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मीडिया का छुपा हुआ हाथ: समाज में भेदभाव की सोच को कैसे आकार देता है मीडिया

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निपुणिका शाहिद, असिस्टेंट प्रोफेसर, मीडिया स्ट्डीज, स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, क्राइस्ट यूनिवर्सिटी दिल्ली NCR 

नई दिल्ली 6 अक्टूबर 2025

मीडिया को अक्सर कहते हैं कि वह लोकतंत्र की ऑक्सीजन है, पर अगर यह ऑक्सीजन गंदी हो जाए तो नतीजा खतरनाक होता है। मीडिया सिर्फ़ खबरें नहीं दिखाता — वह हमारी सोच, हमारे डर और हमारी उम्मीदें भी बनाता है। जो तस्वीरें, शब्द और किस्से हम रोज़ देखते हैं, वे हमें यह तय करके देते हैं कि कौन सही है, कौन गलत है, किसे सहानुभूति मिले और किसे शक की नजर से देखा जाए। आज के समय में, जब एक छोटी पोस्ट या हेडलाइन से लोगों की राय पलट सकती है, मीडिया की ताकत बहुत बड़ी है; इसी वजह से यह जरूरी है कि हम समझें कि मीडिया भेदभाव की धारणा कैसे बनाता और बढ़ाता है।

मीडिया हमारी सोच पर चार मुख्य तरीकों से असर डालता है: पहली बात यह कि वह पुरानी रूढ़ियों को बार-बार दोहराता है। अगर फिल्मों, समाचारों और प्रोग्रामों में बार-बार दिखाया जाए कि औरतें बस घर संभालती हैं, दलित हमेशा पीड़ित हैं, या किसी समुदाय को अपराध से जोड़कर दिखाया जाए तो धीरे-धीरे वे बातें सच जैसी लगने लगती हैं। यह कोई रचना नहीं रहती, बल्कि समाजिक शॉर्टकट बन जाती हैं — लोग बिना जाने-समझे मानने लगते हैं। दूसरी बात यह कि मीडिया अक्सर आधा सच दिखाता है या कुछ पहलुओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर देता है। उदाहरण के तौर पर प्रवासियों द्वारा किए गए एक अपराध को बड़ा करके दिखा देना जबकि उनके योगदान की खबरें दबा दी जाती हैं, एक तरह का असंतुलन खड़ा कर देता है। भारत में दलितों पर होने वाले अत्याचारों को ‘‘गाँव की झगड़बाज़ी’’ कह देना उस बात का एक साफ़ उदाहरण है, जिससे समस्या की जड़ — यानी जातिगत अत्याचार — छिप जाती है। तीसरी और बहुत ताक़तवर चीज़ है शब्दों और फ्रेमिंग का खेल; एक ही घटना को अलग शब्दों में पेश करने से जनता की भावना बिल्कुल बदल जाती है — उदाहरण के लिए ‘‘प्रवासी शहर पर बोझ’’ कहने से डर पैदा होता है, जबकि ‘‘नए लोगों ने शहर की रौनक बढ़ाई’’ कहने से सहानुभूति बढ़ती है। कोविड-19 के दौरान कुछ मीडिया हेडलाइनों ने जैसे ‘‘कोरोना जिहाद’’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर दिया, उससे पूरे समुदाय के खिलाफ नकारात्मक माहौल बन गया और असली समस्या — स्वास्थ्य संकट — पीछे छूटी। चौथा और शायद सबसे खतरनाक तरीका है किसी समूह का न दिखना या बहुत कम दिखना — जब समाचार कक्षों में संपादन करने वाले लोग एक ही वर्ग या जाति के हों तो खबरों में विविधता नहीं रहेगी; Oxfam–Newslaundry की रिपोर्ट बताती है कि भारत के कई शीर्ष मीडिया संस्थानों में नेतृत्व ऊँची जाति के पुरुषों के पास है और दलित/आदिवासी/महिलाओं की उपस्थिति न के बराबर है — इसका सीधा असर यह होता है कि जिनकी आवाज़ नहीं होती, उनकी कहानी भी नहीं बनती।

