नई दिल्ली 29 सितंबर 2025
सावरकर की मृत्यु को 60 वर्ष और मोहम्मद अली जिन्ना की मृत्यु को 77 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन उनके नाम पर चल रही राजनीति आज भी थमी नहीं है। खासकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) बार-बार जिन्ना के नाम को राजनीतिक विमर्श में लाते हैं ताकि मुसलमानों को कटघरे में खड़ा किया जा सके और हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण हो सके।
सावरकर को संघ और बीजेपी के लोग आज भी ‘वीर’ कहकर महिमामंडित करते हैं, लेकिन इतिहास गवाही देता है कि वे अंग्रेजों से माफी मांगने वाले और उनसे पेंशन लेने वाले इंसान थे। उन्हें 60 रुपये मासिक पेंशन मिलती थी — उस दौर में जब एक शिक्षक का वेतन केवल 15 रुपये होता था। आज के संदर्भ में देखें तो अगर एक प्राथमिक शिक्षक का वेतन 50 हजार रुपये है, तो सावरकर की पेंशन करीब 2 लाख रुपये बैठती है। यह पेंशन उन्हें इसलिए मिलती थी ताकि वे मुस्लिम विरोधी भाषण दें और अंग्रेजों के पक्ष में दो-राष्ट्र सिद्धांत (टू नेशन थ्योरी) को आगे बढ़ाएं।
जिन्ना ने भी इसी सिद्धांत को पकड़ा और 1940 में लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान की मांग कर दी। इससे पहले 1935 में हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर ने इस विचार की नींव रखी थी। इस प्रकार दोनों नेताओं ने मिलकर देश को विभाजन की आग में झोंका।
बीजेपी और संघ की राजनीति में जिन्ना का नाम एक स्थायी हथियार है। जब भी उन्हें सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना होता है, जिन्ना का नाम एक डर और नफरत के प्रतीक की तरह सामने लाया जाता है। यह रणनीति हिंदुत्व के नैरेटिव को मजबूत करती है और मुसलमानों को संदिग्ध ठहराने का मौका देती है। जिन्ना के नाम पर यह कहा जाता है कि मुसलमानों ने देश तोड़ा, जबकि हकीकत यह है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों ने इस देश को ही अपनी मातृभूमि चुना और यहीं रह गए।
1971 में पाकिस्तान के बांग्लादेश में विभाजन की घटना ने साबित कर दिया कि धर्म के आधार पर बना राष्ट्र टिकाऊ नहीं होता। फिर भी जिन्ना का नाम बार-बार उठाया जाता है ताकि समाज में ध्रुवीकरण बना रहे।
हिंदुत्ववादी नफरत के सौदागरों के लिए जिन्ना और सावरकर दोनों स्थायी राजनीतिक पूंजी हैं। संघ और बीजेपी बार-बार इनके नाम को उछालकर चुनावी लाभ उठाते हैं। यह खेल तब तक जारी रहेगा जब तक राजनीति में नफरत और विभाजन का एजेंडा जिंदा है।