नई दिल्ली 30 सितंबर 2025
400 साल पुरानी परंपरा पर अचानक रोक
मध्य प्रदेश के ग्वालियर में स्थित हजरत मुहम्मद ग़ौस की ऐतिहासिक दरगाह पर होने वाला उर्स कार्यक्रम केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का प्रतीक माना जाता है। पिछले 400 सालों से यह परंपरा लगातार चली आ रही है और हर साल बड़ी संख्या में लोग इसमें शामिल होते हैं। लेकिन हाल ही में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने इस आयोजन पर रोक लगा दी। यह फैसला उस समुदाय के लिए गहरी चोट साबित हुआ, जिसके लिए यह आयोजन न सिर्फ आस्था बल्कि अपनी विरासत का हिस्सा है।
हाईकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट की दखल
हाईकोर्ट के इस आदेश को चुनौती देते हुए मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली बेंच ने इस मुद्दे को गंभीर मानते हुए केंद्र और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह केवल एक धार्मिक आयोजन का प्रश्न नहीं, सांस्कृतिक धरोहर और परंपरा की निरंतरता से भी जुड़ा हुआ है। अदालत ने याचिकाकर्ता को आश्वस्त करते हुए कहा कि, “हम देखेंगे।” इसका मतलब साफ है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को प्राथमिकता के साथ सुनने वाला है और जल्द ही इस पर बड़ा फैसला सामने आ सकता है।
धार्मिक स्वतंत्रता बनाम प्रशासनिक आदेश
यह मामला केवल उर्स तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत के संवैधानिक मूल्यों और धार्मिक स्वतंत्रता पर भी गहरा सवाल उठाता है। क्या प्रशासन सुरक्षा और व्यवस्था के नाम पर सदियों पुरानी परंपराओं को खत्म कर सकता है? या फिर धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सर्वोपरि होना चाहिए? उर्स केवल एक मज़हबी रस्म नहीं, बल्कि समाज के अलग-अलग वर्गों और धर्मों को जोड़ने वाला पुल है। इस पर रोक लगाने का मतलब है गंगा-जमुनी तहजीब की उस डोर को कमजोर करना, जिसने भारत की पहचान बनाई है।
स्थानीय लोगों की नाराज़गी और उम्मीदें
ग्वालियर के लोग और उर्स से जुड़े अनुयायी इस रोक से बेहद निराश हैं। उनका कहना है कि यह आयोजन हमेशा से शांति, भाईचारे और सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक रहा है। यहां न केवल मुसलमान बल्कि हिंदू और अन्य धर्मों के लोग भी बड़ी संख्या में शामिल होते हैं। स्थानीय संगठनों का मानना है कि प्रशासन ने जल्दबाज़ी में ऐसा कदम उठाया, जिससे समुदायों में गलत संदेश गया। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट की दखल से उन्हें उम्मीद बंधी है कि न्यायालय उनके धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करेगा।
राजनीतिक और सामाजिक बहस
यह मामला राजनीतिक हलकों में भी गूंजने लगा है। विपक्षी दलों का कहना है कि सरकार प्रशासनिक बहाने बनाकर धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित कर रही है। वहीं, कुछ लोग मानते हैं कि सुरक्षा कारणों से ऐसे आयोजनों को नियंत्रित करना जरूरी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सुरक्षा और व्यवस्था सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी प्रशासन की नहीं है? क्या परंपरा को खत्म करना ही समाधान है? इस सवाल ने राजनीतिक बहस को और तेज कर दिया है।
न्यायपालिका से बड़ी उम्मीदें
अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं। अदालत का फैसला यह तय करेगा कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक परंपराओं की रक्षा किस हद तक संभव है। अगर अदालत ने उर्स आयोजन को बहाल किया, तो यह न सिर्फ ग्वालियर बल्कि पूरे देश के लिए एक मजबूत संदेश होगा कि भारत की गंगा-जमुनी तहजीब और धार्मिक स्वतंत्रता से समझौता नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर रोक बरकरार रही, तो यह आने वाले समय में कई और परंपराओं और आयोजनों पर असर डाल सकता है।