर वैश्विक-राजनीतिक और स्थानीय-सामरिक मिलीजुली कार्रवाइयों ने अंततः विभाजन की राह को सशक्त किया।
गांधी, अहिंसा और संघ: असहजता का इतिहास
गाँधीजी का रास्ता समावेशी, अहिंसक और व्यापक जनसम्मति-खोजी रहा। उनका मानना था कि अहिंसात्मक दमन-प्रतिरोध ही अंग्रेज़ों की वैधानिकता को जड़ से काटेगा। दूसरी ओर संघ का रुख़ इस तरह नहीं दिखा — संघ की कार्यवाही और नैरेटिव ने गांधी की रणनीतियों को या तो असंगत कहा, या अनावश्यक बताया। यह विचारात्मक असहमति सिर्फ़ प्रवचन-स्तर पर ही नहीं रुकी; व्यवहारिक स्तर पर भी संघ ने कई आंदोलनों से दूरी बनाए रखी। गांधी की हत्या और उसके बाद आरएसएस-सदस्यों की भूमिका ने भी इस तनाव को और तेज़ कर दिया — और तत्काल बाद में संघ पर प्रतिबंध भी लगाया गया। इन घटनाओं ने गांधी-कांग्रेस बनाम संघ के रिश्ते की जटिलता को और बढ़ाया।
असली नायक: शहीदों की गाथा और संघ की चुप्पी
स्वतंत्रता-संघ्राम की गाथा भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, अशफ़ाक़उल्लाह खाँ, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू और अनेकों अनाम शहीदों के बलिदान-कर्म से प्रकाशित है। ये वे लोग हैं जिन्होंने सीधे अंग्रेज़ सत्ता का सामना किया, जेलें भरी और कई ने अपनी जान दी। दूसरी ओर संघ की परंपरागत साहित्यिक धारा और शाखा-रिपोर्टों में इन शहीदों की स्मृति और उनके बलिदान का जिक्र सीमित या अप्रत्यक्ष मिलता है; जबकि हिंदू-राष्ट्रवादी नारेटिव और सामंजस्य-विचार अधिक दिखाई देते हैं। स्वतंत्रता-इतिहास के इस पक्ष ने यह प्रश्न उठाया कि क्या संघ ने वही जोखिम उठाया जो अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने उठाया — और दस्तावेज़ों के आधार पर इसका उत्तर अक्सर नकारात्मक मिला है।
इतिहास की कसौटी और हमारा नतीजा
इतिहास औपचारिक और निर्दय होता है — वह केवल घोषणा-पत्रों या आत्म-घोषणाओं को नहीं मानता, वह कृत्यों, दस्तावेज़ों और सामूहिक व्यवहार का लेखा-जोखा माँगता है। जब आरएसएस के दावों को स्वतंत्र इतिहास-साक्ष्यों के साथ परखा जाता है तो स्पष्ट होता है कि संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में वह निर्णायक सक्रिय भूमिका नहीं निभाई जिसकी वह आज दावा करता है; कई बार उसने प्रमुख आंदोलनों का विरोध किया या उनसे दूरी बनायी; और कुछ वैचारिक लेखन और व्यवहारों ने विभाजन-प्रवृत्ति को हवा दी। इसीलिए वह कठोर घोषवाक्य — “जो निडर थे वो जंग में गए, जो कायर थे वो संघ में गए” — सिर्फ़ एक भावुक बयान नहीं रह जाता, बल्कि एक तर्कसंगत निष्कर्ष के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है यदि हम ऐतिहासिक साक्ष्यों को गंभीरता से स्वीकार करें। परन्तु इतिहास हमेशा नई खोजों के लिये खुला रहता है; यदि संघ के पास अपने योगदान के प्रमाण हों तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर दिखाना चाहिए ताकि पाठ्यक्रम और सार्वजनिक स्मृति में न्यायपूर्ण स्थिति बन सके।
संदर्भ-सूची (मुख्य स्रोत — चुनिंदा और सर्वाधिक भारदार)
- Mridula Mukherjee, “No Matter What It Says Now, RSS Did Not Participate in the Freedom Struggle”, The Wire.
- Savarkar’s Original Mercy Petitions (1913, 1914, 1920) — National Archives of India; प्रकाशित संकलन और विश्लेषण: Countercurrents / Counterview.
- Bunch of Thoughts — M. S. Golwalkar; (Golwalkar के विचारों के संदर्भ में उपलब्ध पीडीएफ/आर्काइव) — Golwalkar के लेख संघ-विचारधारा का प्राथमिक स्रोत।
- Jawahar Sircar, “The Negative Role of the RSS in India’s Freedom Struggle” — विस्तृत निबंध/विश्लेषण जिसमें 1942 के विरोधी रुख़ का जिक्र है।
- Rashtriya Swayamsevak Sangh — Encyclopedic / समग्र विवरण (Wikipedia और अन्य एंट्रीज़) — इतिहास, प्रतिबंध और आलोचनात्मक अवलोकन का समेकित सार।