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चुनाव आयोग का काला खेल: बैलेट से EVM तक, लोकतंत्र की हत्या का राष्ट्रीय रैकेट

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नई दिल्ली 9 नवंबर 2025

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में बैलेट पेपर से लेकर ईवीएम तक का सफर सिर्फ तकनीकी बदलाव नहीं, बल्कि राजनीतिक अविश्वास और संस्थागत जगहों पर उठते सवालों की लंबी गाथा बन चुका है। बैलेट पेपर के दौर में, जब तकनीक नहीं थी, कागज़ और कलम का सरल सिस्टम था, तब चुनाव आयोग पूरी रात मतगणना करता और सुबह परिणाम घोषित हो जाते—किसी को देरी का बहाना नहीं मिलता, किसी को तकनीकी glitch का हवाला नहीं दिया जाता। उस समय की गिनती धीमी जरूर थी, मगर प्रक्रिया पर जनता का विश्वास कहीं अधिक था। परंतु आज, ईवीएम और वीवीपैट के अत्याधुनिक दौर में, वही चुनाव आयोग अक्सर परिणामों को कई दिनों तक रोके रखने के लिए मजबूर दिखाई देता है। विशेषज्ञों और विपक्षी दलों के अनुसार, यह देरी केवल तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि एक गंभीर सवाल है—क्योंकि जहाँ पारदर्शिता बढ़नी चाहिए थी, संदेह बढ़ रहा है।

2024 और फिर हरियाणा-महाराष्ट्र जैसे हालिया चुनावों में यह पैटर्न और स्पष्ट हुआ। विपक्ष का कहना है कि शुरुआती रुझानों में जहाँ विपक्षी गठबंधन आगे दिख रहा था, वहीं अंतिम परिणामों में “जादुई” 5-6% की बढ़त सत्ताधारी दल के पक्ष में देखी गई—एक ऐसा अंतर जो बैलेट पेपर के काल में कभी 1-2% से अधिक नहीं हुआ करता था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 2025 में इसे “चुनावी संरचना की सबसे बड़ी विसंगति” बताया और दावा किया कि लाखों मतदाता सूची से बाहर किए गए। यह आरोप चाहे सिद्ध न हुआ हो, लेकिन मतदाता सूचियों की सफाई, डिलीशंस और एडिशंस को लेकर उठ रहे सवालों ने आम मतदाता में भी बेचैनी पैदा की है।

बैलेट पेपर के युग में पारदर्शिता का अर्थ था कागज़ की ट्रैकिंग—हर बैलेट की नज़रबंदी, हर वोट की physical उपस्थिति। लेकिन ईवीएम को लेकर असली विवाद उसकी “ब्लैक बॉक्स” प्रकृति और डेटा की अदृश्यता है। कई टेक्नोलॉजी विशेषज्ञों का तर्क है कि जब तक सॉफ्टवेयर और डेटा प्रोटोकॉल सार्वजनिक ऑडिट के लिए उपलब्ध नहीं होंगे, तब तक यह कहना कठिन है कि प्रक्रिया पूर्णतः सुरक्षित है। हालांकि चुनाव आयोग बार-बार आश्वासन देता रहा है कि ईवीएम छेड़छाड़-रोधी है, लेकिन यह सवाल उठते ही रहते हैं कि अगर सब कुछ इतना पारदर्शी है, तो परिणामों में देरी क्यों और सीसीटीवी फुटेज जैसे महत्वपूर्ण प्रमाण क्यों उपलब्ध नहीं किए जाते?

चुनाव आयोग और विपक्ष के बीच टकराव का सबसे विस्फोटक बिंदु सीसीटीवी फुटेज ही बना—पोलिंग बूथों पर 24×7 निगरानी के लिए लगाए गए कैमरों का डेटा जनता या राजनीतिक दलों को उपलब्ध क्यों नहीं कराया जाता? आयोग का तर्क रहा कि इससे वोटरों की पहचान उजागर हो सकती है, पर विपक्ष इसका खंडन करते हुए कहता है कि फेसलेस (blurred) फुटेज जारी करना कोई समस्या नहीं है। जब आरटीआई में माँगा गया फुटेज न देने पर आयोग ने कानूनी प्रावधानों का हवाला दिया, तब यह विवाद और गहरा गया। आलोचकों का कहना है कि यदि फुटेज में सब कुछ साफ-सुथरा है, तो गोपनीयता का तर्क जितना दिया जा रहा है, वह उतना ही संदेह को जन्म देता है।

इसी तरह, पोस्टल बैलेट की गिनती को लेकर भी बहस गर्म है। पहले यह गिनती ईवीएम के साथ-साथ होती थी, लेकिन हाल में हुई प्रक्रिया में बदलावों ने पूर्व की पारदर्शिता को कम किया है। विपक्ष का आरोप है कि देरी से वोटिंग पैटर्न को आकार दिया जा सकता है, जबकि आयोग इसे तकनीकी तर्कों के आधार पर खारिज करता है। देश के कई हिस्सों में “डेड वोटर्स”, “डुप्लीकेट वोटर्स” और “गायब नामों” के आरोपों ने मतदाता सूचियों की विश्वसनीयता को प्रश्नों के घेरे में डाल दिया है—जैसा कि बिहार और महाराष्ट्र में विपक्ष द्वारा खोले गए मामलों से स्पष्ट होता है।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी इस मुद्दे को उठाया है। फ्रांस-24 सहित कई ग्लोबल नेटवर्क्स ने 2024 और 2025 की चुनावी शिकायतों को “अभूतपूर्व” कहा और चेतावनी दी कि भारत की चुनावी प्रणाली पर भरोसा तभी बहाल हो सकता है जब चुनाव आयोग पूर्ण पारदर्शिता अपनाए और हर चरण का डेटा सार्वजनिक निगरानी के दायरे में लाए। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और ऐसे देश के चुनावों में पारदर्शिता की कमी केवल एक घरेलू मुद्दा नहीं—बल्कि वैश्विक लोकतांत्रिक विमर्श का भी हिस्सा बन जाती है।

अंत में सवाल यही है—अगर चुनाव प्रक्रिया पर उठते प्रश्नों का कोई संपूर्ण, स्पष्ट और विश्वसनीय समाधान नहीं दिया गया, तो लोकतंत्र का विश्वास तंत्र कमजोर होगा। ईवीएम, वीवीपैट, मतदाता सूची और सीसीटीवी फुटेज—ये सब तकनीकें लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए लाई गई थीं, लेकिन यदि इनका उपयोग संदेह बढ़ाने वाली अस्पष्ट प्रक्रिया में होता रहेगा, तो यह चुनाव प्रणाली पर जनता का भरोसा खोखला कर देगा। भारत को पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता है—और यह आवश्यकता जितनी आज है, शायद पहले कभी नहीं रही।

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