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सोनम वांगचुक का साहस, लद्दाख की जमीन और लोकतंत्र की परीक्षा

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जोधपुर / लेह / नई दिल्ली 5 अक्टूबर 2025

भारत के लोकतंत्र की असली शक्ति अदालतों या संसद भवन में नहीं, उन नागरिकों में निहित होती है जो सच्चाई के लिए खड़े होने का साहस रखते हैं। आज इस साहस का प्रतीक बनकर उभरे हैं सोनम वांगचुक, जो लेह की हिमाच्छादित घाटियों से उठकर जोधपुर जेल की चारदीवारी तक सत्य, न्याय और पर्यावरण की आवाज़ बन गए हैं। उनका यह बयान — “मैं तब तक हिरासत में रहने को तैयार हूं, जब तक एक स्वतंत्र न्यायिक जांच नहीं की जाती। मुझे सच्चाई पर भरोसा है और भारत के संविधान पर अटूट विश्वास है” — भारतीय नागरिकता के उस मूल भाव को पुनर्जीवित करता है जिसे आज की राजनीति लगातार कुचलने की कोशिश कर रही है।

वांगचुक का संघर्ष केवल उनकी गिरफ्तारी तक सीमित नहीं है। यह उस पूरे वैचारिक द्वंद्व का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ सत्ता और सत्य आमने-सामने खड़े हैं। एक तरफ है शासन की मशीनरी, जो अपने हर असहमति को “अपराध” घोषित कर देने की प्रवृत्ति से ग्रसित है, और दूसरी तरफ है एक शिक्षाविद और पर्यावरण रक्षक, जो संविधान और नैतिकता की आस्था से लैस होकर खड़ा है। इस पूरे घटनाक्रम के बीच जो खबरें निकलकर आ रही हैं, वे और भी गंभीर हैं। 

लेह-लद्दाख की विशाल भूमि का एक बड़ा हिस्सा 1300 मेगावाट बिजली उत्पादन परियोजना के नाम पर गौतम अडानी समूह को देने की तैयारी चल रही है। यह परियोजना कथित तौर पर क्षेत्र के विकास और हरित ऊर्जा के विस्तार के लिए है, लेकिन स्थानीय पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों की चिंताएँ कुछ और कहती हैं। वे चेतावनी दे रहे हैं कि इस परियोजना के जरिये न केवल लद्दाख के पर्यावरणीय संतुलन को खतरा पहुँचेगा, बल्कि स्थानीय लोगों की परंपरागत जमीनों और जल स्रोतों पर भी संकट आ सकता है।

इसी संदर्भ में सोनम वांगचुक का विरोध सामने आया। उन्होंने खुले तौर पर इस परियोजना की पारदर्शिता पर सवाल उठाए और कहा कि लद्दाख की धरती को उद्योगों का मैदान नहीं, बल्कि प्रकृति और समाज का संरक्षक बने रहना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि विकास का अर्थ केवल पूंजी निवेश नहीं, स्थानीय लोगों की भागीदारी और पर्यावरण की सुरक्षा होना चाहिए। परंतु उनकी यह आवाज़ सत्ता के लिए असहज थी। अचानक उन पर देशद्रोह के आरोप लगाए जाने लगे। उन्हें “पाकिस्तानी एजेंट” और “विदेशी फंडिंग वाले कार्यकर्ता” करार दिया जाने लगा। एक ऐसे व्यक्ति पर जो दशकों से शिक्षा सुधार, सौर ऊर्जा, जल संरक्षण और आत्मनिर्भर लद्दाख के लिए काम कर रहा है, अब राष्ट्र-विरोधी होने के आरोप लगाना हमारे लोकतंत्र की गिरावट का सबसे दुखद संकेत है।

यह पहली बार नहीं है जब सत्ता ने सत्य को दबाने के लिए राष्ट्रभक्ति का हथियार इस्तेमाल किया हो। जब भी किसी व्यक्ति ने सत्ता की नीतियों पर प्रश्न उठाया है, उसे “राष्ट्र-विरोधी” ठहराने का चलन इस देश में गहराता जा रहा है। गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण और अन्ना हजारे तक, हर युग में सत्ताएं इस प्रश्न से डरती रही हैं कि “क्या विकास का अर्थ जनता की भागीदारी के बिना संभव है?” सोनम वांगचुक इसी सवाल को दोहराते हैं — और यही सवाल सत्ता को असहज करता है। उनका संघर्ष केवल “1300 मेगावाट परियोजना” के खिलाफ नहीं, बल्कि उस सोच के खिलाफ है जो मानती है कि पूंजी ही प्रगति का मापदंड है।

