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भौतिकवाद की बेड़ियां: मृगतृष्णा या असली खुशी?

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आपने कभी सोचा है कि आजकल हमारे पास बहुत सी चीज़ें हैं, लेकिन क्या हम वाकई खुश हैं? स्मार्टफोन, महंगे कपड़े, लक्जरी गाड़ियां, फर्नीचर से भरा घर, कपड़ों से भरी अलमारियां, जूतों से भरे शू रैक, अनगिनत घड़ियां, सन ग्लासेज, तरह तरह की क्रॉकरी से लैस किचन और न जाने क्या-क्या! हर दिन नए-नए सामान की चाहत होती है। लेकिन क्या सच में ये सारी चीज़ें हमें खुशियां देती हैं? या हम बस एक दौड़ (रैट रेस) में लगे हुए हैं? हम हमेशा इस दौड़ में क्यों लगे रहते हैं? हम मानते हैं कि अगर और ज्यादा चीज़ें इकट्ठी कर लीं तो खुश हो जाएंगे, लेकिन क्या सच में ऐसा होता है? क्या भौतिकवाद से हमें सचमुच खुशी मिलती है, या हम केवल मृगतृष्णा का पीछा कर रहे हैं? इसी के मद्देनजर आज हम बात करेंगे भौतिकवाद (Materialism) के बारे में – यानी वो सोच जो हमें यह समझाती है कि सिर्फ चीज़ें ही असली हैं, और अगर आपके पास ढेर सारी चीज़ें हों, तो आप सबसे ज़्यादा सूखी होंगे। तो चलिए, इस दौड़ में हम कहीं पीछे तो नहीं रह गए हैं, यह देखते हैं।

आध्यात्मिकता vs भौतिकवाद: कौन जीतेगा?

भारत में हमेशा से आध्यात्मिकता को एक विशेष स्थान प्राप्त रहा है। प्राचीन काल से ही यहां के लोग धर्म, तात्त्विकता और साधना की दिशा में अग्रसर रहे हैं। संतों और साधुओं ने ध्यान, साधना और तपस्या के माध्यम से आत्मा की शुद्धि और ईश्वर के प्रति प्रेम को बढ़ावा दिया। लोग मंदिरों में जाते थे, धार्मिक अनुष्ठान करते थे, और भिक्षाटन करते हुए अपने जीवन को साधते थे। इस दौरान, कर्णप्रिय भजन, कीर्तन, दोहे, अज़ान और गुरबाणी की आवाज़ें हमारे कानों में गूंजती थीं, जो न केवल हमारी आध्यात्मिकता को प्रगाढ़ करती थीं, बल्कि समाज में एकता और भाईचारे का संदेश भी देती थीं।

यह समय वह था जब प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के हर पहलू को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखता था, और यही कारण था कि समाज में शांति, संतुलन और आत्मा की पवित्रता का अनुभव होता था। लेकिन आजकल, क्या हम वही साधना और ध्यान की प्रक्रिया अपनाते हैं? क्या हम संतों के मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं, या फिर हमें जीवन की भागदौड़ में उलझकर अपने आत्मिक मूल्य और आध्यात्मिकता को भूल गए हैं?

आजकल के समय में, जहां हर कोई भौतिक सुख-सुविधाओं और सामाजिक प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ रहा है, वहां हम क्या आध्यात्मिकता और साधना की दिशा में उसी प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ रहे हैं, जैसे पहले के संत और साधू बढ़ते थे? यह सवाल हमारे समाज की आध्यात्मिकता और जीवन के वास्तविक उद्देश्य पर पुनः विचार करने की आवश्यकता को इंगीत करता है।

लेकिन इन सबसे अलग आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहां भौतिकवाद ने हमारे जीवन पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया है। हमने अपनी खुशियों और संतोष को भौतिक वस्तुओं में ढूंढने की आदत बना ली है। दिन-रात हम महंगे से महंगे स्मार्टफोन, गहने, गाड़ियां और अन्य ऐसी चीजों के पीछे दौड़ रहे हैं, जो हमें तात्कालिक सुख तो दे सकती हैं, लेकिन स्थायी शांति और संतुष्टि नहीं।