यदि हम भारत के उदाहरणों पर गौर करें तो यह तस्वीर और भी स्पष्ट दिखती है। बॉलीवुड में उम्र और लिंग के आधार पर भेदभाव आम बात बन चुका है — बड़े उम्र के पुरुष आज भी हीरो बनकर दिख सकते हैं जबकि महिलाएं 30 पार होते ही माँ के किरदारों में ज़बरदस्ती दे दी जाती हैं; इससे युवा लड़कियों के करियर की संभावनाएँ और जनमानस की सोच प्रभावित होती है। दलितों पर हुए अत्याचारों की रिपोर्टिंग में ‘‘जाति’’ शब्द का अूनुपस्थिति कर देना बहुत बार मामला की गंभीरता को कम कर देता है और न्याय की माँग धीमी पड़ जाती है। उत्तर-पूर्व के लोगों को अक्सर अखबारों या टीवी में ‘‘मणिपुरी लड़की’’ या ‘‘नागा युवक’’ जैसे टैग के साथ दिखाया जाता है, जिससे वे देश के मुख्य धारा से अलग-थलग समझे जाते हैं। किसान आंदोलनों के समय कुछ चैनलों ने किसानों के मुद्दे को सही तरह पेश किया, तो कुछ ने उन्हें असलियत से अलग कर करार दे दिया — इसे ‘‘खालिस्तानी’’ जैसे लेबल लगाकर मुद्दे को बदनाम कर दिया गया। और कोविड की शुरुआत में कुछ मीडिया रिपोर्टिंग ने एक धार्मिक जमात की घटना को संग्रहित करके पूरे समुदाय पर शक और हिंसा का माहौल बना दिया — यह दिखाता है कि भाषा और चुनिंदा कवरेज किस तरह समाज में नफ़रत और विभाजन पैदा कर सकती है।

आँकड़े भी इस असमानता की कहानी बयां करते हैं। मजदूरी और वेतन के मामले में महिलाओं को अभी भी पुरुषों से 19% कम मिलता है; मीडिया संस्थानों के शीर्ष पर दलितों की अनुपस्थिति ऐसे संकेत देती है कि जो खबरें बनती हैं, वे समाज के सभी हिस्सों को बराबर दिखाने में विफल रहती हैं; 70% से अधिक महिला पत्रकारों को ऑनलाइन धमकियाँ और यौन-आधारित हिंसा का सामना करना पड़ता है, जो बताता है कि खबरें बनाने वालों की भी सुरक्षा और समानता एक मुद्दा है; और संसद में महिलाओं की कम हिस्सेदारी स्वयं इस बात का द्योतक है कि समाजिक सत्ताफ़लकियाँ अब भी असमान हैं। ये आंकड़े यह संकेत देते हैं कि मीडिया न केवल समाज की असमानता को दिखाता है, बल्कि उस असमानता का ही एक हिस्सा बन चुका है।

डिजिटल युग ने मीडिया की पहुँच और प्रभाव को और तेज़ कर दिया है पर साथ ही जोखिम भी बढ़ा दिए हैं। एल्गोरिद्म और AI तय करते हैं कि आपको क्या दिखेगा; और यह तय करने में अक्सर सेंसेशनल और भावनात्मक कंटेंट को ऊँचा रखते हैं क्योंकि वह ध्यान खींचता है। MIT की एक स्टडी ने कहा कि झूठी खबरें सच्ची खबरों से कई गुना तेज़ी से फैलती हैं — इसका मतलब यह है कि गलत धारणाएँ जल्दी बनकर जम जाती हैं और ‘‘इको चैंबर’’ में फँस जाती हैं जहाँ लोग केवल वही सुनते हैं जो उनकी पहले से बनी राय को पुष्टि करे। दूसरी तरफ़, यही डिजिटल दुनिया उन लोगों के लिए एक मंच भी बना सकती है जिन्हें पहले कभी सुना नहीं गया — #MeToo और #BlackLivesMatter जैसी मुहिमों ने दिखाया कि अब सोशल मीडिया के जरिये लोग सीधे अपनी बात पहुँचा सकते हैं और परंपरागत मीडिया गेटकीपर्स को दरकिनार कर सकते हैं। इसलिए समस्या यह है कि हम कैसे एल्गोरिथ्म और डिजिटल पढ़ाई (algorithmic literacy) सिखाएँ ताकि लोग समझें कि क्या साझा करें, क्यों साझा करें और किस तरह की कहानियाँ भरोसेमंद हैं।

