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गंभीर सवाल : चोर चोरी से जाए, हेरा-फेरी से न जाए !!

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बिहार की मतदाता सूची में हुए बड़े पैमाने वाले बदलाव और एक संसदीय क्षेत्र से लगभग 78 हज़ार मुस्लिम मतदाताओं के हटाने या हटाए जाने के प्रयास ने देश को हिला कर रख दिया है। रिपोर्टर्स कलेक्टिव की ख़बर और समाजसेवी योगेन्द्र यादव के संजीदा सवालों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गहरा संदेह पैदा कर दिया है। अब ऐसा लगने लगा है कि वही कहावत सच साबित होने के कगार पर है — “चोर चोरी से जाए, हेरा-फेरी से न जाएं” — और आयोग इस कहावत को सही ठहराए जाने से रोकने के बजाय खुद संदिग्ध दिख रहा है। बिहार कांग्रेस अध्यक्ष राजेश राम ने कहा है कि बिहार में हुई SIR की कवायद शुरू से ही निष्पक्षता और पारदर्शिता के सवालों के घेरे में रही है। उन्होंने कहा, कांग्रेस कार्यकर्ता पूरे राज्य में SIR का गहन मूल्यांकन करेंगे कि कितने नाम जोड़े गए और कितने नाम हटाए गए, यह मुद्दा यहीं समाप्त नहीं होगा।

सांसद पप्पू यादव ने चुनाव आयोग पर सीधा हमला बोला और कहा कि आयोग को बूथवार यह स्पष्ट करना चाहिए कि मतदाता सूची में कितने रोहिंग्या, कितने बांग्लादेशी, कितने म्यांमार के और कितने अन्य घुसपैठिये शामिल हैं। उन्होंने मांग की कि चुनाव आयोग हलफनामा देकर देश को आश्वस्त करे कि अब बिहार की मतदाता सूची में एक भी बांग्लादेशी, रोहिंग्या या म्यांमार का घुसपैठिया दर्ज नहीं है। पप्पू यादव ने चेतावनी दी कि यदि चुनाव आयोग यह हलफनामा नहीं देता तो उसे देश से माफी मांगनी होगी। उन्होंने भाजपा पर भी हमला बोलते हुए कहा कि झूठ और नफरत फैलाने वाली एजेंसी के रूप में चुनाव आयोग को खड़ा करने के लिए पूरे देश से क्षमायाचना करनी पड़ेगी।

विस्फोटक खुलासे और आरोप

The Reporters’ Collective की रिपोर्ट और चुनावी आंकड़ों के आकलन के चलते यह आशंका गहराती जा रही है कि किसी नियोजित, संगठित कोशिश के माध्यम से एक विशेष समुदाय के हजारों मतदाताओं को निशाना बनाया गया। रिपोर्ट के मुताबिक एक बिहार की सीट पर बार-बार प्रयास किए गए कि लगभग 78,000 मुस्लिम मतदाताओं के नाम वोटर-लिस्ट से हट जाएँ — और स्थानीय निर्वाचन अधिकारियों ने इन प्रयासों को ‘पहचाना’ है। भाजपा के किसी राज्य अधिकारी ने इन आरोपों का स्पष्ट खंडन नहीं किया, जबकि आयोग की तरफ से अब तक किसी प्रकार की कड़ी कार्रवाई नजर नहीं आई। यह परिस्थितियाँ बताती हैं कि यहाँ केवल एक लोकल गड़बड़ी नहीं, बल्कि चुनावी प्रक्रियाओं की विश्वासयोग्यता पर हमला हो सकता है।

चुनाव आयोग (ECI) पर सबसे गंभीर आरोप यह है कि उसने उन आंकड़ों की सफाई नहीं दी जो सार्वजनिक किए जाने चाहिए थे। योगेन्द्र यादव ने स्पष्ट रूप से पूछा है कि 1 सितंबर तक जो New Form-6 जमा हुए थे (16.93 लाख), वे किस तरह अंतिम रोल में 21.53 लाख बन गए — यानी बहुचर्चित 4.6 लाख नए नाम कैसे शामिल हुए, जबकि नियम कहता है कि बाद की एंट्री अंतिम रोल में नहीं होनी चाहिए। यह विस्फोटक अंतर केवल आकस्मिक त्रुटि नहीं लगती — बल्कि गम्भीर हेरा-फेरी के संकेत देती है।

आयोग की अनिश्चिता: चुप्पी या कवर-अप?

