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पैसे की भाषा: ट्विटर, सऊदी अरब और डिजिटल सत्ता का नया युग

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वाशिंगटन 12 अक्टूबर 2025

सऊदी अरब का ट्विटर में निवेश सिलिकॉन वैली में उसके प्रभाव को बढ़ाने के साथ-साथ देश के अंदर शासन के आलोचकों को दबाने के लिए भी इस्तेमाल किया गया।

— जैकब सिल्वरमैन

द गार्डियन के वरिष्ठ पत्रकार

टेक्नोलॉजी के युग में “डेटा” ही नई ताक़त बनकर उभरी है — और वही ताक़त अब राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक नियंत्रण के सबसे निर्णायक उपकरणों में से एक बन चुकी है। जैकब सिल्वरमैन की रिपोर्ट ने जो सच्चाइयां उजागर कीं—सऊदी अरब के निवेश, ट्विटर के अंदर चल रही जासूसी, और एलन मस्क के अधिग्रहण के बाद प्लेटफ़ॉर्म के बदलते स्वरूप—वे सिर्फ़ एक कंपनी की कहानी नहीं हैं; वे एक वैश्विक तंत्र की चेतावनी हैं जिसमें पूँजी, राज्य और टेक्नोलॉजी के टकराव से लोकतंत्र और निजता पर गहरा असर पड़ रहा है। इस लेख का उद्देश्य वही बातें संक्षेप में एक जगह पिरोकर यह स्पष्ट करना है कि क्यों हमें इस “डिजिटल सत्ता” के नए युग पर गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है — और आगे क्या नीतियाँ और रक्षात्मक कदम जरूरी हैं।

सिलिकॉन वैली और खाड़ी: निवेश से प्रभाव तक का रास्ता

सऊदी अरब ने पिछले एक दशक में अपनी विशाल तेल-आय और जनता के सामने दिखने वाले सुधारों के वायदों का इस्तेमाल वैश्विक निवेश के जरिये किया। पब्लिक इन्वेस्टमेंट फंड (PIF) व अन्य माध्यमों से सऊदी धन ने सिलिकॉन वैली में बड़े पैमाने पर निवेश किया — Uber, अलग-अलग वेंचर फंड, बड़े टेक और मीडिया प्लेटफॉर्म्स तक। यह केवल वित्तीय लेन-देन नहीं था; यह प्रभाव का द्वार भी खोल रहा था। निवेश करने वाला पैसा अक्सर केवल रिटर्न नहीं चाहता; वह भरोसे, पहुँच और कभी-कभी राजनीतिक संवेदनशीलताओं के अनुरूप ‘अनुकूल’ वातावरण भी चाहता है।

इस गठजोड़ के दो सरोकार उभरे। पहला — सऊदी तंत्र अपनी छवि सुधारने, आर्थिक विविधीकरण और विदेशों में प्रभाव बढ़ाने की रणनीति पर था। दूसरा — सिलिकॉन वैली को दिग्गज पैठ, बड़े यूज़र बेस और नकद प्रवाह चाहिए था। इस मेल से प्लेटफ़ॉर्म और सरकारी हितों के बीच एक सूक्ष्म (और कई बार छिपा) समझौता बनता चला गया — और समझौते अक्सर प्रयोगशाला से बाहर जुर्माने वाले परिणाम देते दिखे।

ट्विटर के भीतर जासूसी: कैसे निजी कंपनी राज्य-शासन के उपकरण बन गई

कहानी का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि ट्विटर जैसे प्लेटफ़ॉर्म ने न सिर्फ़ बाहरी दबावों को सहा बल्कि उसके अंदर ऐसे लोग रहे जिन्होंने संवेदनशील उपयोगकर्ता डेटा की पहुँच का दुरुपयोग किया। सैन फ्रांसिस्को के ट्विटर मुख्यालय में कुछ कर्मचारियों के साथ सऊदी अधिकारियों के संपर्कों ने डेटा की खरीद-फरोख्त और असंतुष्टों की पहचान का ज़रिया बना दिया। कर्मचारियों के रिश्वत लेने, निजी संदेश, ईमेल और आईपी लोकेशन साझा करने जैसी घटनाएँ एक संक्रामक उदाहरण थीं कि कैसे तकनीकी पहुँच किसी तानाशाही तंत्र को transnational repression के साधन में बदल सकती है।

नतीजा क्या निकला? पेन नेम यानी छद्म नामों के पीछे छिप कर बोलने वाले नागरिक भी सुरक्षाहीन हो गए। जिन देशों में स्वतंत्र मीडिया का अभाव है, वहाँ ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया को जनता की आवाज़ मान लिया गया था — पर उसी प्लेटफ़ॉर्म ने कई बार उन आवाज़ों का शिकार बनने में भूमिका निभायी। यह सिर्फ़ व्यक्तिगत मामलों का प्रश्न नहीं; यह मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों का व्यापक संकट है।

