ऐतिहासिक बदलाव की दिशा में बड़ा कदम
नई दिल्ली – भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होने वाला निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिया गया है। देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने अपने प्रशासनिक ढांचे में पहली बार अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के कर्मचारियों के लिए आरक्षण नीति लागू कर दी है। यह निर्णय न केवल सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक इतिहास में परिवर्तन का प्रतीक है, बल्कि भारतीय न्यायिक संस्थाओं के भीतर सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व की दिशा में उठाया गया साहसिक कदम भी है।
यह आरक्षण व्यवस्था न्यायाधीशों के लिए नहीं, बल्कि रजिस्ट्रार, सीनियर पर्सनल असिस्टेंट, असिस्टेंट लाइब्रेरियन, जूनियर कोर्ट असिस्टेंट, चेंबर अटेंडेंट जैसे प्रशासनिक पदों के लिए लागू की गई है। यह व्यवस्था सीधे भर्ती और पदोन्नति दोनों में लागू होगी।
23 जून 2025 से प्रभावी हुआ ऐतिहासिक फैसला
24 जून को जारी एक सर्कुलर में सुप्रीम कोर्ट के सभी कर्मचारियों और रजिस्ट्रारों को यह जानकारी दी गई कि मॉडल रिजर्वेशन रोस्टर और रजिस्टर अब कोर्ट के इंट्रानेट (Supnet) पर अपलोड किया गया है और 23 जून 2025 से प्रभाव में आ चुका है। यदि किसी कर्मचारी को आरक्षण सूची में त्रुटि का संदेह हो, तो वे रजिस्ट्रार (भर्ती) के समक्ष आपत्ति दर्ज करा सकते हैं।
CJI भूषण गवई की अगुवाई में आया ऐतिहासिक निर्णय
इस ऐतिहासिक फैसले की विशेषता यह भी है कि यह मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई के कार्यकाल में लिया गया है — वे भारत के इतिहास में SC वर्ग से सर्वोच्च न्यायालय की अध्यक्षता करने वाले दूसरे व्यक्ति हैं। इस निर्णय में न केवल संवेदनशील नेतृत्व की झलक है, बल्कि यह उनके सामाजिक अनुभव और संवैधानिक दृष्टिकोण को भी दर्शाता है।
CJI गवई ने कहा, “समानता और प्रतिनिधित्व परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि एक–दूसरे के पूरक हैं। यदि हम सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं, तो हमें उसे अपने आंतरिक प्रशासन में भी लागू करना चाहिए। न्यायालयों ने वर्षों से आरक्षण की वैधता को स्वीकार किया है, अब उन्हें खुद भी उसी सिद्धांत पर चलना चाहिए।”
SC वर्ग को 15% आरक्षण और ST वर्ग को 7.5% आरक्षण मिलेगा। यह कोटा केंद्र सरकार की मौजूदा भर्ती नीतियों के अनुरूप तय किया गया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में यह पहली बार पदोन्नति में लागू किया जा रहा है।
पृष्ठभूमि: दशकों की कानूनी जटिलता और सामाजिक प्रतीक्षा
आरक्षण विशेषकर पदोन्नति में आरक्षण भारत में लंबे समय से विवाद का विषय रहा है। 2006 के M. Nagaraj फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण देने से पहले तीन शर्तें रखी थीं – पिछड़ापन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, और प्रशासनिक दक्षता। इसके चलते कई राज्यों की नीतियाँ निरस्त हो गई थीं।
2018 में Jarnail Singh मामले में एक राहत दी गई कि पिछड़ापन साबित करने की शर्त हटाई गई, लेकिन अन्य दो शर्तें बनी रहीं। साथ ही, “क्रीमी लेयर” को बाहर रखने का सिद्धांत भी जोड़ा गया। 2022 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया था कि पदोन्नति में आरक्षण लागू करने से पहले समकालीन आंकड़े और पोस्ट–वार प्रतिनिधित्व की जानकारी आवश्यक है।
क्यों है यह निर्णय विशेष?
सुप्रीम कोर्ट की इस पहल से अपने ही कर्मचारियों के बीच न्याय और समान अवसर का मार्ग प्रशस्त होगा। यह कदम अन्य संवैधानिक संस्थाओं — जैसे चुनाव आयोग, कैग कार्यालय, आदि — को भी प्रेरणा और कानूनी संरचना देगा। यह एक नैतिक और वैधानिक उदाहरण स्थापित करता है, जहां सुप्रीम कोर्ट अपने ही निर्णयों की संगति में आंतरिक नीतियाँ बना रहा है।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका के आत्मनिरीक्षण और आंतरिक लोकतंत्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। इस फैसले ने यह सिद्ध कर दिया कि सर्वोच्च न्यायालय केवल कानून की व्याख्या ही नहीं करता, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में भी अग्रणी हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने भीतर सामाजिक न्याय का दीप जलाया है — यह सिर्फ एक नीतिगत बदलाव नहीं, बल्कि एक विचारधारा की विजय है।