नई दिल्ली / मुंबई 25 सितंबर 2025
गवाह की आज़ादी और दबाव का डर
न्यायपालिका की पूरी प्रक्रिया में गवाह का बयान सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य होता है। गवाह वह है जो सच को अदालत के सामने रखता है और न्यायाधीश उसी पर अपनी धारणा बनाता है। लेकिन अगर गवाह को अपने बयान के लिए पुलिस थाने या सरकारी दफ्तर भेजा जाए, तो यह खतरा हमेशा बना रहेगा कि वह स्वतंत्र रूप से अपनी बात नहीं कह पाएगा। थाने का वातावरण ही आम नागरिक के लिए दबाव और डर से भरा होता है। वहाँ गवाह वही बोलेगा, जो पुलिस या सरकारी सिस्टम उससे बुलवाना चाहेगा — यह आशंका सिर्फ़ कल्पना नहीं, बल्कि हमारे देश के अनुभवजन्य इतिहास का हिस्सा है।
दिल्ली में हुआ विरोध — और वह क्यों सही था
जब दिल्ली के उपराज्यपाल ने पुलिस थानों को गवाहों के डिपोजीशन का स्थान घोषित किया, तो दिल्ली बार काउंसिल और वकीलों ने इसका जोरदार विरोध किया। उनका कहना था कि थाना निष्पक्ष स्थान नहीं हो सकता। अदालत और थाना दोनों अलग-अलग संस्थाएं हैं — अदालत न्याय का प्रतीक है, जबकि थाना राज्य की एजेंसी है। अगर गवाह थाने से बयान देगा, तो बचाव पक्ष को यह चुनौती देने का कोई आधार ही नहीं मिलेगा कि बयान पर दबाव डाला गया या नहीं। यानी यह न्याय की निष्पक्षता के मूल सिद्धांत को कमजोर कर देगा। दिल्ली में इस फैसले को विरोध के बाद स्थगित करना पड़ा और यही लोकतंत्र की खूबसूरती है कि समाज और पेशेवर वर्ग ने आवाज़ उठाई।
महाराष्ट्र की अधिसूचना और उसका खतरा
अब महाराष्ट्र सरकार ने वही रास्ता अपनाया है। पुलिस थानों के साथ-साथ सरकारी दफ्तरों और अर्ध-सरकारी संस्थानों को भी बयान दर्ज करने का स्थल घोषित कर दिया गया है। सरकार का तर्क है कि इससे अदालतों पर बोझ कम होगा और गवाह आसानी से बयान दे पाएंगे। लेकिन असली सवाल है कि क्या सुविधा की आड़ में हम न्याय के मूल सिद्धांतों से समझौता कर सकते हैं? अदालत में गवाह स्वतंत्र रूप से बोलता है क्योंकि वहाँ न्यायाधीश, वकील और सभी पक्षों की मौजूदगी में प्रक्रिया चलती है। लेकिन थाने या सरकारी दफ्तर में यह संतुलन नहीं रहेगा। वहाँ की चारदीवारी गवाह की जुबान पर असर डालेगी और उसकी सच्चाई दब सकती है।
लोकतंत्र और न्याय की कसौटी
लोकतंत्र में न्यायपालिका की सबसे बड़ी ताकत उसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता है। अगर गवाह का बयान ऐसे स्थान पर दर्ज होगा जो खुद सत्ता का प्रतीक है, तो यह पूरी प्रक्रिया की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगा देगा। अदालत का वातावरण और थाने का वातावरण एक जैसा नहीं हो सकता। अदालत भरोसे का स्थान है, थाना डर का स्थान। यही फर्क न्याय को बचाता है।
यह व्यवस्था सही नहीं
वकीलों और बार काउंसिल का विरोध बिल्कुल जायज़ है। यह व्यवस्था गवाहों की आज़ादी छीन सकती है और न्यायपालिका को कमजोर कर सकती है। अगर सच में गवाहों को सुविधा देनी है, तो निष्पक्ष और स्वतंत्र डिजिटल केंद्र बनाए जाएँ — जहाँ न पुलिस हो और न सरकारी दबाव। अदालत का काम अदालत में ही होना चाहिए, पुलिस थाने में नहीं।