जमाल ख़ाशोगी और ‘टेक्नो-राज्य’ की छाया

जमाल ख़ाशोगी की हत्या ने यह दिखाया कि कैसे एक राज्य अपने आलोचकों को विदेशों में भी निशाना बना सकता है। ट्विटर-जैसी सेवाओं के माध्यम से किसी की पहचान करना, उनका स्थान-स्थल चिन्हित करना और उनके सञ्जाल को खोल देना — ये डिजिटल युग की नई पद्धतियाँ हैं जो पारंपरिक आतंकवाद और दमन के तरीकों को पूरी तरह बदल देती हैं। ख़ाशोगी का मामला बताता है कि राज्य-स्तरीय हिंसा और डिजिटल निगरानी का गठजोड़ कितना खतरनाक बन सकता है जब तकनीक और राजनीतिक इच्छाशक्ति साथ मिल जाए।

यहाँ दो बातें स्पष्ट हैं — पहली, निजी कंपनियों का नैतिक दायित्व केवल शेयरहोल्डर रिटर्न तक सीमित नहीं हो सकता; दूसरी, देश की सुरक्षा और मानवाधिकारों के बीच संतुलन नेक है, और अक्सर निवेश व व्यापारिक हित उस संतुलन को धक्का दे देते हैं।

एलन मस्क का अधिग्रहण: ‘स्वतंत्रता’ का आवरण और वास्तविकता

एलन मस्क की ट्विटर खरीद — जिसके साथ कम्पनी का नाम बदलकर “X” कर दिया गया — ने टेक उद्योग में एक नया अध्याय खोला। मस्क ने प्लेटफ़ॉर्म को ‘फ्री स्पीच’ का किलानामा दिया, पर असल में नीतियाँ बदलने, कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर छंटनी, और कानूनी मोर्चों पर कंपनी की जवाबदेही को सीमित करने जैसा काम हुआ। बहुत से कर्मचारियों के हटाए जाने, शेयरहोल्डरों की सूची को सील करने और मुकदमों को मैनिपुलेट करने के प्रयास यह संकेत देते हैं कि टेक्नो-उदारवाद के नारे के नीचे एक सख्त व्यावसायिक रणनीति काम कर रही थी — जो पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धान्तों के खिलाफ है।

आदर्शवादी नारे और निजी साम्राज्य एक साथ नहीं चलते। जब प्लेटफ़ॉर्म के मालिकों या निवेशकों की पहचान और हित सार्वजनिक जाँच से बाहर रखी जाती है, तो लोकतांत्रिक विमर्श और उपयोगकर्ता सुरक्षा के लिए जोखिम बढ़ता है। प्लेटफ़ॉर्म पर नियम और सुरक्षा नीतियाँ किसके हित में बन रही हैं, यह छिपा रह जाता है — और वह छुपी हुई परत अक्सर सार्वजनिक हित के विरोध में होती है।

अदालतें, नियमन और न्यायिक झुकाव

मामलों की कानूनी जटिलता ने यह भी दिखाया कि कैसे कॉर्पोरेट शक्ति न्यायिक प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकती है—न केवल मुकदमों का चयन और फ़ोरम शिफ्ट करने में, बल्कि ऐसे न्यायाधीशों के चयन में भी जिनके फ़ैसलों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष असर कंपनी के पक्ष में जा सके। जब किसी कंपनी के लिए कानूनी मुकदमों का मंच तय किया जा सकता है और संवेदनशील दस्तावेज़ सील कर दिए जाते हैं, तो पारदर्शिता और जवाबदेही कमजोर पड़ती है। इससे पूँजी और न्याय के बीच असंतुलन का खतरा बढ़ता है — और आम नागरिकों का भरोसा व्यवस्था पर डगमगा सकता है।

एक लोकतांत्रिक समाज में ज़रूरी है कि प्लेटफ़ॉर्म और उनकी नीतियों की पारदर्शिता रहे — न कि उन्हें निजी तौर पर तय किया जाए। न्यायालयों की निष्पक्षता और मीडिया की स्वतंत्रता दोनों इस संतुलन की रक्षा के मूल तत्व हैं।

वैश्विक नीतिगत और नियामक निहितार्थ

इस प्रकरण ने साफ़ कर दिया कि अब केवल ‘देशी’ कानून पर्याप्त नहीं रह गए — डेटा और प्लेटफ़ॉर्म का प्रभाव ट्रांसनेशनल है। इसलिए कई कदम जरूरी हैं:

