बिहार, जो अतीत में नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों का केंद्र था और जिसने समूचे विश्व को ज्ञान की रोशनी दी थी, आज स्वयं शिक्षा की बदहाली का एक विचलित कर देने वाला प्रतीक बन चुका है। यह विडंबना है कि जहाँ ज्ञान की गंगा बहती थी, आज वहाँ स्कूलों में अंधेरा पसरा हुआ है। राज्य में “डबल इंजन सरकार” के नाम पर जो बड़े-बड़े वादे और आशाएँ बाँधी गई थीं, वे अब एक अभूतपूर्व डबल विफलता में परिवर्तित हो चुकी हैं।
आँकड़े चीख-चीख कर सरकारी संवेदनहीनता की चार्जशीट पेश कर रहे हैं: 16,529 स्कूलों में आज भी बिजली नहीं है, 73,063 स्कूलों में कंप्यूटर जैसी बुनियादी तकनीक का अभाव है, 2,637 स्कूलों में केवल एक शिक्षक व्यवस्था को संभालने का असंभव प्रयास कर रहा है, और सबसे शर्मनाक बात यह है कि 117 स्कूल ऐसे हैं जहाँ एक भी छात्र नहीं है, फिर भी 544 शिक्षक वेतन ले रहे हैं। ये संख्याएँ केवल आंकड़े नहीं हैं—ये बिहार के बच्चों के भविष्य के साथ किए गए खिलवाड़ और प्रशासनिक लापरवाही की गहराई को दर्शाते हैं। यह साफ़ है कि शिक्षा का मंदिर अब एक “अवसर की कब्रगाह” में बदल चुका है।
झूठी रोशनी और डिजिटल धोखे का पर्दाफाश
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों ही अपने मंचों से अक्सर “हर घर बिजली” के सफल दावे करते नहीं थकते, लेकिन जब बिहार के शैक्षणिक संस्थानों की हकीकत सामने आती है, तो उनके ये दावे ध्वस्त हो जाते हैं। यह कैसी विडंबना है कि राजनीतिक रैलियों और सरकारी विज्ञापनों में तो पूरा देश जगमगा रहा है, पर 16,529 स्कूलों के क्लासरूम आज भी अंधेरे में डूबे हैं। जहाँ बच्चे ब्लैकबोर्ड पर लिखे को ढंग से देख नहीं पाते, वहाँ “विकसित भारत” और “अमृत काल” की बात करना बेमानी हो जाता है।
इसी तरह, डिजिटल इंडिया और स्मार्ट क्लास की घोषणाएँ भी एक क्रूर मज़ाक बनकर रह गई हैं, क्योंकि राज्य के 73,063 स्कूलों में कंप्यूटर का नामोनिशान तक नहीं है। यह दिखाता है कि टेक्नोलॉजी का विकास सिर्फ़ शहरों और सरकारी दफ़्तरों तक सीमित है, जबकि ग्रामीण बिहार के बच्चे आज भी 19वीं सदी की तरह चॉक और मिट्टी पर भविष्य लिखने को मजबूर हैं। यह केवल संसाधनों की कमी नहीं है, बल्कि यह सरकार की प्राथमिकताओं की विफलता है, जहाँ सड़क, शराब और सियासत पर खर्च बढ़ता है, लेकिन शिक्षा जैसे भविष्य के आधार स्तंभ के लिए बजट और इच्छाशक्ति दोनों खत्म हो जाते हैं।
शिक्षक का शोषण और भ्रष्टाचार की क्लास
बिहार की शिक्षा व्यवस्था न केवल बदहाल है, बल्कि प्रशासनिक अराजकता और मानव संसाधन के घोर शोषण का शिकार है। 2,637 स्कूलों में सिर्फ़ एक शिक्षक का होना “राष्ट्रीय शिक्षा नीति” का नहीं, बल्कि “राष्ट्रीय उपेक्षा नीति” का सबसे स्पष्ट प्रमाण है। यह अकेला शिक्षक कक्षाएं, विषय, प्रशासन, और कभी-कभी मिड-डे मील जैसी गैर-शैक्षणिक ज़िम्मेदारियाँ भी संभालता है। यह स्थिति शिक्षकों के पेशेवर शोषण के साथ-साथ बच्चों के भविष्य के लिए एक प्रशासनिक अपराध भी है, क्योंकि एक इंसान से “भविष्य निर्माण” की उम्मीद करना जहाँ व्यवस्था ही ध्वस्त हो चुकी हो, पूरी तरह अमानवीय है।
इससे भी अधिक हास्यास्पद और गंभीर स्थिति तब पैदा होती है जब 117 स्कूलों में शून्य छात्र दर्ज हैं, पर वहाँ 544 शिक्षक वेतन पा रहे हैं। यह आंकड़ा सीधे तौर पर सरकारी फंड के दुरुपयोग और शिक्षा विभाग को भ्रष्टाचार का अड्डा बनाने की ओर इशारा करता है। यह स्पष्ट सवाल उठाता है कि जब बच्चों की सीटें खाली हैं, तो क्या वहाँ “पढ़ाई” के बजाय “तनख्वाह की ठगी” और भ्रष्टाचार की क्लास चल रही है? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि “डबल इंजन” की शक्ति का उपयोग शिक्षा बचाने के बजाय केवल सत्ता और भ्रष्टाचार के इस तंत्र को बचाए रखने में किया जा रहा है।
बिहार का भविष्य: तालीम पर लगा ताला और निर्णायक जवाबदेही
बिहार में शिक्षा व्यवस्था की इस भयानक बदहाली का सबसे दर्दनाक नतीजा यह है कि हर साल लाखों बच्चे और युवा बेहतर भविष्य की तलाश में अपने राज्य को छोड़कर पलायन कर रहे हैं। ये वीरान होते स्कूल इस बात का प्रतीक हैं कि “डबल इंजन” की सरकारें केवल सत्ता बचाने में लगी हैं, शिक्षा बचाने में नहीं। वे जानते हैं कि जिस राज्य के स्कूल में बिजली नहीं, पर्याप्त शिक्षक नहीं और सीखने का माहौल नहीं, वहाँ उनके सपनों की कोई गारंटी नहीं है। यह निराशा और टूटे सपनों की त्रासदी है जो गाँव-गाँव पसरी हुई है।
अब यह सवाल सिर्फ़ विपक्ष या आलोचना का नहीं—यह सवाल हर नागरिक, हर अभिभावक और हर बच्चे का है: कब खुलेगा तालीम पर लगा यह ताला? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों को इस विफलता की निर्णायक ज़िम्मेदारी लेनी होगी, क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों एक ही डूबती हुई नाव में सवार हैं, और उसके साथ बिहार की आने वाली पीढ़ी का भविष्य भी डूब रहा है। यदि यह “अमृत काल” है, तो बिहार के इन वंचित बच्चों के लिए यह निश्चित रूप से अंधकार काल है, जिसके लिए इतिहास सरकारों को “तालीम का गुनहगार” लिखेगा।