नई दिल्ली, 8 अगस्त 2025
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को कड़े शब्दों में फटकारते हुए स्पष्ट किया कि किसी भी जांच एजेंसी को संविधान और कानून के दायरे से बाहर काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। शीर्ष न्यायालय की पीठ ने कहा कि शक्तियाँ जब दी जाती हैं तो उनके साथ ज़िम्मेदारी भी आती है और इन्हें संवैधानिक मर्यादाओं के भीतर ही प्रयोग किया जाना चाहिए; अदालत ने तीखे स्वर में कहा — “You can’t act like a crook” — और संकेत दिया कि जांच एजेंसियों का हर कदम पारदर्शी, व्यवस्थित तथा साक्ष्य-समर्थ होना चाहिए ताकि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित रहे। यह टिप्पणी उस गहरी चिंता का प्रतिबिंब थी जो अदालत ने पिछले कुछ वर्षों में दर्ज मामलों और अभियोगों की नतीजों को देखकर जताई; उच्चतम न्यायालय का मानना है कि कानून की शक्ति तभी सम्माननीय होती है जब उसका प्रयोग निष्पक्षता और संवैधानिक सीमा के साथ हो।
अदालत के समक्ष पेश आंकड़ों ने स्थिति और अधिक गंभीर रूप में प्रस्तुत की—पिछले पाँच वर्षों में ईडी द्वारा दर्ज लगभग 5,000 मामलों में दोषसिद्धि की दर लगभग 10% से भी कम दिखी है—यह आंकड़ा केवल संख्यात्मक नहीं है, बल्कि उससे जुड़े मानवीय प्रभावों और संस्थागत जवाबदेही के प्रश्नों को जन्म देता है। अदालत ने पूछा कि जिन मामलों में वर्षों तक चलने के बाद आरोपियों को बरी होना पड़ा, उन लोगों के खोए हुए समय, नौकरी, प्रतिष्ठा और मानसिक व आर्थिक क्षति की भरपाई किस तरह होगी। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि केवल अभियोग दर बढ़ाने के लिए शोर शराबे में केस दर्ज करना न्यायिक व्यवस्था के प्रति विश्वास को कमजोर करता है; यदि दर्ज मामलों की गुणवत्ता बेहतर होगी और जांच प्रक्रियाएं साक्ष्य-प्रधान व पुख्ता होंगी तो ही दोषसिद्धि व निपटान का वास्तविक अर्थ निकलेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने आलोचना के साथ-साथ सुधार की दिशा पर भी जोर दिया और कहा कि व्यवस्था में कई जगह तात्कालिक सुधारों की आवश्यकता है—जांच के तौर-तरीकों का आधुनिकीकरण, अधिकारियों की प्रशिक्षण-गहनता, डिजिटल सुविधाओं के जरिये साक्ष्य प्रबंधन, तथा अभियोजन पक्ष की तैयारी में सुधार आवश्यक है। न्यायालय ने तेज़ और गुणवत्तापूर्ण सुनवाई को सुनिश्चित करने के लिए विशेष अदालतों या समयबद्ध मुकदमाबाजी के विकल्पों पर विचार करने की सलाह दी, ताकि लंबित मामलों और अकारण देरी के कारण नागरिकों को होने वाले अनावश्यक नुकसान को रोका जा सके। अदालत का तर्क था कि जब जांच एजेंसी द्वारा दर्ज मामलों की सफलता दर कम हो रही है तो यह केवल विधिक प्रक्रिया का मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतंत्र में नागरिकों की सुरक्षा और राज्य के दायित्व का अहम सवाल बन जाता है।
यह स्पष्ट संदेश न केवल ईडी तक सीमित प्रभाव डालने वाला है बल्कि पूरे जांच-न्याय तंत्र, सरकारी नीतियों और सार्वजनिक बहस के केन्द्र में आ गया है। राजनीतिक, कानूनी और मानवाधिकार पर काम करने वाले संगठन पहले से ही इस मामले पर नई बहस के मूड में हैं—किस तरह संस्थागत पारदर्शिता, स्वतंत्र निगरानी तंत्र और जवाबदेही के प्रभावी उपाय लागू किए जाएँ ताकि शक्ति का दुरुपयोग रोका जा सके और साथ ही गंभीर अपराधों के प्रभावी अनुवीक्षण में कोई कमी न आए। न्यायिक टिप्पणी से स्पष्ट है कि सिर्फ़ कड़ी भाषा से काम नहीं चलेगा; आवश्यक है कि केंद्र और राज्य मिलकर ठोस नीतिगत सुधारों, नियमित गुणवत्ता ऑडिट और अधिकारी स्तर पर नैतिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करें, ताकि जांच की गुणवत्ता सुधरे और न्यायालय-ए-जाहिरा पर अनावश्यक बोझ कम हो।
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने यह संदेश दे दिया है कि कानून के भीतर रहना सभी संस्थाओं के लिए अनिवार्य है—अन्यथा समाज में न्याय का भरोसा और संवैधानिक व्यवस्था हिला सकती है। अब जिम्मेदारी सरकार, अनुसंधान संस्थानों और न्यायपालिका की संयुक्त पहल पर आती है कि वे इस चेतावनी को गंभीरता से लें और जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली में ऐसे सुधार लागू करें जिससे न सिर्फ़ दोषसिद्धि की वास्तविकता बढ़े बल्कि निर्दोषों के हक़ में भी न्याय समय पर सुनिश्चित हो सके।