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बिहार की सियासत में ‘मुस्लिम-मुक्त’ सूची का विस्फोट: 17% आबादी की अनदेखी पर गंभीर सवाल

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पटना/ नई दिल्ली 16 अक्टूबर 2025

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) द्वारा उम्मीदवारों की घोषणा ने राज्य के राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ा विस्फोट कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू), लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) जैसे प्रमुख सहयोगियों ने मिलकर कुल 182 प्रत्याशियों के नामों का ऐलान किया है, लेकिन इस लंबी सूची में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार शामिल नहीं है। यह आंकड़ा विशेष रूप से तब चौंकाता है, जब बिहार की कुल आबादी में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगभग 17% है और वे सीमांचल, मगध और सारण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में चुनावों की दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

 राजनीतिक पंडितों और आम जनता के बीच अब यह सवाल तेज़ी से गूंज रहा है कि क्या एनडीए ने जानबूझकर इस बार ‘मुस्लिम-मुक्त राजनीति’ को अपनी केंद्रीय रणनीति का हिस्सा बना लिया है। यह कदम न केवल गठबंधन के समावेशी चरित्र पर सवाल खड़े करता है, बल्कि बिहार की सामाजिक और राजनीतिक समरसता के लिए भी एक खतरनाक मिसाल स्थापित कर सकता है।

गठबंधन की संरचना में असंतुलन: जेडीयू की घटती ताकत और बीजेपी का बढ़ता वर्चस्व

एनडीए के भीतर सीटों का बंटवारा पहली नज़र में भले ही संतुलित दिखाई दे, लेकिन सामाजिक प्रतिनिधित्व और राजनीतिक शक्ति के दृष्टिकोण से इसमें गंभीर असंतुलन स्पष्ट है। गठबंधन की व्यवस्था के तहत, बीजेपी और जेडीयू को 101-101 सीटें आवंटित की गई हैं, जबकि चिराग पासवान की एलजेपी (आरवी) को 29 सीटें मिली हैं। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की एचएएम और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएम को 6-6 सीटों पर संतोष करना पड़ा है। 2020 के पिछले चुनाव की तुलना में, नीतीश कुमार की जेडीयू की सीटों में 115 से घटकर 101 तक की कटौती की गई है, जबकि बीजेपी ने अपनी सीटों पर वर्चस्व को प्रभावी ढंग से बनाए रखा है। 

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह पुनर्संतुलन स्पष्ट रूप से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की घटती राजनीतिक ताकत और गठबंधन के भीतर बीजेपी के बढ़ते नियंत्रण का प्रतीक है। सबसे बड़ी चिंता यह है कि इस ‘बराबरी’ वाले बंटवारे में भी सामाजिक न्याय और संतुलन की पूरी तरह से अनदेखी की गई है, जिसका सीधा प्रमाण मुस्लिम प्रतिनिधित्व का ‘शून्य’ आंकड़ा है।

शून्य मुस्लिम प्रतिनिधित्व: सांप्रदायिक ध्रुवीकरण या हिंदू वोटों को साधने का सुनियोजित दांव?

एनडीए की पूरी उम्मीदवार सूची में एक भी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट न देना महज़ एक संयोग नहीं, बल्कि एक सुनियोजित और कठोर राजनीतिक संदेश माना जा रहा है। बीजेपी पहले से ही राष्ट्रीय स्तर पर नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC), राम मंदिर निर्माण और समान नागरिक संहिता (UCC) जैसे मुद्दों को उठाकर हिंदू वोटों को एकजुट करने में पूरी शक्ति लगा रही है। दूसरी ओर, जेडीयू, जिसका नेतृत्व नीतीश कुमार करते हैं और जो कभी “सेकुलर” राजनीति का मुखर समर्थक रहा था, अब पूरी तरह से बीजेपी की वैचारिक धुरी के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है।

 राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार, नीतीश कुमार का पुराना नारा “सुशासन बाबू” अब व्यवहार में “संघासन बाबू” में बदलता नज़र आ रहा है। यह कदम मुख्य रूप से एनडीए के भीतर हिंदू मतदाताओं को व्यापक रूप से एकजुट करने और विरोधी खेमे में मुस्लिम वोटों के बंटवारे को सुनिश्चित करने का एक स्पष्ट प्रयास है, परंतु यह बिहार की सदियों पुरानी सामाजिक समरसता और समावेशी राजनीति की नींव को गंभीर रूप से कमज़ोर कर सकता है।

चुनावी समीकरण में संभावित चूक: विपक्षी खेमे में मुस्लिम वोटों का एकतरफा ध्रुवीकरण

बिहार की करीब 2.5 करोड़ मुस्लिम आबादी राज्य की राजनीति में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक प्रभाव रखती है, खासकर सीमांचल के पूर्णिया, किशनगंज, कटिहार, अररिया और दरभंगा जैसे क्षेत्रों में, जहाँ मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 35 से 60 प्रतिशत तक है। 2020 के पिछले विधानसभा चुनाव में, महागठबंधन ने इन्हीं मुस्लिम बहुल और मिश्रित आबादी वाले इलाकों से 75 सीटें जीतकर सत्ता के समीकरण को पूरी तरह से बदल दिया था।