इस आधुनिक युग में जहां हर कोई अपनी सामाजिक छवि को लेकर जागरूक है, वहीं वास्तविक अध्यात्म की राह पर चलने की बजाय हम अपनी जिंदगी के समय को इलेक्ट्रॉनिक स्क्रीन पर बर्बाद कर रहे हैं। स्मार्टफोन की स्क्रीन पर हम अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, न कि अपनी आत्मा की शांति और संतुलन पर। फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स में हम अपनी अहमियत को आंकते हैं, न कि अपने आंतरिक अनुभव को। इन प्लेटफार्म्स पर व्यस्तता के कारण आध्यात्मिकता कहीं पीछे छूट चुकी है। अब हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वह भी पूरी तरह से भौतिक और अस्थायी हो गई है – “डिलीट करो, लाइक करो, शेयर करो, ब्लॉक करो, पोक करो!”

इस सब ने हमें अपने वास्तविक उद्देश्य से भटका दिया है। हम अपने आत्मिक विकास की ओर ध्यान देने के बजाय दूसरों की प्रतिक्रियाओं और लाइक्स में खुशी ढूंढते हैं। जो चीजें हमें सच में शांति दे सकती थीं, जैसे ध्यान, प्रार्थना, और आत्ममंथन, वे अब केवल हमारे जीवन का हिस्सा नहीं रही हैं। हम भौतिक दुनिया के खोखले आकर्षण में उलझे हुए हैं, और वास्तविक आंतरिक शांति की तलाश बहुत पीछे रह गई है।

उदाहरण: 

आपने देखा है, आजकल लोग आध्यात्मिक किताबों की जगह स्मार्टफोन के बारे में बात करते हैं। “क्या तुमने नया आईफोन देखा?” “भाई, ये ऐप्स क्या जबरदस्त है!” “तेरे पास कितने मेगापिक्सल का कैमरा है?” हम क्यूं नहीं एक दूसरे से पूछते, “तुम कितने मिनट ध्यान में रहते हो?, आज कल तुम कौन सी किताब पढ़ रहे हो?” इन चीजों से हमें ज्यादा शांति और सुखद महसूस होगा। 

उपभोक्तावाद का प्रकोप: सब कुछ चाहिए, लेकिन कब तक?

कभी सोचा है, आप जो खरीदते हैं, क्या वह ज़रूरत है या सिर्फ दिखावा? अब, ज़रा सोचिए, आपको अगर नया स्मार्ट टीवी चाहिए, तो क्या आपको वह सच में ज़रूरत है? या फिर आपके पास पहले से एक टीवी था, लेकिन यह “नया” वाला टीवी देखकर मन भर आया? जैसे आजकल “ब्लैक फ्राइडे”, “सुपर सेल”, “महासेल”, “नवरात्रि सेल”, “दीपावली सेल”, “ईयर एंड सेल” जैसी अनेकों लुभावनी सेल आती हैं, तो हम सोचना शुरू कर देते हैं – “अरे! अगर मैं आज यह खरीद लूंगा, तो कल सब मुझे सलाम करेंगे, मेरी वाह वाही होगी, मेरी सब पर धाक जमेगी, लोग मुझसे ईर्ष्या करेंगे, जलेंगे!” अब, क्या होता है? लोग तो नहीं जलते हैं बल्कि हम अपनी जेब जरूर जला आते हैं सेल के चक्कर में!!! उदाहरण के लिए हम नया टीवी उठा लाते हैं और अगले दिन, टीवी पर बैठकर वही शो देखते हैं, जो हमने पहले ही देखे थे! किसी को हमारे टीवी से कोई मतलब भी नहीं होता है। हर कोई अपने घर पर अपने हिसाब से जिंदगी जी रहा होता है, किसी को किसी से मतलब नहीं होता है। और हम मरे जाते हैं कि, “हाय लोग क्या कहेंगे”!!!! 

 उदाहरण:

“मेरे पास नया लैपटॉप है, वॉइस कमांड से चलता है!” “अच्छा! क्या तुमने इंसानियत की समझ भी अपडेट की है?” दरअसल, हम सोचते हैं, जितना महंगा सामान हो, उतना स्मार्ट बन जाएंगे! पर क्या सच में हमें यह समझने का वक्त मिला है कि हमारे रिश्ते, हमारे परिवार और हमारी जिंदगी का असल मूल्य क्या है?

