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सादगी गई तेल लेने : भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले को ही बना दो भ्रष्टाचारी, लोकपाल अब 5 करोड़ की BMW में करेगा न्याय यात्रा

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नई दिल्ली से आई इस सनसनीखेज खबर ने देश में भ्रष्टाचार-विरोधी संस्थानों की नैतिकता और विलासिता पर एक गंभीर बहस छेड़ दी है। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए एक संवैधानिक संस्था के रूप में स्थापित लोकपाल ऑफ इंडिया (Lokpal of India) ने खुद ही एक ऐसा टेंडर जारी किया है, जिसके तहत वह 5 करोड़ रुपये की लागत से सात सफेद BMW 330 Li (लॉन्ग व्हीलबेस) लग्ज़री कारें खरीदने जा रहा है। इस खरीद का आधिकारिक कारण तो कुछ समझ नहीं आता है। ऐसा लगता है कि “Swift Dzire में अफसरों की शायद कमर अकड़ जाती होगी। यह  संवैधानिक संस्था के उद्देश्यों और प्राथमिकताओं पर एक तीखा कटाक्ष है। इस टेंडर में स्पष्ट किया गया है कि ये महंगी गाड़ियाँ लोकपाल के प्रशासनिक और लॉजिस्टिक कार्यों के लिए खरीदी जा रही हैं, जबकि इस संस्था का मुख्य और मौलिक उद्देश्य देश में भ्रष्टाचारियों का पीछा करना और सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करना है।

 यह टेंडर प्रक्रिया 16 अक्टूबर 2025 को शुरू हुई और बोली खोलने की तिथि 7 नवंबर तय की गई है, जहाँ प्रत्येक गाड़ी की अनुमानित कीमत 70 लाख रुपये है। सबसे बड़ी बात यह है कि लोकपाल को मिलने वाला पूरा बजट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अधीन कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) से स्वीकृत होता है, जिसका अर्थ है कि यह धनराशि सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) से अनुमोदित होती है, जिससे इस खरीद पर राजनीतिक और प्रशासनिक जवाबदेही का सवाल भी गहरा गया है।

नैतिक विसंगति और फिजूलखर्ची: ‘लोकपाल’ या ‘लक्ज़रीपाल’?

₹70 लाख की BMW से चलेंगे भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाले लोकपाल, ड्राइवरों को दी जाएगी ट्रेनिंग। लोकपाल अध्यक्ष और सात सदस्य अब देश की सबसे महंगी और आधुनिक BMW 330Li कारों में सवारी करेंगे. कारों की डिलिवरी अगले महीने होगी, और ड्राइवरों को कम से कम सात दिन की ट्रेनिंग दी जाएगी. 

लोकपाल की इस विलासितापूर्ण खरीद पर विपक्ष और सामाजिक संगठनों ने इसे एक घोर ‘नैतिक विसंगति’ और जनता के पैसे की बर्बादी बताया है। कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि, “लोकपाल को अभी तक कोई बड़ा भ्रष्टाचार मामला सुलझाने में सफलता नहीं मिली, लेकिन अब वह जनता के पैसों से BMW में सैर करेगा। यह न ‘मेक इन इंडिया’ है, न ‘सेवा भावना’।” यह खरीद प्रक्रिया ऐसे समय में सामने आई है जब देश में सरकारी खर्चों और पारदर्शिता पर कड़ी निगरानी की मांग उठ रही है। एक ओर जहाँ सरकार भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची और दिखावे के खिलाफ ‘सख्ती’ का दावा करती है, वहीं दूसरी ओर लोकपाल जैसे संवैधानिक संस्थान द्वारा विदेशी लग्ज़री कारों की खरीद जनता के विश्वास को गंभीर रूप से झटका देती है।

 नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत ने भी ट्वीट कर अप्रत्यक्ष रूप से हमला करते हुए लोकपाल को विदेशी लग्ज़री कारों की बजाय भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन विकल्पों (जैसे Mahindra XEV-9E और Tata Harrier EV) पर विचार करने की सलाह दी, जो आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य के अधिक अनुकूल होते। सामाजिक कार्यकर्ता और पारदर्शिता अभियान के संस्थापक अंशुल त्रिपाठी का कहना है कि यह वही संस्था है जिसे जनता ने नेताओं और अफसरों की जवाबदेही तय करने के लिए बनाया था, पर अब वह खुद सरकारी शानो-शौकत का प्रतीक बन रही है, जिससे यह संस्था ‘लोकपाल’ कम और ‘लक्ज़रीपाल’ ज्यादा प्रतीत हो रही है।

सादगी बनाम शान: BMW की पिछली सीट से लोकसेवा का सवाल

लोकपाल का यह महंगा फैसला उस राजनीतिक और प्रशासनिक दर्शन के बिल्कुल विपरीत है जहाँ प्रधानमंत्री स्वयं हर मंच पर ‘मिनिमल गवर्नेंस, मैक्सिमम इफिश्येंसी’ (न्यूनतम सरकार, अधिकतम दक्षता) की बात करते हैं। यह खरीद सीधे तौर पर यह सवाल उठाती है कि क्या ‘लोकसेवा’ अब BMW की पिछली सीट से होगी? और क्या भ्रष्टाचारियों को पकड़ने के लिए अब सायरन की नहीं, सनरूफ की ज़रूरत है? लोकपाल सचिवालय ने हालांकि इस विवाद पर अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन सूत्रों के हवाले से पता चला है कि कुछ वरिष्ठ अफसरों का यह तर्क है कि “BMW 330 Li में बेहतर सुरक्षा फीचर्स, बुलेटप्रूफ सुविधा और लंबी यात्राओं में आराम” को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है। वहीं, टेंडर में यह भी कहा गया है कि गाड़ियाँ मिलने के बाद BMW कंपनी अपने ड्राइवरों और कर्मचारियों को 7 दिन की विशेष ट्रेनिंग देगी, ताकि वे इन ‘हाई-टेक’ कारों को संभाल सकें, जो इस खरीद के अनावश्यक दिखावे को और भी उजागर करता है।

 जनसामान्य और पारदर्शिता समर्थक इस पूरे घटनाक्रम को “लोकपाल का नैतिक पतन” बता रहे हैं, और सोशल मीडिया पर यह व्यंग्य तेजी से फैल रहा है कि “भ्रष्टाचारियों का पीछा अब BMW से होगा, क्योंकि Swift Dzire में कमर अकड़ जाती है!” यह घटना लोकपाल की प्राथमिकताओं पर न सिर्फ सवाल खड़ा करती है, बल्कि उस सोच को भी उजागर करती है, जो भ्रष्टाचार पर वार करने से पहले स्वयं विलासिता की गाड़ी में बैठना पसंद करती है, जिससे यह पुरानी कहावत उलट गई है: “भ्रष्टाचार रोकने वालों को ही भ्रष्ट कर दो — बढ़िया तकनीक है!”

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