पटना/ नई दिल्ली 1 नवंबर 2025 | स्पेशल रिपोर्ट : सरोज सिंह
चुनाव आते ही देश की राजनीति का चेहरा बदल जाता है — जो बातें साल भर छुपी रहती हैं, अचानक वही ज़ोर-शोर से दिखने लगती हैं। पटना से मिली खबर के मुताबिक राज्य सरकार की महिला रोजगार योजना के तहत दस-दस हज़ार रुपये सौ लाखों महिलाओं के बैंक खातों में भेजे जा रहे हैं, लेकिन यही खबर चुनावी मौसम में बीजेपी के उस पुराने खेल के सामने मिसाल बनकर खड़ी हो जाती है जिसे उन्होंने बार-बार अलग-अलग रूपों में अपनाया है। पहले वोटर-लिस्ट में सर्जरी कर के नामों को हेरफेर किया जाता है — कुछ लाखों नाम गायब कर दिए जाते हैं, कुछ फर्जी नाम जोड़ दिए जाते हैं; फिर चुनाव के बीच में मुफ्त नकदी, राशन या “विशेष” मदद बांट कर वही वोटरों को शट्टल कर लिया जाता है जिनको प्रशासनिक नजर से दूर रखा गया था। यह सिर्फ घटनाओं का सिलसिला नहीं, यह एक तंत्र है — मदद दी जाती है, शुक्रिया लिया जाता है, और उसके बाद वही प्रणाली यह तय कर देती है कि असल मत कहाँ गया।
बीते कुछ चुनावों में हमने देखा है कि रिश्वत की बारिश सिर्फ एक नकली उदारता नहीं बल्कि चुनावी मशीनरी का हिस्सा बन चुकी है। कहीं एमपी में रिश्वत के दस्तावेज मिले, तो अब बिहार में वही पुरानी तरकीबें दोहराई जा रही हैं — बीच चुनाव में अचानक पैसे की लागत से गरीबों की ज़रूरतों का हवाला देकर वोट दिलवाना। टीवी पर रात-दिन वही पुरानी स्क्रीनप्ले चलती है: हिंदू-मुसलमान का शोर, घुसपैठ का डर, और नेता की रैली जिसमें हर वक्त “देशभक्ति” का नारा गूँजता है। उसी रातों-रात ‘केचुआ ऑपरेशन’ जैसा प्रशासनिक जादू चल जाता है — जहां मतों की गिनती कम पड़ती दिखे वहाँ आकस्मिक रूप से आंकड़ों की बढ़ोतरी रिकॉर्ड कर दी जाती है। और जब काउंटिंग टेबल पर पहुंचते-पहुंचते प्रशासनिक हस्तक्षेप का पर्दा उठता है, तब असल इतिहास लिखने वाली ताकतें सामने आ जाती हैं।
यह सब प्रक्रिया किसी जुगाड़ से कम नहीं — पहले वोटर-लिस्ट पर नियंत्रण, फिर पैसे और सुविधा बांटना, बाद में प्रचार और भय फैलाना, और अंत में काउंटिंग-रूम में कट-छाँट। इधर जनता को समझाने की कोशिश की जाती है कि यह सब “डेमोक्रेसी का हिस्सा” है; उधर वही पार्टियां, जो लोकतंत्र की शान की बात करती हैं, बेधड़क तरीके से नियमों की सीमा लांघती दिखती हैं। सवाल यही उठता है: जब आप जीतने के लिए हर नुक्कड़-पर गम्भीर फैसले कर लेते हो, तब जीत वास्तविक है या नक़ली? और जो लोग चुनाव जीतते हैं — क्या उनकी जीत जनादेश है या किसी बड़े खेल की जीत? यह फर्क समझना अब ज़रूरी हो गया है।
वोटरों से मेरा सीधा अनुरोध है — जागो और पहचानो। जगीरा से लड़ने की हिम्मत तो जुटा लोगे, पर उनसे जीतने के लिए जो कमीनापन चाहिए, वो कहाँ से लाओगे? राजनीति में ईमानदारी और जवाबदेही माँगना अब विश्वासघात नहीं, ज़रूरी नागरिक कर्तव्य है। अगर प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र ने चुनावों को आंकड़ों और दिखावे का खेल बना दिया है, तो सच्चाई की आवाज़ उठाना ही आख़िरी उम्मीद बचती है। इस चुनाव में केवल एक बात तय है: मतदाता-शक्ति को खरीदने की कोशिशें जितनी भी हों, उनकी पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग और तेज़ होगी — और जो भी संस्थाएँ या नेताओं ने इस सिस्टम को गढ़ा है, उन्हें इसके लिए जवाब देना होगा।