मानसिक और शारीरिक नुकसान: भौतिकता के नाम पर बीमारियां

भौतिकवाद के बहुत सारे नुकसान हैं, खासकर मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर। जब हम लगातार नए सामान की तलाश में रहते हैं, तो हमें तनाव, चिंता और दबाव महसूस होता है। और क्या होता है? हाय, हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, और रातों की नींद भी चली जाती है। एंजाइटी बढ़ गई, डिप्रेशन हो रही है।हम सोचते हैं, “क्यों न एक और सर्टिफिकेट लें, ताकि किसी को दिखा सकें!” पर असल में, हम खुद को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से खुद को नुकसान पहुंचाने में लगे होते हैं।

 उदाहरण:

“बॉस, मैंने तो यह लैपटॉप लिया, ताकि काम जल्दी हो!” “अच्छा! तो क्या तुम्हारा काम अब 24 घंटे के बदले में एक घंटे का हो गया है?” दरअसल, हम जितना ज्यादा चीज़ों में उलझते हैं, उतना ही खुद को तनाव में डालते जाते हैं।

पर्यावरण पर असर: धरती का क्या होगा?

भौतिकवाद सिर्फ हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को ही नहीं, बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाता है। जैसे जब हम प्लास्टिक की बोतलें इस्तेमाल करते हैं, तो यह हमारे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है। हमारी ज़िंदगी का हर कदम धरती पर बोझ बन जाता है। हम तो ये सोचते हैं कि हमने एक अच्छा टीवी खरीदा, लेकिन हमने यह नहीं सोचा कि उस टीवी को बनाने के लिए कितनी ऊर्जा खर्च हुई और कितनी प्लास्टिक का इस्तेमाल हुआ।

 उदाहरण:

“यार, तुम्हें तो पता ही है, नए टीवी में कितने स्मार्ट फीचर्स हैं!” “क्यों भाई, क्या तुम्हारा टीवी अब तुम्हारे लिए चाय भी बना देगा?” यह हंसी-मजाक हमारे असल मुद्दों से ध्यान भटकाता है – धरती की हालत क्या होगी, जब हम इसी तरह से ही चलते रहें?

 क्या हमें भौतिकवाद से बाहर निकलने का रास्ता मिल सकता है?

तो, इसका हल क्या है? क्या हम भौतिकवाद के इस चक्रव्यूह से बाहर आ सकते हैं? हां, बिल्कुल! हमें कम ज़रूरतें रखनी चाहिए और ज्यादा खुशियां और आनंद चाहिए। न्यूनतमवाद (Minimalism) की तरफ़ बढ़ें, जिसमें हम केवल वही रखें, जो सच में जरूरी हो। अगर हमारे पास कम सामान होगा, तो हम ज्यादा खुश और आनंदित रह सकते हैं, और हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।

 उदाहरण:

“अरे यार, तुम तो बिल्कुल साधू जैसे हो गए!” “साधू? नहीं भाई, मैं तो ‘समझदार’ हो गया हूं!” हमें यह समझने की ज़रूरत है कि असली सुख पैसे और चीज़ों में नहीं, बल्कि रिश्तों और सरल जीवन में है।

“कम से कम चीज़ें, ज्यादा खुशियां!”

भौतिकवाद की बेड़ियां मृगतृष्णा हैं क्योंकि ये हमें एक नकली खुशी की ओर धकेलती हैं, जो अंततः खालीपन और असंतोष के अलावा कुछ नहीं देती। आजकल, हम मानते हैं कि यदि हमारे पास ज्यादा सामान होगा तो हम खुश रहेंगे। लेकिन क्या सच में यही होता है? भौतिकवाद का जाल हमें इस भ्रम में डालता है कि हमारी खुशी का आधार उन चीज़ों में है जो हम खरीदते हैं। स्मार्टफोन, महंगे कपड़े, नई गाड़ी – ये सभी चीज़ें हमारे आत्म-सम्मान और खुशी को मान्यता देती हैं, पर क्या ये सच में हमारी वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं?

