भारत में इतिहास को अक्सर संक्षेप में बताकर उसकी आत्मा छुपा दी जाती है — विशेषकर तब, जब वह सच किसी जातिवादी गर्व के गुब्बारे को फोड़ने वाला हो। आज सोशल मीडिया पर मनुवादी सोच शोर मचा रही है — “पहली महिला डॉक्टर ब्राह्मण थीं, हमें यह नहीं बताया गया।” सवाल यह है कि उपलब्धि का जश्न मनाना है या जातिवाद का ढोंग? जो लोग यह पोस्ट कर रहे हैं, वे जानबूझकर वह हिस्सा दबा देते हैं जहाँ उसी समाज ने आनंदी गोपाल जोशी को प्रताड़ित किया, जहाँ उसके सपनों को अभिशाप कहा गया, जहाँ डॉक्टर बनना धर्म-भ्रष्टता माना गया। यही विरोधाभास मनुवादी सोच का असली चेहरा है — जहाँ महिला की सफलता भी तब तक सराहनीय है, जब तक वह जातिवादी अभिमान को पोषित करती है।
आनंदी गोपाल जोशी की कहानी भारत की स्त्री शिक्षा के संघर्ष का आरंभ है। 19वीं शताब्दी के उस ब्राह्मण समाज में लड़कियों की शिक्षा पाप मानी जाती थी। आनंदी की इच्छा भी नहीं थी — यह उनके पति गोपाल राव की जिद थी कि “मेरी पत्नी डॉक्टर बनेगी।” पर समाज? समाज तो नफरत से भरा था। अपमान, धमकियाँ, बहिष्कार — सब आनंदी ने झेल लिया। अमेरिका जाने से पहले उन्हें हजारों ब्राह्मणों की भीड़ के सामने भाषण देना पड़ा, और वहां उन्होंने गर्व से कहा था — “मैं हिंदू जा रही हूँ, हिंदू ही लौटूँगी।” यह वाक्य उनके दिल की मजबूरी थी — अपनी जाति को मनाने की, उसी समाज को शांत करने की जो उसकी उड़ान को रोकने में लगा था। यह कैसा गर्व था, जिसे मनाने के लिए आनंदी को अपने सपनों की कीमत तक साबित करनी पड़ी?
आनंदी अमेरिका पहुंचीं, डॉक्टर बनीं — पर शरीर टूट गया। क्योंकि वहीं भी समाज का आदेश पीछा नहीं छोड़ता — “अमरिका की रोटी मत खाना, गोमूत्र लो, वही पवित्र है।” परिणाम यह हुआ कि जिस लड़की ने हिंदुस्तान की पहली मेडिकल डिग्री हासिल की, वह इतनी कुपोषित और बीमार हो गई कि वापसी के कुछ ही समय बाद मर गई।
ब्राह्मण समाज, जो आज इस उपलब्धि को जातिगत शान बना रहा है, वही समाज आनंदी को जिंदा रहने तक शर्मिंदा करता रहा। वह डॉक्टर बन गई — पर जी ही नहीं पाई। डॉ बनने के बावजूद वो एक दिन भी प्रैक्टिस नहीं कर पाईं।
भारत का इतिहास कहता है —जहाँ मनुवाद होता है, वहाँ बलिदान ही महिला की नियति है।
और अब आइए उस सच्चाई पर, जिसे मनुवाद छुपाता है।
भारत की पहली प्रैक्टिसिंग डॉक्टर — जो अस्पताल में सेवा देती थीं, मरीजों का इलाज करती थीं — वह थीं डॉ. रखमाबाई राउत, एक दलित महिला। उनकी जिंदगी में भी संघर्ष कम नहीं था — बचपन में जबरन शादी, अदालत के चक्कर, समाज से बहिष्कार। मगर उन्होंने झुकना नहीं सीखा। वह मेडिकल डिग्री लेकर लौटने के बाद पूरी जिंदगी मरीजों की सेवा करती रहीं। वे डॉक्टर सिर्फ डिग्री में नहीं, काम में थीं। वे अमृत थीं, सिर्फ प्रतीक नहीं।
रखमाबाई राउत ने लंदन में पढ़ाई करके 1894 में चिकित्सक की उपाधि प्राप्त की और कई वर्षों तक सूरत और राजकोट में मुख्य चिकित्सा अधिकारी (Chief Medical Officer) के रूप में कार्य किया। नारीवाद की प्रतीक थीं। अपने बाल विवाह के खिलाफ कानूनी संघर्ष के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसने सहमति, स्त्री स्वतंत्रता और महिला अधिकारों को लेकर पूरे देश में एक ऐतिहासिक बहस खड़ी की। महिलाओं के स्वास्थ्य की योद्धा कहलाई। डॉक्टर के रूप में उन्होंने महिलाओं को चिकित्सा सहायता लेने के लिए प्रोत्साहित किया और विभिन्न सामाजिक वर्गों की महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराईं।
तथ्य दो हैं —
- पहली मेडिकल डिग्री पाने वाली — आनंदी गोपाल जोशी (ब्राह्मण)
- पहली प्रैक्टिसिंग डॉक्टर — रखमाबाई राउत (दलित)
अब सवाल यह नहीं होना चाहिए कि कौन किस जाति का था, बल्कि यह — कि किसने किस कीमत पर इतिहास रचा? और कौन समाज के जहर से लड़कर उसे बदलने में सफल हुआ?
आनंदी ने जिंदगी गंवाकर नये रास्ते खोले। रखमाबाई ने पूरे जीवन उस रास्ते पर चलकर दूसरों को बचाया।
मनुवादी समाज चाहे जितने झूठ फैला ले —इतिहास के पन्ने कभी झूठ नहीं बोलते। वे साफ लिखते हैं —
- भारत में स्त्री शिक्षा और चिकित्सा का इतिहास दो महान स्त्रियों के बलिदान और संघर्ष से बना है — न कि किसी जाति के गर्व से।
- वो लड़ती रहीं ताकि कल की लड़कियाँ आज डॉक्टर बन सकें।
हां, यह दुखद है —स्त्रियों ने इतिहास बनाया… और मनुवादियों ने जाति की बही-खाते में उसका हिसाब लिख दिया। अगर इस देश को सच्चा सम्मान देना है,
तो जाति के झंडे उतारकर कहना होगा — सलाम आनंदी, सलाम रखमाबाई! तुम दोनों ही असली भारत हो।





