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शर्म और सिस्टम का पतन: कॉलेज के टॉयलेट में रेप, आरोपी बोला — “अबॉर्शन पिल तो नहीं चाहिए?”

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बेंगलुरु ब्यौरा 17 अक्टूबर 2025

 इंसानियत की कब्र — शिक्षा के मंदिर में दरिंदगी और व्यवस्था की खामोशी

बेंगलुरु के एक प्रतिष्ठित निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में हुई यह वीभत्स घटना न केवल एक आपराधिक कृत्य है, बल्कि उस पूरे सामाजिक और शैक्षणिक तंत्र के पतन का स्पष्ट प्रमाण है, जो महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करने का दावा करता है। एक छात्रा को उसके ही सहपाठी ने, जिसे वह जानती थी, कैंपस के सबसे असुरक्षित और शर्मनाक स्थान—पुरुषों के टॉयलेट में—घसीटकर बलात्कार किया। यह घटना शिक्षा के उस मंदिर को कलंकित करती है जहाँ युवा भविष्य के सपने बुनने आते हैं। इस दरिंदगी के बाद आरोपी छात्र का यह जघन्य सवाल: “अबॉर्शन पिल तो नहीं चाहिए?”, सिर्फ एक वाक्य नहीं है। 

यह भारतीय समाज में व्याप्त उस कुत्सित और रुग्ण मानसिकता का खुला प्रदर्शन है जहाँ एक पुरुष अपराधी, अपने अपराध को एक सामान्य घटना मानकर, पीड़िता की भावनाओं, उसके दर्द और उसके भविष्य की तनिक भी परवाह नहीं करता। यह टिप्पणी दर्शाती है कि समाज में नैतिकता का स्तर किस हद तक गिर चुका है, जहाँ बलात्कार के बाद भी अपराधी के चेहरे पर खौफ या शर्म नहीं, बल्कि एक घिनौनी और क्रूर संवेदनहीनता झलकती है। यह सिर्फ एक व्यक्ति का अपराध नहीं, बल्कि उस सोच की पराकाष्ठा है जो लड़कियों को वस्तु समझती है, जिसे इस्तेमाल करने के बाद निपटा दिया जाए।

 सुरक्षा का ढोंग और कॉलेज प्रशासन की आपराधिक लापरवाही

यह घटना कॉलेज प्रशासन की उस भयानक और जानबूझकर की गई लापरवाही को उजागर करती है, जिसने एक सुरक्षित वातावरण प्रदान करने की अपनी सबसे बुनियादी जिम्मेदारी को तिलांजलि दे दी। एक ऐसे हाई-प्रोफाइल कैंपस के भीतर, जहाँ सैद्धांतिक रूप से उच्च सुरक्षा व्यवस्था, सीसीटीवी कैमरे और नियमित गश्त होनी चाहिए, एक छात्रा को पुरुषों के टॉयलेट में खींचकर लगभग बीस मिनट तक प्रताड़ित किया जाता है। क्या यह सुरक्षा गार्डों, ड्यूटी पर मौजूद स्टाफ और शीर्ष प्रबंधन की मिलीभगत या कम से कम उनकी घोर निष्क्रियता का प्रमाण नहीं है?

 इस घटना के सामने आने के बाद कॉलेज प्रबंधन “आंतरिक जांच” का नाटक कर रहा है, जो अक्सर लीपापोती से अधिक कुछ नहीं होता। वे केवल अपने संस्थान की साख बचाने की कोशिश कर रहे हैं, न कि पीड़िता को न्याय दिलाने की। अगर कैंपस के भीतर लड़कियाँ सुरक्षित नहीं हैं, तो इन संस्थानों का उद्देश्य केवल डिग्रियाँ बेचना रह गया है, न कि चरित्र या भविष्य का निर्माण करना। कॉलेज प्रशासन की यह आपराधिक चुप्पी और ढुलमुल रवैया उन्हें इस जघन्य अपराध में परोक्ष रूप से भागीदार बनाता है।

कानून की लचरता और न्यायिक संवेदनशीलता की दरकार

आरोपी छात्र की गिरफ्तारी कानूनी प्रक्रिया की शुरुआत मात्र है, लेकिन असली लड़ाई उस सोच और व्यवस्था से है जो ऐसे अपराधियों को बार-बार पैदा करती है। यह घटना हर बार दोहराई जाने वाली उस कहानी का हिस्सा है, जहाँ समाज थोड़े समय के लिए आक्रोश व्यक्त करता है, नारे लगाता है, लेकिन फिर सब भूल जाता है। यह मामला एक कड़ा संदेश देने का अवसर है—कि अब ऐसे अपराधों को केवल “साधारण पुलिस केस” मानकर टाल नहीं दिया जाएगा। ज़रूरत है कि न्यायिक प्रक्रिया तीव्र हो, संवेदनशीलता के साथ संचालित हो और अपराधी को न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि सामाजिक और कानूनी तौर पर भी सबसे कड़ी सजा मिले। 

यह घटना एक बार फिर याद दिलाती है कि भारत में महिला सुरक्षा एक कोरा चुनावी नारा बनकर रह गया है, जो अदालतों की लंबी प्रक्रियाओं और कानूनी दांवपेंचों में दम तोड़ देता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आरोपी के चेहरे पर मुस्कान न रहे, बल्कि उसे उसकी क्रूरता का डर सताए, और पीड़िता की खामोश चीख को कानून की दहाड़ में बदला जा सके।

नारी पर वार, समाज की रीढ़ पर प्रहार और चेतना की आवश्यकता

जिस उम्र में यह छात्रा अपने करियर, सपनों और भविष्य को आकार देने कॉलेज आई थी, उसी उम्र में उसे उस भय, मानसिक आघात और लांछन का सामना करना पड़ा है, जिसे वह शायद जीवन भर नहीं भूल पाएगी। यह केवल एक व्यक्तिगत अपराध नहीं, बल्कि एक महिला के अस्तित्व, उसकी गरिमा और आत्म-सम्मान पर किया गया एक सुनियोजित हमला है। यह मामला भारत के हर माँ-बाप, संरक्षक और नागरिक की चेतना को झकझोरने वाला है, जो अपनी बेटियों को सुरक्षित भविष्य की आशा में शैक्षणिक संस्थानों में भेजते हैं। 

अब सवाल यह नहीं है कि “क्या सुरक्षा है?”, बल्कि यह है कि “कहाँ सुरक्षा है?”। यह सामूहिक चेतना को जगाने का समय है, यह समझने का कि एक बेटी का भय पूरे समाज की रीढ़ को कमजोर करता है। यह आवश्यक है कि हम केवल पीड़िता के लिए दया न महसूस करें, बल्कि उसके सम्मान और गरिमा की बहाली के लिए सामूहिक रूप से आवाज उठाएँ। उसे केवल कानूनी न्याय नहीं, बल्कि उस सामाजिक समर्थन और मानसिक संबल की भी आवश्यकता है, जो उसे इस दर्दनाक अनुभव से उबरने में मदद करे। अब वक्त आ गया है कि समाज खामोश न रहे और सरकार डर जाए, ताकि बेटियाँ डरना बंद करें और दरिंदे जीना।

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