  1. पारदर्शिता के कड़े नियम: सोशल मीडिया कंपनियों के लिए स्वामित्व संरचना, बड़े निवेशकों की पहचान और हितों का खुलासा अनिवार्य होना चाहिए। सार्वजनिक संवाद के मंच पर यह जानकारी लोकतंत्र की आधारशिला है।
  1. डेटा सुरक्षा और एक्सेस नियंत्रण: कर्मचारियों की डाटा पहुँच और उनके रिश्तों पर पारदर्शी निगरानी व ऑडिट जरूरी हैं। विदेशी एजेंटों के प्रभाव को रोकने के लिये नियमित सुरक्षा समीक्षा और थर्ड-पार्टी ऑडिट अपनाने चाहिए।
  1. मानवाधिकारों के मापदंड: बड़े प्लेटफ़ॉर्म को मानवाधिकार प्रभाव आकलन (Human Rights Impact Assessment) और जोखिम निवारण रिपोर्ट प्रकाशित करनी चाहिए। जिन देशों में अभिव्यक्ति पर पाबंदी है, वहाँ के उपयोगकर्ताओं की सुरक्षा विशेष प्राथमिकता होनी चाहिए।
  1. अंतरराष्ट्रीय सहयोग: डेटा प्रवाह और प्ले�फॉर्म के बाध्यकारी निर्देशों की वजह से देशों के बीच सहयोग जरूरी है — पर साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि यह सहयोग मानवाधिकार संरक्षण के सिद्धान्तों पर आधारित हो।
  1. न्यायिक और नियामक स्वायत्तता: अदालतों में फ़ोरम-शॉपिंग रोकने के लिए नियम आवश्यक हैं ताकि कॉर्पोरेट हितों के लिए अनुकूल न्यायिक स्थान चुना न जा सके। साथ ही मीडिया व रिपोर्टिंग संस्थाओं को कानूनी संरक्षण देना होगा ताकि वे पारदर्शिता की माँग कर सकें।

 भारत के संदर्भ में चिंताएँ और तैयारियाँ

भारत जैसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह विषय विशेष महत्व रखता है। हमारी डिजिटल जनसंख्या और सोशल मीडिया पर निर्भरता का मतलब है कि विदेशी निवेश और प्लेटफ़ॉर्म नीतियाँ सीधे हमारे सार्वजनिक विमर्श, चुनावी माहौल और नागरिक अधिकारों को प्रभावित कर सकती हैं। भारत को चाहिए कि:

बड़े प्लेटफ़ॉर्मों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पारदर्शिता और डेटा सुरक्षा मानक कड़े करे।

ऑनलाइन सेंसरशिप, निजी डेटा के उपयोग और विदेशी प्रभाव के खिलाफ दीर्घकालिक रणनीति बनाये।

पत्रकारों, मानवाधिकार संस्थाओं और सिविल सोसायटी को भी रिपोर्टिंग और पारदर्शिता के लिए सशक्त संरक्षण मिले।

यह केवल तकनीकी मुद्दा नहीं; यह राजनीतिक स्वतन्त्रता और सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न है।

व्यक्तिगत व सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ

टेक कंपनी या सरकार ही एकल समाधान नहीं हो सकते। नागरिकों, पत्रकारों और नागरिक समाज संस्थाओं की भी बड़ी ज़िम्मेदारी है — सूचना को पकड़ कर रखना, स्रोतों की वैरिफिकेशन करना, और उन प्लेटफ़ॉर्म्स की माँग करना जो पारदर्शिता, जवाबदेही और अधिकारों की रक्षा करें। NGOs और मीडिया हाउसों को मिलकर कंपनियों पर निगरानी करनी चाहिए, शैक्षिक प्रोग्राम चला कर लोगों को डिजिटल सुरक्षा के उपाय सिखाने चाहिए, और नीति निर्माताओं पर दबाव बनाना चाहिए कि वे वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर मानक तय करें।

डिजिटल युग में नैतिकता और नियंत्रण का संतुलन

ट्विटर-सऊदी-मस्क की कहानी यह याद दिलाती है कि तकनीक स्वयं में अच्छी या बुरी नहीं होती — लेकिन जो लोग उसे नियंत्रित करते हैं, और जिन नीतियों के तहत वे संचालित करते हैं, उसी से परिणाम तय होते हैं। जब पैसा और सत्ता मिलकर सूचना के साधनों को नियंत्रित करें, तो लोकतंत्र, गोपनीयता और मानवाधिकार जोखिम में पड़ जाते हैं। इसलिए हमें सिर्फ कंपनियों या सरकारों पर निर्भर न रहकर, एक विवेकपूर्ण, पारदर्शी और अधिकार-आधारित इंटरनैशनल ढाँचा तैयार करना होगा — ताकि डिजिटल दुनिया में भी इंसान की गरिमा और आवाज़ सुरक्षित रहे।

अंत में, जैसा कि रिपोर्ट कहती है: “पैसे की भाषा ही अब राजनीति की भाषा है।” इस भाषा को समझना, उजागर करना और उसके दुरुपयोग का सामना करना हमारी साझा ज़िम्मेदारी है — न कि केवल कुछ विशेषज्ञों या संस्थाओं का काम। अगर हम चुप बैठ गए, तो डिजिटल दुनिया वही करेगी जो सत्ताधारक उसे करने के लिए कहेंगे — और तब हमारे लोकतंत्र, हमारी निजता और हमारी आज़ादी का मूल्य नापना कठिन हो जाएगा।

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