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सुशासन बाबू का अंग्रेजों जैसा कुशासन: बिहार के संविदा कर्मियों पर लाठीचार्ज, कई गंभीर रूप से जख्मी

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पटना | विशेष रिपोर्ट 

10 सितम्बर 2025

रोज़गार मांगने पर मिलती है लाठी, अधिकार की जगह मिलता है अत्याचार

बिहार की राजधानी पटना में बुधवार को एक गंभीर घटना घटी, जिसने राज्य सरकार की नीतियों और प्रशासनिक रवैये पर सवाल खड़ा कर दिया। भू‑सर्वेक्षण विभाग के संविदा कर्मियों ने अपनी नौकरी की बहाली की मांग को लेकर भारतीय जनता पार्टी (BJP) के कार्यालय के बाहर शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया, लेकिन इसके जवाब में पुलिस ने बल प्रयोग किया। लाठीचार्ज के दौरान कई कर्मचारी घायल हो गए और कई को गंभीर चोटें आईं। यह घटना न केवल संविदा कर्मियों के उत्पीड़न को उजागर करती है, बल्कि राज्य की “सुशासन” की छवि पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है। घायलों में महिलाएं भी शामिल हैं। 

पिछले कुछ वर्षों में बिहार सरकार ने राजस्व और भूमि सुधार विभाग के लगभग 9,000 संविदा कर्मियों की सेवाएं समाप्त कर दीं। इन कर्मियों का आरोप है कि उन्हें बिना किसी स्पष्ट कारण के नौकरी से हटा दिया गया और उनकी मांगों की अनदेखी की जा रही है। लंबे समय तक विभागीय अधिकारियों से मुलाकात और बातचीत के बावजूद कोई समाधान नहीं निकला। निराश और परेशान होकर संविदा कर्मियों ने गार्डनीबाग से भाजपा कार्यालय तक मार्च किया और वहां अपनी आवाज़ उठाई। उनका कहना था कि वे केवल अपने मूलभूत अधिकार और न्याय की मांग कर रहे हैं, लेकिन प्रशासन ने उनकी आवाज़ को दबाने का काम किया।

पुलिस द्वारा किए गए लाठीचार्ज ने इस आंदोलन को और भड़का दिया। कई लोग घायल हुए और प्रदर्शनकारी सरकार के खिलाफ नारेबाजी करने लगे। संविदा कर्मियों का कहना है कि वे शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात रख रहे थे, लेकिन सरकार ने उनके अधिकारों का उल्लंघन किया और उन्हें असुरक्षा की स्थिति में डाल दिया। इस घटना ने बिहार की नीतीश कुमार और मोदी सरकार की “सर्वोत्तम सुशासन” की छवि को गंभीर धक्का पहुंचाया, जिसे कुछ लोग अब “अंग्रेजों जैसा कुशासन” कहकर आलोचना कर रहे हैं।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले राज्य में रोजगार के नए अवसर लाने का वादा किया था। उनका दावा है कि उनकी सरकार ने 2020 से अब तक 10 लाख सरकारी नौकरियां और 39 लाख रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए हैं, और यह संख्या चुनाव से पहले 50 लाख पार कर जाएगी। लेकिन संविदा कर्मियों की यह घटना इस दावे की सच्चाई पर गंभीर सवाल उठाती है। यदि सरकार अपने वादों पर कार्रवाई नहीं करती, तो जनता का भरोसा कमज़ोर होगा और चुनावों में इसका नतीजा भुगतना पड़ेगा।

बिहार में संविदा कर्मियों का यह संघर्ष केवल नौकरी की बहाली की मांग तक सीमित नहीं है। यह राज्य सरकार की नीतियों, प्रशासनिक रवैये और नागरिक अधिकारों के प्रति असंवेदनशीलता के खिलाफ एक व्यापक विरोध का प्रतीक है। यह घटना यह भी दर्शाती है कि सुशासन की आड़ में कैसे कुशासन छिपा हो सकता है और कितने लोग इससे सीधे प्रभावित होते हैं। जनता अब इस अत्याचार और अनदेखी को बर्दाश्त नहीं करेगी, और आने वाले समय में यह संघर्ष राज्य की राजनीति और सामाजिक न्याय के लिए निर्णायक साबित होगा।

 

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