आध्यात्मिकता और भौतिकवाद के बीच संघर्ष है, और यह संघर्ष हमारे अंदर हो रहा है। एक ओर हम ध्यान, साधना, और संतों के मार्ग पर चलने की बात करते हैं, और दूसरी ओर हम सोशल मीडिया और खरीददारी की दौड़ में लगे रहते हैं। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि आध्यात्मिकता अब कहीं पीछे रह गई है, और भौतिकवाद हमारी प्राथमिकता बन गया है। हमें अब वह सवाल नहीं उठाते जो हमारे पूर्वज उठाते थे, “तुम कितने मिनट ध्यान में रहते हो?” इसके बजाय, हम एक दूसरे से पूछते हैं, “तुमने नया स्मार्टफोन लिया है?”

भौतिकवाद के कारण मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहे हैं। जब हम लगातार नए सामान की तलाश में रहते हैं, तो इससे तनाव, चिंता, और मानसिक दबाव बढ़ता है। और यह मानसिक स्थिति शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर डालती है, जिससे हम बीमार हो सकते हैं। क्या हमें इस दौड़ में भागने का कोई ठोस कारण है, या हम सिर्फ दूसरों को प्रभावित करने के लिए यह कर रहे हैं?

सिर्फ मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, भौतिकवाद पर्यावरण पर भी बुरा असर डालता है। जब हम लगातार नई चीज़ों की खरीदारी करते हैं, तो इसका सीधा असर हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है। प्लास्टिक, ऊर्जा की खपत और प्रदूषण – इन सबके जिम्मेदार हम हैं। क्या यह उचित है कि हम एक नये टीवी के लिए धरती के संसाधनों का दोहन करें?

किताबें: जीवन का दर्पण और मार्गदर्शक

असली राजा वो है किसके घर में आप दाखिल हों तो बड़ा सा आदमकद का टीवी नहीं, किताबों की लाइब्रेरी हो। किताबें हमें जीने का सलीका दिखाती हैं, जिंदगी के मायने सिखाती हैं। किताबें केवल कागज़ और स्याही का मेल नहीं, बल्कि अनुभवों का अथाह सागर होती हैं। हर पन्ना एक नया दृश्य प्रस्तुत करता है और हर शब्द जीवन की नई सीख देती है। ये हमें उन रास्तों पर ले जाती हैं, जिन पर हम कभी चले ही नहीं होते, और उन चरित्रों से मिलाती हैं, जिन्हें हमने कभी देखा नहीं होता। किताबें हमें कल्पनाओं के आसमान में उड़ने का हौसला देती हैं, तो कभी हमें धरातल पर जीवन के कठोर सत्य को समझने का साहस भी सिखाती हैं। ये कभी प्रेम की मिठास में डुबोती हैं, तो कभी आत्म-साक्षात्कार के कठिन सफर पर ले जाती हैं। इतिहास की गलियों से लेकर भविष्य के अनदेखे सपनों तक, ये हमें हर दिशा में ले जाती हैं। किताबें केवल पढ़ने का साधन नहीं, बल्कि सोचने, समझने और आत्म-विश्लेषण का जरिया हैं। ये हमें सिखाती हैं कि जीवन की गहराइयों को महसूस करना और उसे सुंदरता के साथ जीना, दोनों ही कला के रूप में संभव है। हर उम्र, हर दौर में किताबें हमारे जीवन को संवारती हैं और हमें इस बात का अहसास कराती हैं कि जिंदगी की असली खूबसूरती केवल अनुभवों में ही नहीं, बल्कि शब्दों और विचारों की गहराई में भी छिपी होती है।

कुल मिला कर समाधान यह है कि हमें भौतिकवाद से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए। न्यूनतमवाद (Minimalism) अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाएं, ताकि हम कम से कम चीज़ों के साथ भी खुश रह सकें। इसका मतलब यह नहीं कि हमें पूरी तरह से भौतिक चीज़ों से दूरी बना लेनी चाहिए, बल्कि यह समझना चाहिए कि हमारी असली खुशी हमारे रिश्तों और हमारे भीतर की संतुष्टि से आती है। “कम चीज़ें, ज्यादा खुशियां!” यह नारा हमें भौतिकवाद की मृगतृष्णा से बाहर निकाल सकता है, और हमें संतुलित और सुखमय जीवन की ओर अग्रसर कर सकता है। तो अगली बार जब आप सोचें, “क्या नया खरीदें?” तो एक बार यह जरूर सोचें – क्या ये चीज़ आपके जीवन में सचमुच खुशी लाएगी, या फिर आप बस एक और मृगतृष्णा का शिकार हो रहे हैं?

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