 ऐसे में, एनडीए द्वारा 17% आबादी को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करने की यह ‘मुस्लिम-मुक्त’ नीति आत्मघाती साबित होने का गंभीर जोखिम रखती है। यदि मुस्लिम मतदाता एनडीए के इस कदम से नाराज़ होकर पूरी तरह से विपक्षी खेमे में एकजुट हो जाते हैं, और एआईएमआईएम (AIMIM) जैसी पार्टियां भी मुस्लिम बहुल 20-25 सीटों पर वोटों का बंटवारा नहीं कर पाती हैं, तो एनडीए के लिए यह रणनीतिक भूल एक भारी चुनावी नुकसान और सत्ता गंवाने के सबक के रूप में सामने आ सकती है।

छोटे सहयोगी दलों की बेबसी: बीजेपी के नियंत्रण में दबी असंतोष की आवाजें

एनडीए में शामिल छोटे सहयोगी दल — जैसे एचएएम (HAM), आरएलएम (RLM) और एलजेपी (आरवी) — भले ही गठबंधन के प्रति अपनी वफ़ादारी का दावा कर रहे हों, लेकिन उनके भीतर की असंतोष की खीझ अब सार्वजनिक रूप से सामने आने लगी है। जीतन राम मांझी ने स्पष्ट तौर पर यह बयान दिया कि “हमें कम आंका गया है, पर हम एनडीए के प्रति वफ़ादार बने रहेंगे,” जो उनकी निराशा को दर्शाता है। 

 उपेंद्र कुशवाहा ने ट्वीट किया कि “छोटे सहयोगियों को सिर्फ संख्या में नहीं, सम्मान में भी बराबरी चाहिए।” यहाँ तक कि दलित चेहरे के रूप में उभरने की आकांक्षा रखने वाले चिराग पासवान ने भी “सामाजिक संतुलन” पर ज़ोर दिया, मगर टिकट वितरण में उनकी आवाज़ को स्पष्ट रूप से नज़रअंदाज़ कर दिया गया। यह पूरी स्थिति इस बात की पुष्टि करती है कि एनडीए के भीतर राजनीतिक शक्ति-संतुलन अब पूरी तरह से बीजेपी के केंद्रीय नियंत्रण में है, जहाँ अन्य सहयोगियों को केवल “संख्या” बढ़ाने वाले घटक के रूप में देखा जा रहा है, न कि समान भागीदार के रूप में।

विपक्ष का पलटवार और हिंदुत्व बनाम समावेशिता का चुनावी अखाड़ा

एनडीए की इस सूची के सामने आने के तुरंत बाद, महागठबंधन ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और इसे “हिंदुत्व बनाम समावेशिता” की लड़ाई में बदल दिया। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव ने एनडीए पर सीधा हमला बोलते हुए कहा कि “यह वही गठबंधन है जिसने बिहार की 17% आबादी को अंधेरे में धकेल दिया है।” कांग्रेस के प्रवक्ताओं ने आरोप लगाया कि “एनडीए का यह चेहरा बताता है कि उनकी राजनीति अब नफरत और विभाजन के आधार पर टिकी हुई है।”

 विपक्षी खेमे में अब कांग्रेस, सीपीआई-एमएल और आरजेडी जैसे दल मुस्लिम-यादव (M-Y) गठजोड़ को फिर से मजबूत करने की रणनीति पर ज़ोर-शोर से काम कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भले ही एनडीए की यह ध्रुवीकरण की रणनीति अल्पकालिक चुनावी लाभ दे सकती है, जैसा कि उन्होंने कुछ अन्य राज्यों में देखा है, लेकिन बिहार की अनूठी सामाजिक-राजनीतिक संरचना में यह दीर्घकाल में सामाजिक विभाजन और गंभीर राजनीतिक नुकसान का कारण बनेगी, क्योंकि बिहार की राजनीति हमेशा से सामाजिक न्याय और समावेशिता की मांग करती रही है।

क्या ‘मुस्लिम-मुक्त’ एनडीए बिहार में सामाजिक सद्भाव पर जीत हासिल कर पाएगा?

बिहार का लंबा राजनीतिक इतिहास यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि जिस भी राजनीतिक शक्ति ने राज्य के सामाजिक संतुलन और विविधता की अनदेखी की है, वह लंबे समय तक सत्ता में अपनी पकड़ नहीं बना पाई है। एनडीए का ‘मुस्लिम-मुक्त’ उम्मीदवार सूची का यह कदम न केवल गठबंधन के समावेशी चेहरे पर एक गहरा दाग है, बल्कि यह बिहार की राजनीति में एक खतरनाक और विभाजनकारी मिसाल भी स्थापित कर सकता है। एक ऐसा गठबंधन जो बार-बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विकास और ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात करता है, अगर वह जानबूझकर एक प्रमुख समुदाय को बाहर रखता है, तो यह केवल कुछ वोटों की हानि नहीं है, बल्कि जनविश्वास और लोकतांत्रिक मूल्यों की भी हार है। 

अब सभी की निगाहें 6 से 11 नवंबर के बीच होने वाले मतदान पर टिकी हैं। बिहार की जनता क्या फैसला देती है — क्या यह चुनाव केवल हिंदू ध्रुवीकरण की जीत सुनिश्चित करता है, या फिर राज्य की सदियों पुरानी सामाजिक सद्भाव और समावेशी राजनीति की पहचान कायम रहती है, यह बड़ा सवाल बना हुआ है। जैसा कि संपादकीय टिप्पणी में कहा गया है, बिहार की यह लड़ाई केवल सीटों की नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक चरित्र की परीक्षा है।

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