मीडिया और शिक्षा के क्षेत्र में भी सच्चाई यह है कि कक्षाओं में बराबरी की बातें पढ़ाई जाती हैं, पर मैदान में उतरते ही बहुत से विद्यार्थियों को अलग तरह का व्यवहार मिलता है। दलित और आदिवासी न्यूज़ पीपर ग्रेजुएट्स को अक्सर सिर्फ ‘‘सोशल बीट’’ देने के लिए ही रखा जाता है, महिला इंटर्न्स को महीनों तक असमानता और परेशानियों के साथ काम करना पड़ता है, और अर्थशास्त्र या राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी जाति-लिंग के आधार पर नौकरियाँ और सम्मान में भेदभाव देखा जाता है। इसलिए सिर्फ़ विचार पढ़ाने से काम नहीं चलेगा — हमें छात्रों को वह हिम्मत और कौशल देना होगा जिससे वे उद्योग में परिवर्तन ला सकें।

तो समाधान कैसे निकाला जाए? शिक्षकों, पत्रकारों और नीतिनिर्माताओं के सामने तीन बड़ी जिम्मेदारियाँ हैं। पहली, मीडिया साक्षरता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना — बच्चों और युवाओं को यह सिखाना कि खबरें कैसे बनती हैं, हेडलाइन कैसे हमारे भाव बदलती है, और किस तरह के एल्गोरिद्म हमारी सोच को आकार देते हैं। दूसरी, पाठ्यक्रम और समाचार कक्षों में विविधता लाना — यानी सिर्फ़ हाशिये की कहानियाँ बताना नहीं, बल्कि उन्हें मुख्य धार में रखना; दलित, आदिवासी, महिला और अन्य कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों की कहानियों को बराबर माने। तीसरी, उद्योग के साथ साझेदारी करके इंटर्नशिप, मेंटरशिप और भर्ती नीतियाँ बदलना ताकि भविष्य की खबरें और रिपोर्टिंग ज्यादा समावेशी बनें। पत्रकारों को भी संदर्भ के साथ गहरी रिपोर्टिंग करनी होगी — सतही और सनसनीखेजी हेडलाइन से बचना होगा — और फेक न्यूज का मुकाबला करने के लिये फ़ैक्ट-चेकिंग संस्थाओं के साथ काम बढ़ाना होगा।

अंत में, हमें यह समझना होगा कि मीडिया सिर्फ़ खबरें नहीं बनाता — वह सोच, भावना और समाज का नैतिक तापमान भी बनाता है। मीडिया का असली काम केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि जिम्मेदारी के साथ जानकारी देना है। अगर मीडिया सहानुभूति, सच्चाई और संदर्भ के साथ काम करे, तो वह विभाजन नहीं जोड़ने वाला बल बनेगा, बल्कि समझ और एकता का जरिया बनेगा। लोकतंत्र तब तक जीवित रहेगा जब लोग सवाल करेंगे, सोचेंगे और अलग दृष्टिकोणों को समझने की कोशिश करेंगे — और मीडिया तभी लोकतंत्र की असली ऑक्सीजन कहलाएगा जब वह साफ़, निष्पक्ष और ज़िम्मेदार होगा। इसलिए हमारा लक्ष्य होना चाहिए — वह मीडिया बनाना जो डर फैलाने की जगह समझ पैदा करे, और जो भेदभाव की जड़ों को उजागर करके समाज को जोड़ने का काम करे।

 

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