जनवरी 2025 में बिहार ने एक ओर जहां अपराधियों के खिलाफ पुलिस मुठभेड़ों में सफलता पाई, वहीं दूसरी ओर राज्य के कई ज़िलों से आई स्थानीय आपराधिक घटनाओं ने साफ कर दिया कि नीचले स्तर की कानून-व्यवस्था में अब भी कई गंभीर चुनौतियाँ बनी हुई हैं। मुंगेर, बांका, गया, बक्सर और गोपालगंज जैसे ज़िलों की खबरों ने न केवल पुलिस प्रशासन की कार्यशैली पर प्रश्न खड़े किए, बल्कि सामाजिक ताने-बाने, महिलाओं की सुरक्षा और राजनीतिक संघर्षों की जमीनी जटिलता को भी उजागर किया।
मुंगेर जिले से आई सबसे चौंकाने वाली खबर थी एक हथियार तस्कर की हिरासत में मौत। पुलिस के अनुसार आरोपी की तबीयत बिगड़ने पर अस्पताल ले जाया गया, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया, लेकिन परिजनों ने पुलिस पर निर्दयी मारपीट और अवैध पूछताछ का आरोप लगाया। इसके विरोध में थाने के बाहर धरना-प्रदर्शन शुरू हो गया और जिले में तनाव फैल गया। इस घटना ने एक बार फिर पुलिस कस्टडी में मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे को उजागर किया और उच्चस्तरीय जांच की मांग को जन्म दिया।
बांका जिले से एक नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म के प्रयास की खबर ने पूरे क्षेत्र में भय और आक्रोश फैला दिया। आरोपी फरार हो गया और पुलिस द्वारा उसकी गिरफ्तारी के लिए अभियान शुरू किया गया। यह घटना बिहार के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर गहरे संकट की ओर इशारा करती है, जहाँ सामाजिक संकोच और पुलिस की धीमी प्रतिक्रिया पीड़ितों को न्याय से दूर कर देती है।
गया जिले में पुलिस को सफलता मिली जब लंबे समय से वांछित कुख्यात अपराधी ‘पगला मांझी’ को एक मुठभेड़ में घायल कर दबोच लिया गया। यह ऑपरेशन पुलिस की तत्परता और सूचना तंत्र की सफलता का संकेत देता है, लेकिन यह भी साफ करता है कि ऐसे दुर्दांत अपराधी आज भी कई इलाकों में डर और अस्थिरता का कारण बने हुए हैं।
बक्सर में पैक्स अध्यक्ष के भाई की गोली मारकर हत्या कर दी गई। यह घटना न केवल स्थानीय राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का परिणाम मानी जा रही है, बल्कि यह इस ओर भी इशारा करती है कि ग्रामीण सत्ता संघर्षों में अब हथियारों का प्रयोग आम हो गया है। चुनावी समीकरणों से जुड़े ऐसे मामले कानून-व्यवस्था को चुनौती देते हैं, जहां न्याय प्रक्रिया अक्सर राजनीतिक हस्तक्षेप या दबाव में उलझ जाती है।
वहीं, गोपालगंज से भी चोरी, आपसी झगड़े और जमीनी विवादों के कई मामले प्रकाश में आए, जिससे स्पष्ट होता है कि स्थानीय पुलिस थानों में दैनिक अपराधों की बाढ़ बनी हुई है, जबकि संसाधन और स्टाफ की कमी से निपटना एक बड़ी चुनौती है।
इन सभी घटनाओं को समग्र रूप में देखा जाए तो जनवरी 2025 में बिहार की कानून-व्यवस्था एक दोहरी छवि प्रस्तुत करती है—एक ओर अपराधियों के खिलाफ सख्त मुठभेड़ और अभियान, दूसरी ओर थानों में बंद आरोपियों की मौत, दुष्कर्म की घटनाएँ और राजनीतिक हत्या जैसे मुद्दे। इसका सीधा अर्थ है कि राज्य में टॉप-डाउन (ऊपरी) सुरक्षा रणनीति सफल हो सकती है, लेकिन नीचे तक उसके प्रभाव की निरंतर निगरानी और पारदर्शिता बेहद आवश्यक है।
जनता के बीच डर और गुस्से को कम करने के लिए अब प्रशासन को सिर्फ “कार्रवाई” नहीं, बल्कि जनसरोकारों के साथ जवाबदेही आधारित पुलिसिंग को आगे बढ़ाना होगा। तभी बिहार का नागरिक खुद को वास्तव में सुरक्षित महसूस करेगा — चाहे वह किसी शहर का हो या गाँव का।