कभी एक बाग था — मीठा, शांत और खुशबूदार। वहाँ हर संतरा अपने रस पर गर्व करता था। कोई किसी से खट्टा नहीं था, कोई किसी को नींबू नहीं कहता था।
फिर एक दिन, जब संतरों ने अपने चन्द्रयोग की मदद से संतराराज स्थापित किया तो नई राष्ट्रीय संतरासंघ पॉलिसी बनी। फिर बड़ी घोषणा हुई।
नागपुर में एक संतरे ने कहा —
“हम सबको एक ही स्वाद में ढलना होगा, ताकि दुनिया हमें पहचान सके!”
यहीं से नई “संतरा राज” की भी नींव रखी गई — रस को राष्ट्र बना दिया गया, और मिठास को मतपत्र।
धीरे-धीरे दिल्ली तक संतरे फैल गए — चमकदार छिलके, विज्ञापन-भरे जूस, और कैमरे के सामने हँसते हुए चेहरे।
अब बाग में चार वर्ग के संतरे थे —
भक्त संतरे, जो मानते थे कि उनका रस ही सबसे पवित्र है।
नफरती संतरे, जो हर दूसरे फल को दुश्मन मानते थे।
व्यापारी संतरे, जो रस से ज़्यादा ठेका ढूंढते थे।
और आम संतरे, जो बस सूरज की धूप में शांति चाहते थे, पर हर वक्त किसी न किसी टोकरा नीति में फँस जाते थे।
कुछ संतरे इतने जलते थे कि खुद को ही आग लगा बैठते।
वो कहते — “हमारे जलने से ही रोशनी होगी!”
बाकी हँसते और कहते — “भाई, अब रस नहीं, राख बन रही है।”
इधर भक्त संतरे हर सुबह नारा लगाते —
“रस में एकता, स्वाद में राष्ट्र!”
अगर कोई कह दे कि “भाई, थोड़ा खट्टापन ज़्यादा है,”
तो जवाब आता — “तेरी ज़ुबान ही गद्दार है, बाग निकाला होगा!”
बाग का एक चालाक धीरे-धीरे पूरे बाग का ठेका उठाने लगा।
वो कहता — “हमारे रस से देश चलेगा।”
और अपने संतरा-मित्रों के बीच पूरे बाग का सौदा कर आया
बीज विदेश भेजे, छिलके पर झंडा चढ़ाया,
और हर जूस पैकेट पर लिखा — “राष्ट्र रस — 100% देशी स्वाद!”
फिर एक दिन बूढ़ा संतरा बोला —
“भाई, पहले रस से रिश्ते बनते थे, अब रस से रैलियाँ बनती हैं।
पहले मिठास से लोग जुड़ते थे, अब नफरत से फल अलग हो रहे हैं।
पहले छिलका फेंका जाता था, अब वही छिलका सिंहासन पर बैठा है।”
बाग में सन्नाटा छा गया।
एक छोटा संतरा धीरे से बोला —
“अगर हर संतरा सिर्फ़ अपने रस की बात करेगा, तो बाग में संतुलन कौन रखेगा?”
तभी हवा चली, और संतरे के पेड़ से एक पत्ता गिरा —
उस पर लिखा था —
“छीलो, चूसो, चबाओ या निकालो जूस…
अगर उसमें मिठास नहीं बची — तो क्या सिर्फ़ खट्टा इतिहास कहलाएगा? इतिहास का क्या? “ढाई सौ साल” खा जाने वाले संतरे नया इतिहास रचाएंगे। आम हो या अंगूर.. सब संतरा कहलाएंगे।