सबसे खतरनाक बात यह है कि आयोग की प्रतिक्रिया अस्पष्ट और धीमी रही है। आयोग के प्रेस नोट में जो 3.66 लाख नामों को ड्राफ्ट से हटाने की बात कही गई, उसका ब्रेक-अप जारी नहीं किया गया — कितने लोग दस्तावेज़ न होने से हटाए गए, कितने आपत्तियों पर कटे, और किन कारणों से हटाए गए — यह सब सार्वजनिक नहीं किया गया। इस जानकारी के अभाव में ही आरोपों का दायरा बढ़ता जा रहा है और लोगों का यह सवाल जायज़ बनता जा रहा है: क्या आयोग तथ्य छिपा रहा है, या उसकी मशीनरी पर किसी प्रकार का दबाव है जिसे वह झेल नहीं पा रही?

जनता और विपक्ष दोनों तरफ से अब यही रोष सुनाई दे रहा है कि अगर चोर चोरी से जाए और हेरा-फेरी करने वाले बच जाएँ तो लोकतंत्र का बहुमूल्य जीवन खो जाएगा। यही वजह है कि लोग कह रहे हैं — आयोग को अब चुप्पी तोड़कर पूरा डेटा और पारदर्शी स्पष्टीकरण देना चाहिए, वरना यही कहावत सच साबित हो जाएगी।

राजनीतिक विस्फोट और सामाजिक प्रतिक्रिया

सोशल मीडिया पर आरोपों की बाढ़ आ चुकी है — X से लेकर फेसबुक तक लोग लिख रहे हैं कि क्या यह सिस्टमेटिक पलायन है, क्या किसी राजनीतिक ताकत द्वारा संगठित तौर पर एक समुदाय की मतदाता भागीदारी को कमजोर करने की कोशिश हो रही है? विपक्ष ने त्वरित रूप से चुनाव आयोग, भाजपा और राज्य प्रशासन को घेरा है और जांच की मांग कर दी है। मानवाधिकार और नागरिक संस्थाएं भी इस मामले में आयोग से त्वरित, निष्पक्ष और सार्वजनिक जाँच की अपील कर रही हैं।

यदि सच्चाई यही निकलती है कि किसी राजनीतिक एजेंडे के कारण वोटर-रोल में व्यवस्थित छेड़छाड़ की गई, तो यह केवल बिहार का मामला नहीं रहेगा — यह पूरे देश के चुनावी तंत्र पर एक कालिख है। ऐसे में आयोग की भूमिका निर्णायक हो जाती है: या तो वह पारदर्शिता दिखाएगा और दोषियों के विरुद्ध तत्काल कार्रवाई करेगा, या फिर जनता का विश्वास हमेशा-हमेशा के लिए खो देगा।

 देश मांग रहा है जवाब

आज देश पूछ रहा है — क्या चुनाव आयोग वह स्वतंत्र प्रहरी है जिसे संविधान ने बनाया था, या किसी राजनीतिक दबाव के आगे झुकने वाली संस्था बनती जा रही है? चाहे यह केवल एक स्थानीय गड़बड़ी निकले या बड़े पैमाने की साजिश — अब तक की परिस्थितियाँ और उपलब्ध आंकड़े एक ही संदेश देते हैं: आयोग को तुरंत पूरी पारदर्शिता, सभी संबंधित आँकड़ों का खुलासा और एक स्वतंत्र त्वरित न्यायिक जांच की पहल करनी चाहिए। वरना “चोर चोरी से जाए, हेरा-फेरी से न जाएँ” वाली कहावत सच साबित होने से कोई रोक नहीं पाएगा — और लोकतंत्र का भरोसा टूट जाएगा।

 

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