नई दिल्ली, 1 नवंबर 2025
भारत की राजधानी, जो खुद को दुनिया के सबसे सुरक्षित और आधुनिक शहरों में गिनाने का दावा करती है, अब बच्चों के लापता होने की राजधानी बनती जा रही है। दिल्ली पुलिस के आधिकारिक आंकड़े सामने आने के बाद राजधानी के हर जिम्मेदार नागरिक के मन में एक ही सवाल उठ रहा है — आखिर दिल्ली के ये 1.8 लाख मासूम बच्चे कहां गए? पिछले दस वर्षों में लापता हुए बच्चों की यह संख्या न केवल डराती है, बल्कि पूरे तंत्र की संवेदनहीनता और कानून व्यवस्था की पोल खोल देती है।
हैरान करने वाला तथ्य यह है कि इन लापता बच्चों में लड़कियों की संख्या कहीं अधिक है। यानी दिल्ली की गलियों में बच्चियां आज भी सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। आंकड़ों के अनुसार, 2013 से लेकर 2023 तक लगभग 1 लाख 8 हजार से ज्यादा बच्चियां लापता हुईं, जबकि लड़कों की संख्या करीब 70 हजार के आसपास रही। यह असमानता अपने आप में एक गहरी सामाजिक और पुलिसीय विफलता की कहानी कहती है।
पुलिस रिकॉर्ड बताते हैं कि इन मामलों में से बड़ी संख्या में बच्चे कभी नहीं मिल पाए। कई मामलों में जांच अधूरी रह गई, कई में फाइलें बंद कर दी गईं, और कुछ में तो परिवारों को यह तक नहीं बताया गया कि केस की स्थिति क्या है। दिल्ली जैसे शहर में, जहां हर कोने में सीसीटीवी कैमरे, निगरानी सिस्टम और स्मार्ट पुलिसिंग का दावा किया जाता है, वहां एक-एक बच्चे का यूं गायब हो जाना राज्य की नाकामी का जीता-जागता सबूत है।
सबसे भयावह पहलू यह है कि लापता होने वाले अधिकांश बच्चे गरीब बस्तियों, झुग्गियों और प्रवासी परिवारों से हैं। इनमें से कई मजदूरों, घरेलू सहायकों या रिक्शा चालकों के बच्चे हैं, जिनके पास ना तो राजनीतिक पहुंच है, ना मीडिया की आवाज़। कई बार उनके गुमशुदा रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की जाती, या फिर हफ्तों बाद जांच शुरू होती है। परिणाम यह होता है कि इन बच्चों को मानव तस्करी, यौन शोषण, बाल मजदूरी या गैंगों के जाल में धकेल दिया जाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली में “बाल तस्करी नेटवर्क” बेहद संगठित है, और पुलिस या प्रशासन इस पर निर्णायक कार्रवाई करने में असफल रहा है। कई एनजीओ और सामाजिक संगठनों का दावा है कि हर महीने सैकड़ों बच्चे देश के अलग-अलग हिस्सों में ले जाए जाते हैं — कुछ को बाल मजदूरी में झोंक दिया जाता है, कुछ यौन उत्पीड़न की शिकार बनती हैं, और कुछ का कोई पता तक नहीं चलता।
दिल्ली हाईकोर्ट और नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (NHRC) ने कई बार सरकार और पुलिस को फटकार लगाई है कि गुमशुदा बच्चों की तलाश को प्राथमिकता दी जाए, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि अधिकांश थानों में इन मामलों को “रूटीन केस” की तरह निपटाया जाता है। बच्चों की तलाश के लिए कोई विशेष तंत्र या तेज़ कार्रवाई योजना नहीं है।
दिल्ली की महिला और बाल विकास एजेंसियों का भी रवैया सवालों के घेरे में है। हर साल करोड़ों रुपये “बाल सुरक्षा योजनाओं” के नाम पर खर्च किए जाते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इन योजनाओं का कोई असर नहीं दिखता। जो माता-पिता अपने बच्चों को खो चुके हैं, वे आज भी थानों और अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं, जबकि अपराधी खुलेआम घूम रहे हैं।
दिल्ली पुलिस ने दावा किया है कि पिछले कुछ वर्षों में “मिलाए गए बच्चों की संख्या” बढ़ी है, लेकिन यह दावा आंकड़ों के समंदर में एक बूँद से ज्यादा कुछ नहीं। जब तक हर गुमशुदा बच्चे को ढूंढने के लिए पुलिस की जवाबदेही तय नहीं की जाएगी, तब तक यह आंकड़े और भी भयावह रूप लेंगे।
राजधानी के इन आँकड़ों ने केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार दोनों पर सवाल खड़े कर दिए हैं — क्या विकास और स्मार्ट सिटी के शोर में हमने बच्चों की सुरक्षा को भुला दिया है? क्या दिल्ली जैसे शहर में बच्चे सिर्फ “फाइलों के नंबर” बनकर रह गए हैं?
यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि 1.8 लाख टूटे हुए घरों की चीख, 1.8 लाख माताओं की नींद उड़ाने वाला दर्द और 1.8 लाख अधूरी कहानियों का दस्तावेज़ है। अगर सरकार और पुलिस अब भी नहीं जागी, तो दिल्ली का भविष्य भी इन गायब होती बचपन की छायाओं में खो जाएगा।