लद्दाख की धरती सिर्फ़ पहाड़ों और बर्फ का प्रदेश नहीं, भारत की जलवायु धुरी है। यह हिमालयी क्षेत्र देश के जल संसाधनों, नदियों और पारिस्थितिकी का जीवन स्रोत है। यहाँ का हर पेड़, हर ग्लेशियर और हर झरना प्रकृति के संतुलन की गवाही देता है। ऐसे क्षेत्र में बिना स्थानीय सहमति और पर्यावरणीय समीक्षा के विशाल औद्योगिक परियोजना लाना विकास नहीं, विनाश का प्रारंभ है। सोनम वांगचुक इसी विनाश की चेतावनी दे रहे हैं। वे “विकास-विरोधी” नहीं हैं — “विनाश-विरोधी” हैं। लेकिन जब सत्ता की भाषा में विकास का मतलब केवल मुनाफा रह जाए, तो ऐसे लोगों की आवाज़ें जेलों में बंद कर दी जाती हैं।

जोधपुर जेल से निकला उनका यह संदेश केवल एक बयान नहीं, आधुनिक भारत की लोकतांत्रिक आत्मा की परीक्षा है। जब एक नागरिक यह कहता है कि उसे न्याय चाहिए, तो शासन को यह सुनकर गर्व होना चाहिए, भय नहीं। लेकिन आज यह विडंबना है कि जो सच्चाई मांग रहा है, वह जेल में है; और जो झूठ पर खामोश है, वह सत्ता के केंद्र में। यह स्थिति किसी भी लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। लोकतंत्र केवल संस्थाओं का ढांचा नहीं, वह नागरिकों के विवेक से बनता है। जब विवेक को कैद कर लिया जाता है, तो संविधान की आत्मा रोने लगती है।

सोनम वांगचुक का यह वाक्य — “अगर सच्चाई के लिए खड़ा होना अपराध है, तो मैं इस अपराध को स्वीकार करता हूं।” — आज भारत की आत्मा की पुकार बन गया है। यह वाक्य उस गांधीवादी चेतना की गूंज है जिसने हमें आज़ादी दिलाई थी। आज वही चेतना फिर से कारागार की दीवारों से बोल रही है, हमें याद दिलाते हुए कि न्याय की लड़ाई कभी आसान नहीं होती, पर जरूरी जरूर होती है।

लद्दाख का यह संघर्ष अब केवल क्षेत्रीय नहीं रहा। यह प्रश्न अब राष्ट्रीय है — क्या भारत का विकास प्रकृति की कीमत पर होगा? क्या जनता की आवाज़ को चुप कराकर हम सशक्त राष्ट्र बना सकते हैं? और क्या हर वह व्यक्ति जो पर्यावरण, संविधान और सत्य के पक्ष में खड़ा हो, उसे “देशद्रोही” कहा जाएगा? अगर इन सवालों के जवाब “हाँ” में हैं, तो यह देश अपने लोकतांत्रिक मार्ग से भटक चुका है। “जब सत्य बोलने वाला व्यक्ति बंदी बन जाए, तब जेलें ही लोकतंत्र की असली संसद बन जाती हैं।”

सोनम वांगचुक की लड़ाई किसी एक परियोजना या राजनीतिक नीति की नहीं है। यह उस भारत की लड़ाई है जहाँ नागरिकता का अर्थ है बोलने का साहस, और देशभक्ति का अर्थ है न्याय के लिए खड़ा होना। उनके खिलाफ लगाए गए आरोप न केवल हास्यास्पद हैं, बल्कि हमारे लोकतांत्रिक विवेक पर धब्बा हैं। यह संघर्ष हमें याद दिलाता है कि भारत की असली ताकत उसकी विविधता, उसकी चेतना और उसकी संवेदना में है — और इन्हें कोई भी सत्ता हमेशा के लिए कैद नहीं कर सकती।

 जोधपुर जेल में बंद सोनम वांगचुक अकेले नहीं हैं; उनके साथ इस देश की अंतरात्मा भी बंद है। लेकिन यह बंदीगृह स्थायी नहीं — क्योंकि सच्चाई की कोई जेल नहीं होती। कल या परसों, यह आवाज़ दीवारों को तोड़कर बाहर निकलेगी, और तब भारत को यह याद दिलाएगी कि लोकतंत्र तब तक जीवित है, जब तक उसमें सत्य बोलने वाले जीवित हैं।

 

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