लेखक : डॉ. शुजात अली क़ादरी (मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ इंडिया (MSO) के राष्ट्रीय अध्यक्ष। सूफ़ीवाद, सार्वजनिक नीति, भू-राजनीति और सूचना युद्ध जैसे विषयों पर लिखते हैं)
नई दिल्ली 1 अक्टूबर 2025
क्या किसी को याद है कि पाकिस्तान का कोई प्रधानमंत्री, या प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में उसका कोई प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र (UN) में जाकर कश्मीर का मुद्दा न उठा पाया हो? पाकिस्तान हमेशा उसी घमंड से बोलता है – “हम गलत नहीं हो सकते”, भले ही इतिहास उसके खिलाफ सबूतों से भरा पड़ा हो।
26 सितंबर को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ़ ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिर वही पुराना कश्मीर राग छेड़ा। उन्होंने मंच पर जोर-जोर से भाषण देते हुए शेखी बघारी कि उन्होंने पिछले साल भी ऐसा ही भाषण दिया था, जो शायद लोग भूल गए हों।
शहबाज ने 1948 के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) प्रस्ताव का हवाला दिया, जिसमें कश्मीर मसले को हल करने का ढांचा बताया गया था। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि उस प्रस्ताव से पहले क्या हुआ था और कश्मीरियों ने क्या-क्या सहा। खुद पाकिस्तान के सबसे बड़े समर्थक और अलगाववादी नेता रहे सैयद अली शाह गिलानी ने अपनी आत्मकथा वुलर किनारे में लिखा है कि 1948 में पाकिस्तान के कबायली नेता, स्थानीय राजनेताओं के साथ मिलकर, कश्मीरी महिलाओं से बलात्कार करते थे ताकि जनता में दहशत फैलाई जा सके। 1948 की यह कबायली घुसपैठ बेहद भयावह थी।
हकीकत यह है कि कश्मीर में शांति की सबसे बड़ी बाधा हमेशा आतंक रहा है। जब यह खतरा खत्म होगा, तभी समाधान भी दिखाई देगा, जैसा कि सूफी संत रूमी ने कहा था – “रास्ता अपने आप प्रकट हो जाएगा।”
भारत-पाक विभाजन के तुरंत बाद, भारत ने कभी भी लोगों के बीच या सरकारों के बीच बातचीत और संपर्क को नहीं रोका। युद्ध के बावजूद दोनों देशों के रिश्ते 1965 तक कुछ हद तक बने रहे। लोग रिश्तेदारी और व्यापारिक संबंधों को बनाए रख पाते थे। लेकिन 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया, ठीक उसी समय जब भारत 1962 के चीन युद्ध के घावों से उबर रहा था। वरिष्ठ पत्रकार-लेखक एम.जे. अकबर के अनुसार, 1965 की यह पाकिस्तानी आक्रामकता ने भारतीय जनता की सोच को पूरी तरह बदल दिया और हालात लगातार बिगड़ते चले गए।
शहबाज शरीफ़ ने अपने भाषण में ग़ाज़ा में हो रहे जनसंहार का ज़िक्र कर उसकी तुलना कश्मीर से करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कोई ठोस सबूत या विश्वसनीय रिपोर्ट पेश नहीं की। दरअसल, कोई सबूत मौजूद ही नहीं है। आज कश्मीर में पर्यटक बढ़ रहे हैं, लोग सामान्य जीवन जी रहे हैं। अगर कश्मीरियों को कोई समस्या है भी तो वही हैं, जो भारत के बाकी राज्यों के लोग शासन-प्रशासन को लेकर उठाते हैं। यही एक मज़बूत लोकतंत्र का संकेत है।
शरीफ़ ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भी तारीफ़ की और उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए अनुशंसित करने पर गर्व जताया, जबकि यही अमेरिका संयुक्त राष्ट्र में कई प्रस्तावों को रोक चुका है जो फ़िलिस्तीनियों के जनसंहार को रोक सकते थे।
कश्मीर, पाकिस्तान और फ़िलिस्तीन का खेल
पिछले 10 सालों में जो लोग कश्मीर गए हैं, वे जानते हैं कि वहां के लोग फ़िलिस्तीन का समर्थन अलग-अलग रूपों में करते हैं। कुछ संगठन फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण (यासिर अराफ़ात) का समर्थन करते थे, कुछ हमास के “प्रतिरोध के अधिकार” की बात करते थे, और कुछ हिज़बुल्लाह व ईरानी नेतृत्व के साथ खड़े रहते थे। लेकिन भारत सरकार ने कभी इन संगठनों की राय व्यक्त करने पर रोक नहीं लगाई। विश्वविद्यालयों और सभाओं में फ़िलिस्तीन के समर्थन में संगोष्ठियां होती रही हैं।
5 अगस्त 2019 (अनुच्छेद 370 हटाने) के बाद एहतियातन कुछ राजनीतिक रैलियों पर रोक लगी ताकि हालात न बिगड़ें। लेकिन सामान्य स्थिति लौटने के बाद फ़िलिस्तीन समर्थक संगठनों को भी जगह मिल गई। हाँ, भारत सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि 7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा इज़राइल पर हुए हमलों की महिमा न गाई जाए, क्योंकि भारत की नीति स्पष्ट है – वह आतंक को नकारता और उसकी निंदा करता है। लेकिन इज़राइल के खिलाफ आलोचना और फ़िलिस्तीन के समर्थन में आवाज़ उठाने की छूट आज भी है।
पाकिस्तान की दोहरी नीति और अमेरिका का साथ
पाकिस्तान शुरू से ही अमेरिका के साथ खड़ा रहा। इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत-उपमहाद्वीप और एशिया-प्रशांत में अमेरिकी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया गया। वरिष्ठ पाकिस्तानी नौकरशाह-लेखक क़ुदरतुल्लाह शाहाब ने शाहाबनामा में लिखा है कि पाकिस्तान में कई बार सरकारों का तख़्ता पलट अमेरिका के इशारे पर हुआ। और जब फ़िलिस्तीनियों का कत्लेआम होता रहा, तब पाकिस्तान और बाकी मुस्लिम देशों ने चुप्पी साध ली।
हाल ही में एम.जे. अकबर ने लिखा कि पाकिस्तान ने अपने ठिकाने अमेरिकी विमानों को दिए ताकि वे ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला कर सकें। यही पाकिस्तान की असलियत है, जो बार-बार अपने “मुस्लिम भाईचारे” के नारे को खोखला साबित करती है।
क़ुरआन के नाम पर पाखंड
शरीफ़ ने अपने भाषण की शुरुआत क़ुरआन की आयत पढ़कर की, ताकि खुद को धर्मनिष्ठ और पवित्र साबित कर सकें। लगभग सभी पाकिस्तानी नेता यही करते आए हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि क़ुरआन किसी देश या कौम के लिए विशेष दावा नहीं करता। यह केवल इंसान और समाज से अन्याय दूर करने की बात करता है। न्याय और सच्चाई ही शांति का रास्ता दिखाते हैं।
अगर पाकिस्तान सच में क़ुरआन की भावना समझे और न्याय व शांति की राह पर चले, तो वही उसके लिए असली “पाक-स्थान” (Pure Land) होगा। जितनी जल्दी पाकिस्तान यह समझेगा, उतना ही उसके लिए बेहतर होगा।